अपने घर परिवार को छोड़कर समाज को जगाने का प्रयत्न करने वाले बहुत से समाज सुधारक इस देश दुनिया में हुए हैं. जिन्होंने अपने विचारों के माध्यम से समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए अपना जीवन त्याग कर दिया. ऐसे सभी संतों की विचारशैली और कार्यशैली भले ही अलग रही हो. लेकिन सभी का उद्देश्य केवल था, एक – बेहतर समाज, हर प्रकार की बुराइयों से दूर. ऐसे ही महान विभूतियों में से एक है, संत गाडगे महाराज. संत गाडगे महाराज ने समाज को जगाने के लिए अपना परिवार त्याग दिया. वे खुद अशिक्षित थे, लेकिन शिक्षा के लिए लोगों को में जागरूकता फैले इसके लिए अपना जीवन त्याग दिया. वे बुद्धिवादी आंदोलन के प्रणेता बनें. संत गाडगे महाराज कर्मकांडवाद, पाखंडवाद और जातिवाद जैसी कुरीतियों का विरोध तो करते ही थे साथ ही स्वच्छता के प्रति लोगों को जागरूक करने का काम भी अपने भजनों के माध्यम से करते थे. भारत को आज संत गाडगे महाराज जैसे विभूतियों की बहुत जरूरत है.
संघर्ष भरा शुरूआती जीवन
महाराष्ट्र के दलित-बहुजन परंपरा की एक महत्वपूर्ण कड़ी संत गाडगे बाबा भूलेश्वरी(भुलवरी) नदी के किनारे स्थित ग्राम शेंडगांव तालुका अंजनगांव सुर्जी, जिला अमरावती, महाराष्ट्र में 23 फरवरी, 1876 को धोबी समुदाय के झिंगराजी जाणोरकर (जन्म 1850 ई.) और सखूबाई के घर पैदा हुए थे. इनका पूरा नाम देविदास डेबूजी जणोरकर था. इनके पिता झिंगराजी कपड़े धोने का काम करते थे. डेबूजी के बचपन में ही सन 1884 ई. में उनके पिताजी की मृत्यु हो गई थी.
इसके बाद माता सखूबाई इन्हें लेकर अपने मायके मुर्तिजापुर तालुका के दापुरे गांव चली गईं. डेबू जी का पूरा बचपन मामा चंद्रभान के यहां ही बीता. सुबह तड़के उठकर गौशाला साफकर नाश्ता कर दोपहर के भोजन के लिए प्याज और रोटी रखकर गाय-भैंस-बैल-चराने के लिए ले जाते थे. इसके अतिरिक्त मामा के साथ खेती-बाड़ी में भी हाथ बंटाने लगे. पशुओं को चराना, नहलाना, सानी-पानी और गोबर-कूड़ा उठाने का काम भी करते थे. उनका विवाह 1892 ई में कमालपुर गांव के घनाजी खल्लारकर की बेटी कुंताबाई से हुआ. विवाह के बाद भी डेबू जी का भजन-कीर्तन मण्डली में जाने का सिलसिला जारी था. गाडगे बाबा और कुंताबाई को चार बच्चे थे, दो बेटी आलोकाबाई व कलावती और दो बेटे मुग्दल व गोविंदराव हुए.
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बेहतर समाज के लिए स्वछता को दिया महत्व
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मौजूदा समय में स्वच्छ भारत अभियान के माध्यम से स्वच्छता की अलख लोगों में जगा रहे हैं. लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि अभी से करीब 150 वर्ष पूर्व ही संत गाडगे महाराज ने अपने समय में लोगों को स्वच्छता के प्रति जागरूक करने का प्रयास किया था और उन्हें समझाया कि शिक्षित समाज के लिए साफ सफाई बेहद जरूरी है.
एक लाठी और एक गडगे से शुरू की समाज सुधार की पहल
बचपन से ही डेबूजी को समाज में व्याप्त बुराइयां और समस्याएं कचोटती रहती थीं. जिन्हें दूर करने की मन में ठान कर वे 1 फरवरी 1905 को माता के पैरों माथा टेककर हमेशा के लिए अपना घर त्याग कर चले गए. जिस वक्त बेहतर समाज की परिकल्पना को साकार करने की बात को मन में ठानकर अपना घर त्यागा था, तब उनके पास सामान के नाम पर केवल एक लाठी, एक गडगा और तन पर फटे- पुराने कपड़ों से बना केवल एक वस्त्र भर था.
जिसके कारण कई स्थानों पर उनके साथ दुर्व्यवहार भी हुआ. लेकिन समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने का संकल्प लेकर घर छोड़ने वाले डेबूजी कभी परेशान नहीं हुए. घर छोड़ने के 12 वर्षों तक एक साधक के रूप में देश भर में घूम – घूम कर भजन, कीर्तन और जनसंपर्क कर लोगों को जागरूक करते रहे.
