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जानिए कैसे सिख धर्म में हुई कृपाण धारण करने की शुरुआत और कौन कर सकता इसे धारण

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सिखों के पवित्र पांच ककारों में से एक है कृपाण 

कृपाण , जिसे लोग सिखों का हथियार कहते हैं तो कई लोगों को लगता है कि सिख इस कृपाण (kirpan) का इस्तेमाल तब करते हैं जब उन्हें किसी प्रकार का खतरा हो साथ में ये भी कहा जाता है कि सिख (Sikh) कृपाण इसलिए भी रखते हैं ताकि लोगों में उनका दबदबा बना रहे लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. जैसे हिन्दू धर्म में जनेहु, ईसाई धर्म में क्रॉस (cross), मुस्लिम में हिजाब पवित्र माने जाते हैं उसी प्रकार सिख धर्म में कृपाण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कृपाण कोई हथियार नहीं और न ही सिख लोग इसका इस्तेमाल दिखावे या दबदबा बनाने के लिए करते हैं बल्कि ये सिखों का धार्मिक प्रतीक है और ये सिखों के पवित्र पांच ककारों में से एक है. वहीं आज इस पोस्ट के जरिए हम आपको ये बताने जा रहे हैं कि सिखों के धार्मिक प्रतीक कृपाण को धारण करने की शुरुआत कहाँ से हुई और कौन इसे धारण कर सकता है.

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ऐसे शुरू हुई कृपाण की शुरुआत 

सिख धर्म में कृपाण या तलवार रखने की शुरुआत छठे सिख गुर, हरगोबिन्द सिंह जी  (sixth Sikh Guru Hargobind Singh Ji) ने 1699 में शुरु की थी और ये शुरुआत तब की गयी जब सिख धर्म की स्थापना 15वीं शताब्दी में मध्यकालीन भारत के पंजाब (Punjab) क्षेत्र में हुई थी इसकी स्थापना के समय,  पंजाब सांस्कृतिक रूप से समृद्ध, मुगल साम्राज्य द्वारा शासित था और सिख धर्म के संस्थापक और इसके पहले गुरु, गुरु नानक जी (Guru, Guru Nanak ji) के समय में, सिख धर्म प्रचलित हिंदू (Hindu) और मुस्लिम (Muslim) दोनों शिक्षाओं के प्रतिवाद के रूप में आगे बढ़ा. परंतु सिखों और अकबर के उत्तराधिकारी जहांगीर के बीच संबंध मैत्रीपूर्ण नहीं थे। जिसकी वजह से पांचवें गुरु, गुरु अर्जुन देव जी (Guru arjun dev ji) आदि ने ग्रंथ में मुस्लिम और हिंदू शिक्षाओं के संदर्भ को हटाने से इनकार कर दिया तब  उन्हें मुगलों द्वारा बुलाया गया और उन्हें मार डाला.

इस घटना को सिख इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में देखा जाता है। गुरु अर्जुन देव जी  के  के पुत्र गुरु हरगोबिंद जी ने सिखों के सैन्यीकरण को देखा और गुरु हरगोबिंद जी ने लोगों की रक्षा के लिए एक रक्षात्मक सेना का निर्माण किया, उन्होंने पहले संत सिपाही, या “संत सैनिकों” की धारणा के माध्यम से कृपाण के विचार की अवधारणा की जिसका मतलब एक सिख के अन्दर संत और सिपाही दोनों के गुण होने बहुत जरुरी है संत से मतलब है ‘कृपा’ करना और सिपाही से मतलब है आन, भान और शान की रक्षा करना  जिसके बाद 1699 में सिख धर्म में कृपाण रखने की शुरुआत हुई.

सिर्फ ये सिख रख सकते हैं किरपाण

इस कृपाण को सिर्फ वहीं सिख रखते हैं जिन्होंने अमृत चका (शका) हो है. अमृतधारी सिखों को इसे कमर की बाईं ओर पहनना होता है और इसे शरीर से दूर नहीं करने की मनाही है. जैसे हिन्दू धर्म के लोग हर समय जानहु पहनते हैं उसी तरह एक सिख को 24 घंटे कृपाण को पहन कर रखना होता है. वहीं सोते वक्त भी एक अमृतधारी सिख अपनी कृपाण अपने पास ही रखता है। जिस समय अमृतधारी सिख स्नान करने के लिए जाता है, उस समय कृपाण वो अपने सिर की पगड़ी पर बांध लेता है.

कृपाण को सिर्फ अपनी रक्षा के लिए नही बल्कि दूसरों की रक्षा के लिए निकाली जानी चाहिए। कृपाण को कभी किसी गलत कारणों से उपयोग नहीं करना होता है. रक्षा के अलावा कृपाण को सिर्फ प्रसाद में भोग लगाने के लिए ही निकाला जाता है और कृपाण से ही प्रसाद को स्पर्श कराकर, गुरु ग्रंथ साहिब जी को प्रसाद चढ़ाया जाता है.

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