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Sikhism in Afghanistan-Iran: सिख… जो ईरान में बसे, अफगानिस्तान में लड़े और दुनिया में बिखर गए, जानें गुरुद्वारों की बुझती लौ की कहानी

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Sikhism in Afghanistan-Iran: अगर आप कभी ईरान या अफगानिस्तान में सिख समुदाय के बारे में सोचें, तो यह समझना थोड़ा मुश्किल हो सकता है कि वहां सिखों का इतिहास और वर्तमान स्थिति कैसी रही होगी। खासकर जब हम उस ऐतिहासिक समय को याद करते हैं जब सिख समुदाय दोनों देशों में अच्छी तरह से स्थापित था। लेकिन आजकल, इन देशों में सिखों की स्थिति एक संघर्ष बन चुकी है। यह कहानी सिर्फ उनके धार्मिक जीवन की नहीं, बल्कि एक जिंदादिल और संघर्षशील समुदाय की कहानी है, जो अपने अस्तित्व को बनाए रखने की जद्दोजहद में है।

और पढ़ें: Sikhism in Alaska: जहां बर्फ गिरती है, वहां गुरबानी गूंजती है: अलास्का में सिख जीवन की झलक

तेहरान से मोहाली तक – गुरलीन कौर की भावनात्मक दास्तान (Sikhism in Afghanistan-Iran)

“मैं आज भी तेहरान लौटना चाहती हूं। वहां की ज़िंदगी, खाना, पानी, फल सब कुछ बहुत खूबसूरत है।” – ये शब्द हैं गुरलीन कौर के, जो अब मोहाली में रहती हैं, लेकिन उनका दिल आज भी ईरान की गलियों में ही अटका हुआ है।

गुरलीन का जन्म ईरान के ज़ाहेदान में हुआ था। उनका परिवार कई दशकों से वहां रह रहा था, लेकिन 2 जुलाई 2008 की एक दुखद घटना ने सब कुछ बदल दिया। उनके पिता और चाचा पर तेहरान में हमला हुआ, जिसमें चाचा की जान चली गई। इसके बाद उनका भारत आना तय हुआ।

आज वह भारत सरकार के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग में सलाहकार हैं और ‘घैंट पंजाब’ नाम का यूट्यूब चैनल भी चलाती हैं, लेकिन उनका दिल अब भी तेहरान की गलियों और ज़िंदगी की सादगी में ही बसता है।

ईरान में सिखों की मौजूदगी: सौ साल पुराना रिश्ता

ईरान में सिखों की उपस्थिति कोई नई बात नहीं है। ये कहानी शुरू होती है 20वीं सदी की शुरुआत से, जब रावलपिंडी से सिख समुदाय रोजगार की तलाश में पर्शिया (अब ईरान) पहुंचा। कुछ लोग ब्रिटिश भारतीय सेना से जुड़े हुए थे, तो कुछ सीधे ट्रांसपोर्ट के धंधे में उतर गए।

ज़ाहेदान में गुरलीन कौर के दादा, सरदार मेहताब सिंह, ट्रक चलाते थे। उस दौर में ज़मीन सस्ती थी और माहौल पंजाब जैसा ही, तो धीरे-धीरे यह इलाका सिख समुदाय का ठिकाना बन गया।

प्रो. हरपाल सिंह पन्नू, जो पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला से जुड़े हैं और ईरान की एक यूनिवर्सिटी में विज़िटिंग प्रोफेसर रह चुके हैं, बताते हैं कि “ज़मीन की खोज में पंजाबी किसान ईरान चले गए और वहां उन्होंने खेती शुरू की।”

गांव का नाम ही बदल गया: दुष्टेयाब से ज़ाहेदान

एक बहुत दिलचस्प किस्सा है जब ईरान के तत्कालीन शासक रज़ा शाह पहलवी, दुष्टेयाब गांव से गुज़रे। उन्होंने लंबी दाढ़ी वाले सिख किसानों को देखा और उन्हें फ़कीर समझकर सलाम किया। जब उन्हें बताया गया कि ये भारत से आए मेहनती किसान हैं, तो उन्होंने न सिर्फ उन्हें इज्जत दी बल्कि जब उन्होंने पूजा के लिए एक एकड़ ज़मीन मांगी तो उन्हें मुफ्त देने की पेशकश भी की।

लेकिन किसानों ने कहा, “हम दान नहीं लेते, हम मेहनत से इबादतगाह बनाएंगे।” ये सुनकर बादशाह ने न केवल उन्हें ज़मीन बेचने की अनुमति दी बल्कि गांव का नाम भी बदल दिया – दुष्टेयाब, जिसका मतलब होता है ‘पानी की चोरी’ – से ज़ाहेदान, जिसका मतलब है ‘ईश्वर की पूजा करने वाले’।

तेहरान और ज़ाहेदान के गुरुद्वारे: दो मजबूत स्तंभ

ईरान में आज दो मुख्य गुरुद्वारे हैं – एक ज़ाहेदान में और दूसरा तेहरान में। तेहरान वाला गुरुद्वारा ‘भाई गंगा सिंह सभा’ वहां की पहचान बन चुका है। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मनमोहन सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी भी यहां माथा टेक चुके हैं।

इस गुरुद्वारे की खूबसूरती सिर्फ इसकी दीवारों में नहीं, बल्कि उन लोगों की श्रद्धा में है जो हर रोज वहां जाते हैं, अरदास करते हैं, लंगर चलाते हैं और उस विरासत को संभालते हैं जो एक सदी पहले वहां बोई गई थी।

