गुरु गोबिंद सिंह जी के साहिबजादों की बहादुरी और कुर्बानी की पूरी कहानी, जो आपको गर्व से भर देगी!

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दिसंबर की 21 से 27 तारीख, ये वो सप्ताह होता है जिस पर पूरा सिख समुदाय और पूरा देश गर्व से भर जाता है और पूरे सप्ताह को बलिदानी सप्ताह के तौर पर मनाने की परंपरा चली आ रही है। ये सप्ताह उन 4 साहिबजादों को समर्पित किया गया है जिन्होंने सिख धर्म की रक्षा के लिए खुद की जान तक कुर्बान कर दिया पर बर्बर मुगलों के सामने वे झुके नहीं और न तो उन्होंने अपना धर्म बदला। ये सप्ताह सिखों के दसवें गुरु गोबिंद सिंह के साहिबज़ादे बाबा अजीत सिंह जी, बाबा  जुझार सिंह जी, बाबा ज़ोरावर सिंह जी और बाबा फतेह सिंह की याद में बिताया जाता है। ये पूरा सप्ताह उनको समर्पित किया जाता रहा है। 

चार साहिबाजादों से जुड़ी कहानी को जितनी बार आप पढ़ेगें, सुनेंगे जानेंगे उतनी बार आप उनसे इंस्पायर होंगे। सिखों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द सिंह जी की तीन पत्नियां थीं। आनंदपुर से 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में माता जीतो जी से  21 जून, 1677 को  गुरु गोबिंद सिंह का 10 साल की उम्र में विवाह हुआ। दोनों के 3 पुत्र हुए बाबा जुझार सिंह, बाबा जोरावर सिंह, बाबा फतेह सिंह। 17 वर्ष की आयु में गुरु जी का दूसरा विवाह कराया गया माता सुंदरी जी के साथ ये विवाह आनंदपुर में 4 अप्रैल, 1684 को  हुआ। जिनसे उनका एक बेटा बाबा अजित सिंह हुए । 33 वर्ष की आयु में 15 अप्रैल, 1700 को गुरु जी ने माता साहिब देवन से विवाह किया था। इस तरह से गुरु के चार साहिबजादे हुए। 

शौर्य से भरी गाथा तब से शुरु होती है जब  खालसा पंथ की स्थापना किए जाने के बाद मुगल शासकों, सरहिंद के सूबेदार वजीर खां ने आक्रमण किया जिसके बाद साल 1704 में 20-21 दिसंबर को गुरु गोबिंद सिंह जी ने मुगल सेना से युद्ध करने के लिए परिवार समेत श्री आनंदपुर साहिब का किला छोड़ दिया था।  इसके बाद सरसा नदी पर गुरु जी का पूरा परिवार बिछड़ गया। दो बड़े साहिबजादे तो गुरु पिता के साथ निकल गए और दो छोटे साहिबजादे बाबा जोरावर सिंह और बाबा फतेह सिंह, माता गुजरी जी के साथ चल पड़े। दो छोटे साहिबजादे बाबा जोरावर सिंह और बाबा फतेह सिंह, माता गुजरी जी अकेले ही अपने रास्ते पर निकले थे। न तो उनके साथ कोई संबंधी था और न तो उनकी रक्षा के लिए साथ में कोई सैनिक था। परिवार के फिर से मिलने को उम्मीद दूर दूर तक नहीं थी और ऐसे हालात में भी पूरा परिवार आत्मविश्वास से भरा हुआ था। 

