Sahitya Akademi Controversy: सम्मान की चादर के नीचे दबा अन्याय, साहित्य अकादमी में यौन उत्पीड़न पर उठते सवाल

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Sahitya Akademi Controversy: भारत की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था, साहित्य अकादमी, इन दिनों गंभीर सवालों के घेरे में है। वजह है संस्था के मौजूदा सचिव पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोप, जिसे दिल्ली हाईकोर्ट ने गंभीर और सत्यापित माना है। ये मामला सिर्फ किसी एक अधिकारी की नैतिक विफलता का नहीं है, बल्कि पूरे साहित्यिक समाज की साख और संवेदनशीलता पर एक गहरी चोट है।

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दरअसल, एक महिला कर्मचारी ने अकादमी के सचिव पर लगातार यौन उत्पीड़न, अश्लील इशारों, अनचाहे स्पर्श और मानसिक दबाव का आरोप लगाया था। ये कोई एक-दो बार की घटना नहीं थी, बल्कि एक लंबा सिलसिला था, जिसके बारे में कई लोगों को जानकारी थी, फिर भी चुप्पी साधी गई।

महिला ने नवंबर 2019 में अकादमी के कार्यकारी बोर्ड को अपनी शिकायत भेजी, जिसे आंतरिक शिकायत समिति (ICC) को सौंपा गया। इसके साथ ही, उसने POSH अधिनियम 2013 के तहत स्थानीय शिकायत समिति (LCC) में भी औपचारिक शिकायत दर्ज कराई। LCC ने शुरुआती तौर पर शिकायत को सही मानते हुए उसे तीन महीने की पेड लीव भी दी।

लेकिन हैरानी की बात ये रही कि जनवरी 2020 में ICC ने बिना महिला की बात सुने जांच बंद कर दी और अगले ही महीने अकादमी ने उसकी प्रोबेशन खत्म कर उसे नौकरी से निकाल दिया। अदालत ने इसे सीधा प्रतिशोध बताया और साफ कहा कि यह POSH कानून का उल्लंघन है।

दिल्ली हाईकोर्ट का सख्त रुख- Sahitya Akademi Controversy

इस मामले में जस्टिस संजीव नरुला की बेंच ने बेहद कड़ा फैसला सुनाया। उन्होंने साफ कहा कि सचिव ‘नियोक्ता’ की श्रेणी में आते हैं और इसलिए ICC द्वारा जांच रोकना और महिला की बर्खास्तगी एक प्रशासनिक अन्याय और पद के दुरुपयोग का मामला है। अदालत ने महिला को तत्काल बहाल करने, सेवा में निरंतरता बनाए रखने, पूरा वेतन और अन्य लाभ देने का आदेश दिया।

इसके साथ ही कोर्ट ने साहित्य अकादमी को जमकर फटकार लगाई कि उन्होंने संस्थान में सुरक्षित और पारदर्शी कार्य वातावरण देने में पूरी तरह असफलता दिखाई है।

लेखक समाज की चुप्पी और दोहरा मापदंड

सबसे बड़ा सवाल अब साहित्यिक समुदाय से पूछा जा रहा है क्या लेखक केवल सत्ता और समाज की आलोचना के लिए होते हैं, या अपने ही घर के अन्याय के खिलाफ भी खड़े होंगे? जब सचिव पर गंभीर आरोपों की पुष्टि कोर्ट कर चुका है, फिर भी वे अपने पद पर बने हुए हैं, तो ये किसी व्यक्तिगत समस्या से कहीं ज्यादा, साहित्यिक नैतिकता का संकट है।

जो लेखक अन्याय, विषमता और दमन के खिलाफ कलम उठाते हैं, क्या वे इस मुद्दे पर भी वैसा ही साहस दिखाएंगे?

प्रकाशकों और आयोजकों की भूमिका

और भी दुखद बात ये है कि कुछ प्रकाशक और साहित्यिक मंच अब भी आरोपी को मंच और मान दे रहे हैं। यह न सिर्फ पीड़िता के लिए, बल्कि हर उस महिला के लिए अपमानजनक है जो कभी उत्पीड़न का शिकार रही हो।

ये केवल बिक्री या लोकप्रियता का मामला नहीं है, बल्कि उत्पीड़न को सामाजिक वैधता देने जैसा खतरनाक चलन है।

अब जरूरी है एकजुटता और नैतिक बहिष्कार

इस पूरे प्रकरण में लेखक समाज की भूमिका बेहद अहम हो जाती है। जब तक आरोपी अपने पद से नहीं हटाए जाते, तब तक साहित्यिक आयोजन, पुरस्कार या अकादमी से जुड़ी किसी भी गतिविधि में भागीदारी नैतिक गिरावट का प्रतीक होगी।

लेखकों, कवियों, आलोचकों और पाठकों को एकजुट होकर नैतिक बहिष्कार की मुहिम चलानी होगी। केवल स्याही से नहीं, आचरण से भी साहित्य की ताक़त दिखानी होगी।

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