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महापुरुष नारायण गुरु, जिन्होंने समाज में जातिवाद के फैले जहर को कम करने में निभाई अहम भूमिका

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नरायणा गुरू जिन्होंने समाज में जातिवाद के फैले जहर को किया कम  

तिरुवनंतपुरम (Thiruvananthapuram) में एक मंदिर बनाया गया और इस मंदिर का नाम कलावन्कोड (Kalavankode) रखा गया.  इस मंदिर में मूर्तियों की जगह दर्पण रखे गये और सन्देश दिया गया परमात्मा प्रत्येक व्यक्ति के भीतर है.  ये बोल हैं महापुरुष नरायणा गुरू (Mahapurusha Narayana Guru) के जिन्होंने समाज में जातिवाद के फैले जहर को कम करने में अहम भूमिका निभाई.

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केरल में था जाति को लेकर बड़ा भेदभाव

आज से लगभग सौ वर्ष पहले की बात है जब केरल (kerla) राज्य के ट्रावनकोर (Travancore) और कोचीन (Coachin) में जाति को लेकर बड़ा भेदभाव देखने को मिलता था. यहाँ पर बहुजन समाज के लोगों को जहाँ मंदिर, विद्यालय और सार्वजनिक स्थलों में जाने की मनाही थी. तो वहीं पीने के पानी के लिए भी इस जाति के लोगों को कुंओं का इस्तेमाल नहीं करने किया जाता था. लोग इनकी परछाइयों से भी दूर भागते थे और बड़े तो बड़े बच्चों के साथ भी भेदभाव देखने को मिलता था. बहुजन समाज के बच्चों का जब नामकरण होता था तब उसमे भी एक अच्छा नाम रखने की उन्हें मनाही होती थी. इसी के साथ सामाजिक नियम का उल्लंघन करने पर मौत की सजा तय थी. भले ही उल्लंघन गलती से हो गया हो लेकिन सजा सिर्फ मौत ही थी. इन सारे अत्याचारों को खत्म करने के लिए एक शख्स का जन्म हुआ जिसने समाज के इस जाति के रुख को बदल दिया.

जानिए कौन थे नरायणा गुरू


आपने अक्सर सुना होगा कि कोई भी समाज चार वर्णों में बाँटा होता है ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवम शूद्र- लेकिन केरल में पूरे समाज का ये बंटवारा ब्राह्मण-गैर-ब्राह्मण के बीच था। जाति के नाम पर भेदभाव की इस स्थिति को बदलने का संघर्ष करने वाले महापुरुष का नाम था नरायणा गुरू (Narayan Guru). नरायणा गुरू का जन्म 1856 में केरल के तिरुवनंतपुरम के पास एक गाँव चेमपज़ंथी (Chempazhanthy) में हुआ. नरायणा गुरू एझावा (Ezhava) जाति के थे और उस समय की सामाजिक मान्यताओं के अनुसार इसे ‘अवर्ण’’ (Avarna) माना जाता था। अपने माता-पिता की चार संतानों में एकमात्र बालक होने के कारण उनका नाम ‘नानू’ रखा गया.

बचपन से करने पड़ा संघर्ष


बचपन से ही वो प्रतिदिन संस्कृत काव्य पाठ करते और मंदिर में पूजा और एकांत में ध्यान भी करते और फिर 14 वर्ष की आयु में वे ‘नानू भक्त’ के नाम से प्रसिद्ध हो गए। इसके बाद नानू को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए एक योग्य अध्यापक रमण पिल्लै असन के पास भेज दिया गया. रमण पिल्लै एक सवर्ण हिन्दू थे  और नानू जन्म से अछूत थे, इसकी वजह से उन्हें अपने गुरु के घर के बाहर रहकर अध्ययन करना पड़ा। संस्कृत में उच्च शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् 1881 में नानू अत्यधिक बीमार पड़ गये और उन्हें वापस घर लौटना पड़ा. वहीं ये भी कहा जाता है कि 1881 में उनके पिता गंभीर रूप से बीमार थे, तब वे अपने गाँव लौट आए.