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भजन कीर्तन के माध्यम से किया समाज को जगाने का प्रयास
बाबा गडगे एक ऐसे संत थे जिहोने पूरा जीवन भजन और कीर्तन के माध्यम से समाज को जगाने का प्रयास किया . उनकी मृत्यु के बाद भी उनके अनुयायी आज भी उनके विचारों को देश के जन -जन तक पहुंचाने का काम कर रहे हैं. समाज सुधार की दिशा में गाडगे बाबा के द्वारा उठाए गए कदमों ने अनेकों लोगों के जीवन का उद्धार किया.
‘देवदासी’ प्रथा पर करते थे ब्राह्मणों पर तीखा कटाक्ष
संत कबीर की तरह ही बाबा गडगे भी ब्राह्मवादियों से तीखा सवाल करते थे. देवदासी प्रथा पर ब्राह्मणों से वे यह तीखा सवाल पूछते हैं कि आखिर आप लोग अपनी बेटियों को देवदासी क्यों नहीं बनाते हैं? इस संदर्भ में उन्होंने कहा कि “येलम्मा देवी हैं. अनपढ़ अछूत, शूद्र लोग देवी को खुश करने के लिए अपनी छोटी बच्चियों की शादी उनसे कर देते हैं. ये छोटी बच्चियां देवदासी कहलाती हैं, मजबूरन दिन-रात पंडे पुजारियों के काम-वासना का शिकार होती हैं.” वे कहते हैं कि येल्लम्मा देवी हैं, देवता नहीं. तो फिर ये पंडे देवी के साथ लड़कियों की शादी क्यों करवाते हैं? उनकी शादी तो लड़के के साथ होनी चाहिए. पंडे (ब्राह्मण) अपनी लड़कियों की शादी देवी से क्यों नहीं करवाते?
छुआछूत पर जमकर प्रहार
बाबा गडगे का कहना था कि, “महार, चमार, भंगी के संपर्क से तुम्हारा लोटा-थाली अशुद्ध हो जाता है, तो उसे तुम अग्नि में जलाकर शुद्ध करत हो? लेकिन स्वयं उनके संपर्क में आने पर अपने आपको जलाकर शुद्ध क्यों नहीं करते हो? चमार का बनाए चमड़े का ढोलक, झाल-मजीरा बजाने से मंदिर अपवित्र नहीं होता, लेकिन उसे बनाने वाला चमार मंदिर में चला जाए तो मंदिर अपवित्र हो जाता है. हिंदुओं के लिए मरे जानवर (गाय-भैंस) की चमड़ी पवित्र है, लेकिन जिंदा मनुष्य अपवित्र है.” गाडगे यह भी पूछते हैं कि जो व्यक्ति गाय का मूत्र पीकर अशुद्ध नहीं होता, वह किसी इंसान की छाया पड़ने से कैसे अपवित्र हो जाता है? क्या यह ढोंग और पाखंड नहीं है? मंदिर की मूर्तियों पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि “ब्राह्मण और पुरोहित धर्मांधता फैलाकर अपनी रोजी-रोटी और वर्चस्व कायम करने के लिए ऐसा करते हैं. झूठ और फरेब फैलाते हैं. वे पत्थर की मूर्तियों में प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं. परंतु, अपने मृत माता या पिता में जान नहीं फूंक सकते हैं.” मूर्तियों को खरीदने-बेचने पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि क्या भगवान को खरीदा-बेचा जा सकता है. वे तीर्थ यात्रा, मंदिर में पूजा और संगम में स्नान को व्यर्थ का पाखंड कहते थे.
विद्या बिना मति गई, मति बिना गति गई,
गति बिना नीति गई, नीति बिना वित्त गई
वित्त बिना शूद्र टूट गए,
इतना सारा अनर्थ एक अविद्या से हुआ
आंबेडकर भी करते थे इनके विचारों का समर्थन
आमतौर पर संतों-महात्माओं से दूरी बनाकर रखने वाले डॉ. आंबेडकर भी संत गाडगे के आधुनिक विचारों एवं सबको शिक्षित करने के अभियान का अत्यंत आदर करते थे और दोनों के बीच कई बार संवाद और भेंट-मिलाप भी हुआ, क्योंकि दोनों का उद्देश्य बहुजन समाज की ब्राह्मणवाद के शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति थी, सिर्फ इस कार्य को अंजाम देन के तरीके-तरीके भिन्न-भिन्न थे. डॉ. आंबेडकर के परिनिर्वाण पर बाबा गाडगे ने अपना मार्मिक भावोद्गार इन शब्दों में प्रकट किया- “बाबा साहेब आंबेडकर दलित समाज के सात करोड़ बालकों को छोड़कर चले गए. उनकी मृत्यु से ये सभी बच्चे अनाथ और निराधार हो गए. अभी-अभी ये बच्चे बाबा साहेब का हाथ पकड़कर चलने-फिरने लायक बने थे.”