“हम गुस्से में थे. पूरे महाराष्ट्र में दलितों के खिलाफ अत्याचार बढ़ रहे थे. हम युवा थे, पढ़े-लिखे थे और सड़कों पर उतरने के लिए तैयार थे. हमने अमेरिका में हुए ब्लैक पैंथर आंदोलन के बारे में पढ़ा था. यह युवा विद्रोही बुद्धिजीवियों का आंदोलन था.” भारत के पहले आक्रामक दलित युवा संगठन, दलित पैंथर के तीन संस्थापकों में से एक, जेवी पवार कहते हैं, “हम अपने आंदोलन को उनसे संबंधित मान सकते थे और इस तरह दलित पैंथर की शुरुआत हुई. अम्बेडकरवाद, मार्क्सवाद व ” नीग्रो साहित्य” से प्रभावित इन लोगों ने उस जाति व्यवस्था के बहिष्कार को लक्ष्य बनाया जो उनके अनुसार ब्राह्मणवादी हिन्दूवाद पर आधारित थी. सार्वजनिक स्थल, यानी, कार्यालय, घरों, चाय की दुकानों, सार्वजनिक पुस्तकालयों में चर्चाओं व वाद- विवादों के मार्फत जन-संपर्क व संचार नेटवर्क के माध्यम से, दलित लेखकों व कवियों ने हिन्दू जाति-व्यवस्था व शोषक आर्थिक व्यवस्था की समालोचना प्रस्तुत की.
‘आजादी का क्या मतलब है’- राजा ढाले
हजारों लोगों द्वारा याद किए जाने के लिए सभी वर्षों को सौभाग्य हासिल नहीं होता है. लेकिन 1972 एक अलग साल था. भारत को स्वतंत्रता मिले 25 वर्ष हो चुके थे और युवा और छात्र आंदोलन दुनिया भर में सड़कों पर उतर रहा था. मुंबई के युवा भी, खासकर दलित समुदाय के युवा, दुनिया भर में हो रहे संघर्षों और आंदोलनों के बारे में पढ़ रहे थे. भारत में हो रहे संघर्ष बहुत अलग नहीं थे. भारत अंग्रेजों की गुलामी से तो मुक्त हो गया था लेकिन अत्याचारों से मुक्त नहीं हुआ था, और अपनी आबादी के एक बड़े हिस्से के साथ दुर्व्यवहार जारी था.
दलितों और आदिवासियों को सवर्ण जातियों के सबसे बुरे हमलों का सामना करना पड़ रहा था. राजा ढाले भी संस्थापक तिकड़ी का हिस्सा थे. वे एक युवा लेखक, बुद्धिजीवी और मुखर होने के लिए जाने जाते थे. मराठी साप्ताहिक साधना में प्रकाशित भारतीय स्वतंत्रता की 25 वीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर उनके लेख ने राज्य में कई लोगों की अंतरात्मा को झकझोर दिया था. उन्होंने सवाल उठाया कि उनके लिए या उनके जैसे लाखों लोगों के लिए इस ‘आज़ादी’ का क्या मतलब है? “इस तिरंगे के साथ क्या करना है?” उन्होंने अपने लेख में आजादी के 25 साल बाद भी दलितों के जीवन में सुधार की कमी की ओर इशारा करते हुए सवाल उठाए. इस लेख ने काफी हंगामा किया और महाराष्ट्र में पूरी तरह से एक नई बहस शुरू हो गई थी.
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आंबेडकरवादी विचारधारा पर आधारित ‘पैंथर आन्दोलन’
1956 में डॉ अम्बेडकर द्वारा अपना धर्म बदलने और बौद्ध धर्म अपनाने के बाद, आने वाली पीढ़ी दलितों के बीच पहली साक्षर पीढ़ियों में से एक थी. नामदेव, राजा और पवार ने इस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व किया था “सरकारी नौकरियों में दलित और आदिवासी सीटों की कमी और विभिन्न पदों पर पढ़े-लिखे दलित युवाओं की अस्वीकृति स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही थी जेवी पवार अपनी एक किताब में कहते हैं कि दलित पैंथर का गठन शक्तिशाली व्यवस्था से टक्कर लेने का उनका तरीका था’.