ऐसे नानू आसन से बने नारायण गुरु 

घर लौटने के बाद उन्होंने वहाँ एक स्कूल शुरू किया जिसमें वह स्थानीय बच्चों को पढ़ाते थे, जिससे उनका नाम नानू आसन पड़ा। वहीं एक साल बाद, उनकी जबरदस्ती शादी करवा दी गयी किन्तु कुछ वर्षों के बाद उनकी पत्नी का निधन हो गया। जहाँ 14 वर्ष की आयु में उनकी माँ उनको छोड़ कर चली गयी थी तो वहीं पिता पत्नी का साथ छूट जाने के बाद उन्होंने घर त्यागकर संन्यासी का जीवन अपना लिया. फिर अपने प्रवास के दौरान वो एक गुफा में पहुंचे जहां उन्होंने एक आश्रम की स्थापना की. यही वो जगह थी जहाँ उन्होंने ध्यान और योग का अभ्यास किया। गांव-गांव घूमे, जो भोजन मिला, उसे खाया भ्रमण के दौरान वो कई व्यक्तियों से मिले पिछड़े वर्ग से गुले-मिले और यहीं से सभी लोग उनसे प्रभावित होना शुरू हुए और उनकी विचारधारा (Ideology) को फॉलो करना शुरू किया. उनके प्रति लोगों के दिलों श्रद्धा जगी और ननु आसन से वो नारायण गुरु कहा जाने लगा.

गुरुजी ने बनाया एक मंदिर


समाज की अनेकों कुर्तियों से जाति, के इस भेदभाव से तंग आकर गुरु नरायणा अरुविप्पुरम के घने जंगलों में एकांतवास में आकर रहने लगे. इसी दौरान समाज की इस स्थिति को बदलने के लिए गुरुजी को एक मंदिर बनाने का विचार आया और उन्होंने एक ऐसा मंदिर बनाया जिसमें किसी किस्म का कोई भेदभाव न हो और इस मंदिर ने इतिहास रच दिया. इसी मंदिर से एक जाति, एक धर्म, एक ईश्वर का प्रसिद्ध नारा दिया गया. इस मंदिर मे किसी को आने की मनाही नहीं थी, बिना किसी जातिगत भेदभाव के कोई भी पूजा कर सकता था.

स्थिति को बदलने और बेहतर समाज के लिए किया काम

इस पूरी स्थिति को बदलने के लिए और बेहतर समाज बनाने के लिए श्री नाराणय गुरु स्वामी ने खुद को समर्पित कर दिया। उन्होंने केरल के पूरे समाज के एक सूत्र में जोड़ने के लिए एक प्लेटफार्म बनाया और इसे स्वामी जी ने सर्वप्रथम 1914 अपनी रचना “जातिनिर्णयम्” में शामिल किया और बाद में 1920 में गुरु नारायण ने इसे अपने जन्मदिन के संदेश के रूप में घोषित किया। यहां जाति शब्द का अलग अर्थ है। यहां इसका मतलब हिंदू धर्म की जाति व्यवस्था नहीं, बल्कि संसार के सारे मनुष्यों को बिना किसी भेदभाव के एक प्रजाति के रूप में देखने की बात है। इस नारे का दूसरा हिस्सा भी है जो मनु संहिता पर आधारित वर्ण-जाति व्यवस्था की बुनियाद को ही चुनौती देता है। “ओरु योनि, ओरु आकारम् ओरु भेदावुम् इल्ला इतिल्” जिसक मतलब है सारे इंसान यानि से पैदा होते हैं, मनुष्य के आकार भी एक समान है, इसमें कोई भी भेद नहीं है। तो फिर जाति के आधार पर भेद क्यों?

1921 में विश्व भाईचारा सम्मेलन किया आयोजित 

श्री नारायण किसी भी ऐसे धर्म और ईश्वर को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे. वे अक्सर कहा करते थे कि भगवान और इंसान दोनों उनके गुरु हैं. इसी के साथ साल 1921 में विश्व भाईचारा सम्मेलन आयोजित किया। इसके लिए उन्होंने जो संदेश लिखा उसका तात्पर्य यह था कि मनुष्यों में संप्रदाय, पहनावा, भाषा आदि के अंतर के बाद भी वे सब एक ही सृष्टि के हैं। सबका सबके साथ खान-पान और वैवाहिक संबंध होन चाहिए। उनका कहना था कि मनुष्य की एक जाति है, और वह है- मानव जाति.  नारायण गुरु स्वामी ने जाति के भेदभाव को खत्म करने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया. बेह्शक वो पूरी मानव जाति में इस भेदभाव को खत्म न कर पाएं हो लेकिन उनके द्वारा शुरू किया ये काम आधुनिक केरल के पहले व्यक्तित्व का प्रमाण है. जिसके बाद बंधुता आधारित आधुनिक केरल की नींव डाली गयी और जिसे बहुत सारे अन्य व्यक्तित्वों, संगठनों एवं सामाजिक आंदोलनों ने आगे बढ़ाया.

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