ब्रिटिश काल में शुरू की जिंदगी
बहुजनों के नायक पेरियार ललई सिंह (Periyar Lalai Singh) का जन्म 1 सितम्बर 1921 को कानपुर (Kanpur) के झींझक रेलवे स्टेशन (Jhinjhak Railway Station) के पास एक छोटे से कठारा गांव में हुआ था. अन्य बहुजन नायकों की तरह उनका जीवन भी संघर्षों से भरा हुआ है. वह 1933 में ग्वालियर की सशस्त्र पुलिस बल (armed police force) में बतौर सिपाही भर्ती हुए थे पर कांग्रेस के स्वराज का समर्थन करने के कारण, वह दो साल बाद सेना से बर्खास्त कर दिया गया और इस वजह से उन्हें जेल जाना पड़ा वहीं बाद में उन्होंने अपील की और उन्हें रिहाई मिल गयी.
इसी के साथ 1946 में उन्होंने ग्वालियर में ही ‘नान-गजेटेड मुलाजिमान पुलिस एण्ड आर्मी संघ’ की स्थापना की और उसके सर्वसम्मति से अध्यक्ष बने.इस संघ के द्वारा उन्होंने पुलिसकर्मियों की समस्याएं उठाईं और उनके लिए उच्च अधिकारियों से लड़े. जब अमेरिका में भारतीयों ने लाला हरदयाल के नेतृत्व में ‘गदर पार्टी’ बनाई, तो भारतीय सेना के जवानों को स्वतंत्रता आन्दोलन से जोड़ने के लिए ‘सोल्जर ऑफ दि वार’ पुस्तक लिखी गई थी. ललई सिंह ने उसी की तर्ज पर 1946 में ‘सिपाही की तबाही’ किताब लिखी, जो छपी तो नहीं थी, पर टाइप करके उसे सिपाहियों में बांट दिया गया था.लेकिन जैसे ही सेना के इंस्पेक्टर जनरल को इनकी इस किताब के बारे में पता चला फ़ौरन उसने अपनी विशेष आज्ञा से उसे जब्त कर लिया. उस किताब अन्त में लिखा है- ‘वास्तव में पादरियों, मुल्ला-मौलवियों-पुरोहितों की अनदेखी कल्पना स्वर्ग तथा नर्क नाम की बात बिल्कुल झूठ है. यह है आंखों देखी हुई, सब पर बीती हुई सच्ची नरक की व्यवस्था सिपाही के घर की. इस नरक की व्यवस्था का कारण है- सिंधिया गवर्नमेंट की बदइन्तजामी. अतः इसे प्रत्येक दशा में पलटना है, समाप्त करना है. ‘जनता पर जनता का शासन हो’, तब अपनी सब मांगें मंजूर होंगी.’
कैसे और क्यों मचा बवाल
पेरियार की चर्चित किताब “सबवाल सच्ची रामायण” (Sabwal Sachi Ramayana) को हिंदी में लाने और उसे देशभर की तमाम पाबंदियों से बचाने के लिए लम्बी लड़ाई लड़ने वाले ललई सिंह बहुजन क्रांति के एक महान नायक थे। फरवरी महीने की 7 तारीख को उनकी पुण्यतिथि मनाई जाती है। द्रविड़ आंदोलन अग्रणी, और दलित समाज के क्रांतिकारी पेरियार ईवी रामासामी नायकर की बहुचर्चित किताब ‘सच्ची रामायण ‘ को हिंदी में लाने का श्रेय ललई सिंह को जाता है। सच्ची रामायण के हिंदी अनुवाद ने पूरे उत्तर भारत में तूफान खड़ा कर दिया था. बात 1968 की है जब ललई सिंह ने ‘द रामायना: ए ट्रू रीडिंग ‘ को हिंदी में लिख कर प्रकाशित किया था। हिन्दू धर्म के रक्षककिताब के विरोध में मैदान पर उतर आये और बढ़ते तनाव को देखते हुए तत्कालीन उत्तरप्रदेश सरकार ने 8 दिसंबर 1969 को धार्मिक भावनाएं आहत करने के मामले किताब को फौरन जब्त कर लिया और मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट में जा पहुंचा।
सुप्रीम कोर्ट ने खारिज की राज्य सरकार की दलील