सिखों की ज़िंदगी ईरान में: मेलजोल और अपनापन

वरिष्ठ पत्रकार सैयद नक़वी ने ईरान के सिखों पर एक डॉक्युमेंट्री बनाई थी। वे कहते हैं, “ईरान में सिख और मुसलमान एक-दूसरे के घर में आते-जाते हैं, सभी फ़ारसी बोलते हैं और एक-दूसरे की संस्कृति को अपनाते हैं।” सिखों की सबसे बड़ी ताकत ये है कि वे जहां भी जाते हैं, वहां की ज़बान और संस्कृति को अपना लेते हैं लेकिन अपनी पहचान को नहीं खोते।

प्रो. पन्नू कहते हैं, “ईरान में सिखों की मातृभाषा अब फ़ारसी हो गई है, लेकिन दिल आज भी पंजाबी में धड़कता है।”

ईरान में इस्लामिक क्रांति का असर

1979 की इस्लामिक क्रांति ने ईरान की तस्वीर बदल दी। शाह की सत्ता खत्म हुई और इस्लामी शासन आ गया। इस बदलाव ने वहां के अल्पसंख्यकों पर भी असर डाला। हालांकि, सिखों पर सीधा उत्पीड़न नहीं हुआ, लेकिन कुछ परिवार भारत या अन्य देशों में बसने लगे।

गुरलीन कौर कहती हैं, “शाह का समय देखा है, उस वक्त माहौल खुला था। अब भी सुधार हो रहे हैं, लेकिन बदलाव साफ है।”

अफगानिस्तान में सिख समुदाय: एक संघर्ष की कहानी

अब हम बात करते हैं अफगानिस्तान की। अफगानिस्तान में सिख समुदाय का इतिहास भी बहुत पुराना है। गुरु नानक देव ने 15वीं सदी में अफगानिस्तान की यात्रा की थी, और उसके बाद सिख परिवार वहां बस गए थे। 1970 के दशक में अफगानिस्तान में सिखों की आबादी लगभग पांच लाख थी, लेकिन आजकल यह संख्या काफी घट गई है। अफगान सिखों की दुश्वारियां तब शुरू हुईं जब तालिबान का शासन आ गया। तालिबान के शासन ने सिखों के लिए वहां का जीवन असहनीय बना दिया।

2022 में काबुल के गुरुद्वारे पर इस्लामिक स्टेट के आतंकियों ने हमला किया। इस हमले में सात लोगों की मौत हो गई थी, जिनमें से एक तालिबान का सुरक्षाकर्मी भी था। मनमोहन सिंह सेठी, जो इस हमले में घायल हुए थे, कहते हैं, “गुरुद्वारा सिर्फ पूजा स्थल नहीं, बल्कि हमारे समुदाय का घर है।” जब हमले के बाद हमलावर गुरुद्वारे के अंदर घुसे, तो वहां मौजूद लोग जान बचाने के लिए इधर-उधर भागे। इस हमले के बाद, अफगानिस्तान में सिखों के लिए स्थितियां और भी कठिन हो गईं।

भारत की भूमिका और पलायन

अफगानिस्तान के हालात को देखते हुए, कई सिख परिवारों ने देश छोड़ने का निर्णय लिया। भारत सरकार ने उनकी मदद के लिए कई कदम उठाए। भारत ने उन्हें वीजा जारी किया और उनकी शरण का प्रबंध किया। भारत आने के बाद, कई सिख परिवारों का जीवन यहां सुरक्षित तो हुआ, लेकिन अब भी वे बेहतर भविष्य की तलाश में हैं। कनाडा और अन्य देशों में इन परिवारों को नए जीवन की शुरुआत करने का मौका मिला है। कनाडा में अफगान सिख परिवारों को विशेष सहायता दी जा रही है, जैसे कि उन्हें मासिक स्टाइपेंड, घर, राशन, और बच्चों की मुफ्त शिक्षा।

हालांकि, इस पलायन के बाद भी अफगान सिखों के लिए पूरी तरह से सुरक्षित जीवन का सवाल बाकी है। कई सिख अभी भी भारत में बसने के बाद कनाडा जाने के लिए इंतजार कर रहे हैं, जहां उन्हें स्थायी और सुरक्षित जीवन की उम्मीद है।

ईरान और अफगानिस्तान में सिखों का भविष्य: एक नई आशा

ईरान में सिख समुदाय के लिए भविष्य थोड़ा सा बेहतर नजर आता है। क्योंकि वहां के लोग उदारवादी हैं और सिखों को सम्मान दिया जाता है। वहीं अफगानिस्तान में सिखों की स्थिति अब भी बहुत चुनौतीपूर्ण है। तालिबान के शासन ने उनके धार्मिक स्वतंत्रता को सीमित कर दिया है और कई सिख अब अफगानिस्तान छोड़ने की सोच रहे हैं।

गुरलीन कौर की कहानी इस बदलाव को बहुत अच्छे से दर्शाती है। उनका मानना है कि ईरान में आज भी सिख समुदाय की पहचान बची हुई है, और वहां के लोग उनकी संस्कृति और धार्मिक रिवाजों का सम्मान करते हैं। यह एक बड़ी वजह है कि वह अपने पूर्वजों की धरती पर लौटने की इच्छा रखती हैं, लेकिन अफगानिस्तान में स्थिति बिल्कुल अलग है। वहां के सिख समुदाय को अब अपनी सुरक्षा और अस्तित्व को बचाने के लिए भारत और अन्य देशों का सहारा लेना पड़ रहा है।

और पढ़ें: Sikhism in Antarctica: बर्फीले महाद्वीप पर सिखों का बोलबाला: वैज्ञानिक मिशनों में भारतीय छाप और साहस की मिसाल!

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