अक्सर आपने सुना होगा कि मनुस्मृति में हमेशा महिलाओं
को लेकर कुछ ऐसे शब्द लिखे गए है, जो कहीं ना कहीं झकझोर कर रख देते
है और पिछड़ी हुई मानसिकता को दिखाते है। लेकिन क्या कभी आपने इस पर गौर किया है कि
मनुस्मृति में जो शूद्रों के बारे में लिखा गया है वो कितना भयावह है और कितना स्वीकार
करने योग्य है।
मनुस्मृति के कुछ पन्नों को जब हमने खंगाला तो मानवता
से कुछ विपरीत दिखा। कुछ पन्नें ये ज्ञान देते है कि अगर कोई ब्राहम्ण उपदेश दे रहा
हो,
और अगर कोई शूद्र उसे सुन लें, तो राजा उसके कान
और मुंह में गर्म तेल डलवा देते थे। उस समय में शूद्रों को सिर्फ ब्राहम्णों के मुताबिक
उनकी बातों को मानकर उस पर चलने का आदेश दिया गया था। इसके अलावा उन्हें अपने मन मुताबिक
धर्म-संगत यानि की पूजा-पाठ करने की भी इजाजत नही दी गई थी। अगर शूद्र गलती से अपनी
मनमर्जी का काम कर भी लें, तो उस काम पर हमेशा के लिए बैन लगा दिया जाता था और उसे
कड़ी से कड़ी और दिल दहला देने वाली सजा दी जाती थी। अन्य जाति के लोगों के लिए सजा
या तो मामूली होती थी, या उन्हें छोड़ दिया जाता था। लेकिन जब
शूद्रों की बारी आती थी तो सज़ा सिर्फ मौत की होती थी।
इसके अलावा जब मनुस्मृति के कुछ और पन्नों को खंगाला
गया तो एक लाइन दिखी…
“पूजयें विप्र सकल गुण हीना ।
शूद्र ना पूजिये ज्ञान प्रवीणा ।।”
जिसको अगर हिंदी में समझा जाए तो उसका साफ मतलब ये है
कि ब्राहम्ण चाहे कितना भी व्यभिचारी क्यों ना हो, पूजा जाना
चाहिए। क्योंकि ब्राह्मण दुनिया का देवता होता है। लेकिन नीची जाति का पढ़ा-लिखा शूद्र
पूजने योग्य नही माना जाता।
मनुस्मृति के कुछ और भी पन्नें ऐसा ही बहुत कुछ बताते
है। जो उस समय के ब्राहम्णों की मानसिकता को बयां करते है। महिलाओं और शूद्रों को पढ़ने-लिखने
की इजाजत नही दी जाती थी। इसका कारण ये हो सकता है कि शायद ब्राहम्ण जानते थे, कि ज्ञान इंसान के जीवन की सबसे बड़ी ताकत है, इसलिए
उन्होंने शूद्र और स्त्री को शिक्षा का अधिकार नहीं दिया। जाहिर सी बात है कि ऐसे ही
और भी ना जाने कितनी जगहों पर शूद्रों को अपमानित दिखाया गया है। लेकिन जहां ज्ञान
होता है, वहां शक्ति होती है, अन्याय के
खिलाफ आवाज उठाने का जज़्बा होता है और वो किसी की भी गुलामी नही करता। हालांकि अब
समय काफी बदल चुका है और लोगों के बीच इस तरह की मानसिकता भी काफी हद तक खत्म हो चुकी
है।