ब्राह्मण क्षेत्र नहीं पूरे देश में चाहिए ‘शक्ति’
दलित पैंथर की स्थापना के बाद एक घोषणापत्र जारी किया गया था. घोषणापत्र में कहा गया कि “हमें ब्राह्मण क्षेत्र में जगह की जरूरत नहीं है. हम पूरे भारत में शक्ति चाहते हैं. हम केवल मनुष्यों को व्यक्तियों के रूप में नहीं देख रहे हैं. हम यहां व्यवस्था को बदलने के लिए काम कर रहे हैं. हम मानते हैं कि उत्पीड़कों के दिल बदलने से हमारे खिलाफ अत्याचार नहीं रुकेगा. हमें उनके खिलाफ उठना होगा.”
इस आंदोलन ने पूंजीवादी शक्तियों के खिलाफ भी एक स्पष्ट रुख अपनाया; इसने कहा कि न्याय और समानता पूंजीवादी शक्तियों को हराने के बाद ही आएगी. राष्ट्रीय राजनीति और सामाजिक परिदृश्य पर दलित पैंथर का प्रभाव बहुत अधिक था. बहुत कम लोग जानते हैं कि बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक काशीराम – जो उत्तर भारत में दलित राजनीति को नई ऊंचाइयों पर ले गए – दलित पैंथर से काफी प्रेरित थे. नामदेव ढसाल ने एक बार दैनिक सामना में अपने कॉलम में लिखा था कि, “काशीराम हमसे पुणे में मिलते थे. उस समय, वे साइकिल पर सवार होकर आते थे.
फासीवाद के खिलाफ था ‘पैंथर आन्दोलन’
“पैंथर भेदभाव, अन्याय, अत्याचार और फासीवाद के खिलाफ था. आज की स्थिति अलग नहीं है. भारत भर के विभिन्न दलित संगठनों में पैंथर्स की भावना देखी जा सकती है. नामदेव की कविताएं आज के युवाओं के लिए भी प्रेरणा हैं. सुबोध मोरे, राजनीतिक कार्यकर्ता और दलित पैंथर की स्वर्ण जयंती समिति के संयोजक ने कहा कि इसलिए पैंथर अभी भी अपने 50 के दशक में भी काफी प्रासंगिक है.” राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है कि दलित पैंथर ने सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक क्षेत्र में जगह बनाई है. “यह (दलित पैंथर) मुख्य रूप से एक राजनीतिक आंदोलन था.
लेकिन उनके नेता अपने सांस्कृतिक कर्तव्यों से अच्छी तरह वाकिफ थे. कविताओं और उपन्यासों के माध्यम से और बाद में नाटकों, नुक्कड़ नाटकों और अन्य कला के माध्यम से, दलित पैंथर ने तथाकथित मुख्यधारा की सांस्कृति और राजनीति को चुनौती दी और एक निर्विवाद समानांतर आंदोलन खड़ा किया. इस आंदोलन ने दलितों और कार्यकर्ताओं को आवाज़ उठाने की जगह दी. वरिष्ठ पत्रकार विजय चोरमारे ने कहा कि यह दलित पैंथर की सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि है.
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आन्दोलन की मुख्य मांग
1. आरक्षण के कानून और सामाजिक न्याय की नीतियों के अच्छी तरह से क्रियान्वयन की माँग.
2. जाति आधारित असमानता और भौतिक संसाधनो के मामले मे अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ लड़ना.
3. दलित महिलाओ के साथ हो रहे दुर्व्ययहार का विरोध.
4. भूमिहीन किसानो, मजदूरो और सारे वंचित वर्ग को उनके अधिकार दिलवाना.
5. दलितो मे शिक्षा का प्रसार करना.
6. दलितो के साथ हो रहे सामाजिक और आर्थिक उत्पीड़न को रोकना.
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आन्दोलन का परिणाम
1. दलित पैंथर के आंदोलन के परिणामस्वरूप सरकार ने 1989 मे एक व्यापक कानून बनाया.
2. इस कानून के अंतर्गत दलित पर अत्याचार करने वाले के लिए कठोर दंड का प्रावधान किया गया.
3. आपातकाल (1975) के बाद के दौर मे इस संगठन ने कई चुनावी समझौते किए.
4. इस संगठन मे कई विभाजन भी हुए और यह राजनीतिक पतन का शिकार हुआ.
5. संगठन के पतन के बाद इसकी जगह बामसेफ (Backward and Minority Classes Employees Federation- BAMCEF) का निर्माण हुआ.