जब सवर्णों ने पानी पर ताले लगाए, Dr. BR Ambedkar के तर्कों ने कोर्ट में जीता दिल?

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Dr. BR Ambedkar: 6 दिसंबर भारत के सामाजिक और न्यायिक इतिहास में एक अहम दिन के रूप में दर्ज है। इस दिन डॉ. भीमराव आंबेडकर ने न केवल समाज के दबे-कुचले वर्गों के अधिकारों की लड़ाई लड़ी, बल्कि अदालतों में अपने तर्कों और बहस से यह साबित किया कि न्याय केवल शब्दों में नहीं, बल्कि उसके सही अनुप्रयोग में है। डॉ. आंबेडकर की यह यात्रा सिर्फ संविधान और कानून की किताबों तक सीमित नहीं रही; उन्होंने न्यायपालिका की चौखट पर भी समाज के सबसे कमजोर वर्गों के लिए संघर्ष किया।

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कानून की गहराई से शुरू हुई न्याय यात्रा (Dr. BR Ambedkar)

डॉ. आंबेडकर केवल एक वकील नहीं थे, बल्कि कानून के गहरे अध्येता थे। उन्होंने बंबई से बी.ए., कोलंबिया विश्वविद्यालय से एम.ए. और पीएचडी, और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से डॉक्टरेट की। इसके साथ ही लंदन में बारएटलॉ की डिग्री प्राप्त कर उन्होंने कानून की मूलभूत समझ हासिल की। भारत लौटने के बाद उन्होंने मुख्य रूप से बॉम्बे हाईकोर्ट में प्रैक्टिस शुरू की, लेकिन उनके मुकदमों का दायरा सिर्फ़ आपराधिक या दीवानी मामलों तक सीमित नहीं रहा। वे सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों से जुड़े मामलों में सक्रिय रहे।

महाड़ सत्याग्रह और जलस्रोत पर अधिकार

डॉ. आंबेडकर का सबसे चर्चित कानूनी संघर्ष महाड़ सत्याग्रह से जुड़ा। महाड़ सत्याग्रह केवल पानी के अधिकार की लड़ाई नहीं थी, यह भारतीय समाज में समानता की नींव रखने वाला आंदोलन था। 1927 में जब महाड़ के चवदार तालाब से दलितों को पानी लेने से रोका गया, तो डॉ. आंबेडकर ने इसे सामाजिक क्रांति का मुद्दा बनाया। आंदोलन तेज हुआ, हिंसा हुई और मुकदमे दर्ज हुए। तब आंबेडकर अदालत में भी इस लड़ाई के मुख्य योद्धा बने।

सवर्ण पक्ष ने दावा किया कि तालाब निजी संपत्ति है। इसके जवाब में आंबेडकर ने कहा कि सार्वजनिक धन से बना जलस्रोत किसी जाति का निजी अधिकार नहीं हो सकता। उन्होंने अदालत में यह भी साबित किया कि IPC और किसी भी कानून में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, जो जन्म आधारित जाति के आधार पर किसी को पानी से वंचित करे। यह मुकदमा लंबे समय तक चला, लेकिन इसने पूरे देश को दिखाया कि जाति के खिलाफ संघर्ष केवल सड़कों पर नहीं, बल्कि अदालतों में भी मजबूती से लड़ा जा सकता है।

कालाराम मंदिर प्रवेश पर कानूनी बहस

नासिक के कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन में भी डॉ. आंबेडकर अग्रणी भूमिका में थे। जब मंदिरों में दलितों के प्रवेश को लेकर विवाद अदालत तक पहुंचा, तो उन्होंने तीखा सवाल उठाया क्या धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर किसी मनुष्य को अपमानित करने का अधिकार किसी संस्था को है?