इस शौर्य की कहानी में एक गद्दार नौकर का भी जिक्र होता है जिसका नाम गंगू था। वो एकाएक ही रास्ते में मिल माता गुजरी जी को मिल गया। जो कि एक वक्त पर गुरु महल की वो सेवा किया करता था। उसने माता गुजरी जी को विश्वास दिलाया कि वो उनके बिछड़े परिवार से मिलवाएगा और इसी विश्वास के साथ तीनों को वो अपने घर ले आया। गंगू के लालच ने सबकुछ तहस नहस करके रख दिया। कहते हैं कि गंगू ने धोखेबाजी करते हुए तुरंत वजीर खां को इस बारे में जानकारी पहुंचा दी की माता और दो छोटे साहिबजादे उसी के घर पर रुके। इस खबर के बदले वजीर खां ने उसे सोने की मोहरें भेंट की। फिर बिना देरी वजीर खां के सैनिक माता और दोनों साहिबजादों को गिरफ्तार कर ले गए। तब 7 साल के बाबा जोरावर सिंह जी थे और 5 साल की आयु के बाबा फतेह सिंह जी। खैर तीनों को ठंडे बुर्ज में गिरफ्तार करके रखा गया। बेरहमी इस कदर की ठंडे बुर्ज में तीनों को रखा तो गया पर ठंड से बचने के लिए उनके कंबल या किसी कपड़े का टुकड़ा तक नहीं दिया गया। जरा सोचिए की उस ठंड में उन नन्ही जान पर क्या कहर बरपा होगा। रात भर ठंड में ठिठुरन और सुबह होते ही दोनों साहिबजादों को वजीर खां के सामने पेश कर दिया गया जहां पर उनको इस्लाम कबूलने को कहा गया। कहा जाता है कि सभा में पहुंचते ही बिना किसी हिचक दोनों साहिबजादों ने डटकर और जोर ज़ोर से  “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल” का जयकारा लगाया। 

ये देख सभा में बैठा हर कोई दंग रह गया क्योंकि तबका ऐसा माहौल था कि वजीर खां की मौजूदगी में कोई ऐसी हिमाकत करने की सोच ही नहीं सकता था जैसी हिम्मत दोनों साहिबजादों ने दिखाई थी। नन्हीं जानें बिल्कुल नहीं डरीं। सभा में मौजूद एक मुलाजिम ने दोनों साहिबजादों को कहा कि वे वजीर खां के सामने सर झुकाएं और सलाम करें इस पर जो जवाब उन नन्हें बालकों ने दिया वो किसी की हिम्मत को सौ गुना कर सकता है। दोनों ने सर ऊंचा किया और जवाब में कहा कि ‘हम अकाल पुरख और अपने गुरु पिता के अलावा किसी और के आगे नहीं झुकाते हैं। ऐसा कर हम अपने कुर्बानी को जाया नहीं होने दे सकते हैं। हमने किसी के सामने सर को झुकाया तो अपने दादा को क्या जवाब देंगे। धर्म के लिए जिन्होंने अपना सिर तक कलम करवा दिया पर नहीं झुके। भरी सभा में वजीर खां ने दोनों साहिबजादों को धमकी दी, तरह तरह से डराया और यहां तक की प्यार से भी बहलाने की कोशिश की ताकि दोनों इस्लाम कबूल कर लें पर वो कामयाब न हो सका। अपने धर्म से दोनों साहिबजादें एक पग भी नहीं डिगे। 

तीन दिन तक ऐसा ही चलता रहा पर जब वजीर खां के पक्ष में बात बन नहीं पाई तो उसने क्रूरता का रास्ता अख्तियार किया और फिर जो हुआ वो दिल को दहला देने वाला था। सुचानंद दीवान की तरफ से नवाब को उकसाया और कहा कि यह सांप के बच्चे हैं इनका कत्ल करना ठीक होगा और फिर बुलाया गया काजी जिसने दो नन्हीं सी जान को दीवार में चुनवा देने का फतवा जारी किया। हालांकि वहीं मौजूद मलेरकोटला के नवाब शेर मुहम्मद खां ने इस फतवे का पुरजोर विरोध किया पर किसी को उस विरोध से फर्क नहीं पड़ा। 