राज्य सरकार के वकील कोर्ट में अपनी अर्जी हुए कहा कि इनकी पुस्तक महान हिन्दू समाज की पवित्र भावनाओं को आहत कर रही है और साथ ही ये भी कहा की इस किताब के लेखक ने बहुत ही खुली भाषा में महान अवतार श्रीराम और सीता एवं जनक जैसे दैवी चरित्रों पर कलंक लगाने कोशिश की गयी है, जिसकी हिंदू समाज पूजा करता है और इसलिए इस किताब पर प्रतिबंध लगाना जरूरी है.लेकिन हिंदी में लेखन करने वाले ललई यादव की वकील बनवारी लाल ने मामले की बहुत दमदार पैरवी की और कोर्ट को उनके पक्ष में फैसला सुनाने में मजबूर कर दिया। कोर्ट ने 19 जनवरी 1971 को जब्ती का आदेश निरस्त करते हुए सरकार को निर्देश दिया कि वह अभी तक जब्तशुदा पुस्तकें वापस करे और अपीलकर्ता ललई सिंह को तीन सौ रुपए मुकदमे का खर्चा भी दे।
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लाहाबाद कोर्ट से असंतुष्ट राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया सुनवाई तीन जजों की पीठ ने की, अध्यक्षता न्यायमूर्ति वीआर कृष्ण अय्यर ने की और इसके दो अन्य जज थे पीएन भगवती और सैयद मुर्तज़ा फ़ज़ल अली. सुप्रीम कोर्ट में ‘उत्तर प्रदेश बनाम ललई सिंह यादव’ नाम से इस मामले पर फ़ैसला 16 सितम्बर 1976 को आया और ये फैसला ललई सिंह यादव में रहा, सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद के फैसले को सही माना और राज्य सरकार की अपील को खारिज कर दिया।
हिन्दू धर्म त्याग बन गए बौद्ध अनुयायी
सुप्रीम कोर्ट और इलाहाबाद कोर्ट में मुकदमे जीतने के बाद अब पेरियार ललई सिंह अब दलितों के नायक बन गए, दलित और पिछड़े समाज के उत्पीड़न को खत्म करके उन्हें न्याय दिलाने के लिए ललई ने हिन्दू धर्म छोड़कर साल 1971 में बौद्ध धर्म अपना लिया और अपने नाम से यादव शब्द हटा दिया। यादव शब्द हटाने के पीछे उनकी बहुत ही गहरी जाति विरोधी चेतना काम कर रही थी. वे जाति विहीन समाज के लिए संघर्ष कर रहे थे।
पेरियार ललई सिंह यादव ने देश के इतिहास के कई बहुजन नायकों की खोज की और यही नहीं बौद्ध धर्मानुयायी बहुजन राजा अशोक उनके आदर्श व्यक्तित्वों में से एक थे. उन्होंने ‘अशोक पुस्तकालय’ नाम से प्रकाशन संस्था की स्थापना की और उसका नाम रखा ‘सस्ता प्रेस’.
उन्होंने पांच नाटक लिखे- (1) अंगुलीमाल नाटक, (2) शम्बूक वध, (3) सन्त माया बलिदान, (4) एकलव्य, और (5) नाग यज्ञ नाटक. गद्य में भी उन्होंने तीन किताबें लिखीं – (1) शोषितों पर धार्मिक डकैती, (2) शोषितों पर राजनीतिक डकैती, और (3) सामाजिक विषमता कैसे समाप्त हो?
उत्तर भारत के पेरियार कहलाते हैं ललई सिंह
ललई सिंह को पेरियार की उपाधि भी पेरियार की कर्मस्थली तमिलनाडु में ही मिली। उसके बाद वो इसी नाम से पूरे उत्तर भारत में प्रसिद्ध हुए यह उपाधि उन्हें उनके पेरियार की तरह दलित पिछड़े समाज की आवाज उठाने और न्याय दिलाने में किये संघर्ष की वजह से मिली। अन्य बहुजन नायकों की तरह ही इनका जीवन भी संघर्षो से भरा हुआ था।
1950 में सरकारी सेवा से फारिक होने के बाद उन्होंने अपना जीवन बहुजन समाज को न्याय दिलाने में समर्पित कर दिया. उन्हें इस बात का सच्चाई से आभास हो चुका था जबतक ब्राह्मणवाद को ख़त्म नहीं किया जायेगा तब तक बहुजन समाज को मुक्ति नहीं मिलेगी, सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और प्रकाशक के रूप में उन्होंने अपना पूरा जीवन ब्राह्मणवाद के खिलाफ जंग को समर्पित कर दिया. 7 फरवरी 1993 को उन्होंने अंतिम विदा ली.
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