उन्होंने अदालत में तर्क दिया कि यदि मंदिर सार्वजनिक चंदे और सरकारी संरक्षण से चलता है, तो यह सिर्फ एक जाति का निजी स्थल नहीं हो सकता। भले ही मुकदमों में देरी होती रही और तकनीकी दलीलों ने प्रगति को रोके रखा, लेकिन आंबेडकर ने न्यायपालिका के सामने धार्मिक परंपराओं और मानवाधिकारों के बीच टकराव की असलियत को उजागर कर दिया।

मताधिकार, प्रतिनिधित्व और पूना पैक्ट के पीछे की कानूनी सोच

डॉ. आंबेडकर राजनीतिक अधिकारों के बड़े पैरोकार थे। राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में उन्होंने दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों की मांग रखी। ब्रिटिश सरकार ने कम्युनल अवॉर्ड में इसे स्वीकार किया, लेकिन महात्मा गांधी ने इसका विरोध करते हुए अनशन शुरू कर दिया।

यह विवाद पूना पैक्ट तक पहुंचा। यह एक समझौता था, पर इसके पीछे गहरी कानूनी सोच थी क्या ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों को अलग प्रतिनिधित्व का अधिकार मिलना चाहिए? बहुसंख्यक वर्ग की नैतिकता पर अल्पसंख्यकों के अधिकार कितने निर्भर हैं? इन सवालों पर आंबेडकर ने एक विद्वान वकील की तरह तर्क दिए और भारतीय राजनीति के स्वरूप को बदल दिया।

मजदूरों और किसानों के लिए अदालतों में लड़ी गई छोटी लेकिन महत्वपूर्ण लड़ाइयाँ

बॉम्बे हाईकोर्ट में प्रैक्टिस के दौरान आंबेडकर ने कई ऐसे मुकदमे लड़े, जिनमें मजदूरों, छोटे किसानों और किरायेदारों के अधिकार शामिल थे। उद्योगों में मजदूरों के वेतन, काम के घंटों और अनुबंधों को लेकर कई विवाद अदालतों में पहुंचे, और आंबेडकर ने हमेशा एक बात कही अनुबंध तभी वैध है जब दोनों पक्ष बराबरी की स्थिति में हों।

उन्होंने न्यायालयों को यह सोचने पर मजबूर किया कि गरीब मज़दूर द्वारा किया गया अनुबंध अक्सर मजबूरी का समझौता होता है, न कि बराबरी की सहमति। यही सोच बाद में श्रम कानूनों के सुधार और आर्थिक न्याय के सिद्धांतों का आधार बनी।

अभिव्यक्ति की आज़ादी और प्रेस मामलों में उनका संघर्ष

डॉ. आंबेडकर ने मूकनायक, बहिष्कृत भारत और जनता जैसे अख़बारों के जरिए लगातार आवाज उठाई। कई बार उन पर मानहानि और आपत्तिजनक लेखन के आरोप लगे, लेकिन उन्होंने अदालतों में हमेशा कहा कि सामाजिक सुधार के लिए तीखी आलोचना जरूरी है। यही सोच आगे चलकर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 में दिखाई देती है जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, लेकिन तार्किक और स्पष्ट सीमाओं के भीतर।

अदालत से संविधान तक

अदालतों में रोज़-रोज़ होने वाले अन्याय को देखते हुए डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में कई ऐतिहासिक बातें कहीं। उन्होंने कहा कि कानून तभी काम करेगा, जब समाज में संवैधानिक नैतिकता होगी। उन्होंने समझाया कि औपचारिक समानता पर्याप्त नहीं है, वास्तविक समानता के लिए आरक्षण जैसे कदम जरूरी हैं। उन्होंने यह भी कहा कि न्यायपालिका का स्वतंत्र होना सबसे ज़रूरी है, वरना कानून केवल किताबों में रह जाएगा।

डॉ. आंबेडकर की कानूनी यात्रा सिर्फ मुकदमों की श्रृंखला नहीं थी, बल्कि वह भारत के सामाजिक परिवर्तन का गहरा दस्तावेज थी। अदालतों के भीतर लड़ी गई उनकी लड़ाई, सड़कों पर किए गए आंदोलन और संविधान सभा में रखे गए तर्क इन सबने मिलकर भारत को वह लोकतांत्रिक ढांचा दिया, जिस पर आज यह देश खड़ा है।

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