आखिरकार में हुआ ये कि दोनों साहिबजादों को जिंदा ही दीवारों में चुनवाया गया। कहते हैं कि एक तरफ दीवार खड़ी की जा रही थी तो दूसरी तरफ दोनों साहिबजादे ‘जपुजी साहिब’ का पाठ करने लगे थे और आखिर में जब दीवार पूरी तरफ से चुन दिया गया तो भीतर से जयकारा लगाने की आवाज़ें साफ साफ सुना जा रहा था। कहते हैं थोड़ी देर बाद तसल्ली के लिए वजीर खां ने दीवार को तुड़वाया ताकि देख सके की साहिबजादें बचे तो नहीं। कहते हैं की दोनों की सासें चल रही थी लेकिन दोनों की जान जबरन ले ली गयी। उधर साहिबदाजों की शहीदी के बारे में सुनते हीं पहले तो माता गुजरी जी ने गर्व किया फिर इस शहीदी के लिए अकाल पुरख को शुक्रिया कहा और अपने प्राण भी माता ने त्याग दिए।

दोनों छोटे साहिबजादों और माता गुजरी जी के साथ जो हुआ उसकी खबर गुरु गोबिंद सिंह जी को भी हुई और इसी के बाद गुरुजी ने औरंगजेब को एक जफरनामा लिखा यानी कि विजय की चिट्ठी जिसमें गुरु जी ने लिखा कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो चुका है। 

बाबा अजीत सिंह जी गुरु गोबिन्द सिंह जी के सबसे बड़े बेटे थे जिन्होंने चमकौर के युद्ध में अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन किया था। गुरु जी के नियुक्त किए गए पांच प्यारों ने बाबा अजीत सिंह को बहुत समझाया कि वे युद्ध में न जाएं, वे सिख धर्म को आगे बढ़ाने वाले अगले शख्स हो सकते हैं पर बाबा अजीत सिंह जी नहीं माने। आखिर में गुरु जी ने अपने बड़े साहिबजादे बाबा अजीत सिंह को खुद ही युद्ध लड़ने के लिए तैयार किया और उनके हाथों से शस्त्र दिए थमाया। फिर बाबा अजीत सिंह जी पांच सिखों के साथ किले से निकल गए। रणभूमि में जाते ही बाबा अजीत सिंह ने मुगल सेना को कांपने पर मजबूर कर दिया और आखिर में शौर्य के साथ लड़ते लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए। वे शहीद जरूर हो गए पर उससे पहले तक जब तक उनके भीतर जान रहती थी तब तक वो मुगल सेना पर कहर बरपाते रहे।  दुश्मनों को यह अंदाज़ा हुआ कि बाबा अजीत सिंह के तीर खत्म होने लगे हैं पर ये क्या तभी बाबा अजीत सिंह ने तलवार निकाल कर लड़ना शुरू कर दिया। उनकी वीरता से पूरी सिख फौज में जान आ गयी और युद्ध सिखों के पक्ष में आने लगा पर हुआ कुछ ऐसा लड़ते-लड़ते बाबा अजीत सिंह की तलवार भी टूट गयी। 17 साल की आयु में शहीदी को पाने वाले बाबा अजीत सिंह जी ने हमेशा से सबको इंस्पायर किया और आज भी उनकी गाथा आज जाने कितनों को इंस्पायर किया। पंजाब के मोहाली शहर का नाम रखा गया है साहिबज़ादा अजीत सिंह नगर ये उन्हीं वीर बाबा अजीत सिंह के नाम पर रखा गया है। बाबा अजीत सिंह से छोटे जुझार सिंह जी थे जिन्होंने बड़े भाई के शहीद हो जाने के बाद सेना का नेतृत्व अपने हाथ में लिया और पूरे युद्ध में अतुलनीय वीरता को दिखाया और आखिर में वे शहीद हो गए। ये 4 साहिबजादों की बस कहानी नहीं ये गाथा है वीरता और धर्म के प्रति समर्पण का जो हमेशा हमेशा के लिए लोगों को इंस्पायर करते रहेंगे।

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