Reliance Jio spectrum scam: अरबों की परतें, स्पेक्ट्रम की साज़िश? रिलायंस डील्स के दस्तावेज़ों से उभरी चौंकाने वाली टाइमलाइन

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Reliance Jio spectrum scam: देश के सबसे बड़े उद्योगपतियों में गिने जाने वाले मुकेश अंबानी का नाम एक बार फिर विवादों की हलचल में है। यह विवाद किसी एक घटना का नहीं, बल्कि करीब दो से तीन दशक लंबी उस कहानी का है जो कॉरपोरेट फैसलों, शेयर बाज़ार के उतार-चढ़ाव, कथित फर्जीवाड़े, वित्तीय जाल, विदेशी निवेश संरचनाओं और टेलीकॉम स्पेक्ट्रम तक फैली हुई बताई जाती है। कहानी में कई किरदार हैं महेंद्र नाठा, विनय मालू और अंत में धागा जाकर जुड़ता है रिलायंस जियो तक। जो आरोप सामने रखे गए हैं, वे सिर्फ किसी कंपनी के कारोबारी फैसलों की क्रोनोलॉजी नहीं, बल्कि उस इकोसिस्टम का आईना बताए जाते हैं जिसमें जनता का पैसा, सार्वजनिक संसाधन और नीतियों की दिशा कभी-कभी ‘सिस्टम’ के हिसाब से मोड़ दी जाती है।

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कहानी की शुरुआत 1987 में बनी एक दूरसंचार कंपनी और पहला वित्तीय जाल

दस्तावेज़ों के अनुसार इस गाथा की जड़ें 1987 में दिखाई देती हैं, जब एक दूरसंचार कंपनी अस्तित्व में आई। आने वाले वर्षों में कंपनी ऑप्टिकल फाइबर, माइक्रोवेव, इलेक्ट्रॉनिक्स, ब्रॉडबैंड उपकरणों और नेटवर्क इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे कारोबारों में सक्रिय रही।1995–2000 के बीच कंपनी ने कई सहायक कंपनियाँ बनाईं, एक के बाद एक अधिग्रहण किए और कथित रूप से एक बड़ा वित्तीय नेटवर्क तैयार किया। आरोप यह है कि इस दौरान शेयरों की कीमत को कृत्रिम रूप से ऊपर ले जाने, फिर गिराने और आम निवेशकों को नुकसान पहुँचाने का खेल खेला गया।

दस्तावेजों में बताया गया है कि:

  • 1 अक्टूबर 1999 को कंपनी का शेयर ₹250 के करीब था।
  • 7 मार्च 2000 तक यह ₹2415 तक पहुंच गया।
  • कुछ महीनों के भीतर ही ₹230 तक गिर गया।

आरोप यह है कि संबंधित संस्थाओं ने बड़े पैमाने पर शेयर जमा किए, बाजार में कृत्रिम कमी का माहौल बनाया और कई छोटे निवेशक ऊंचे दामों पर फंस गए।

एचएफसीएल ट्रेड इन्वेस्ट लिमिटेड और 10,648 करोड़ का स्थानांतरण (Reliance Jio spectrum scam)

4PM की रिपोर्ट के अनुसार, वित्तीय लेन-देन का एक और बड़ा हिस्सा 2001–2002 में दिखाई देता है। दस्तावेज़ों के अनुसार कंपनी समूह ने करीब ₹10,648 करोड़ की हिस्सेदारी एक सहायक कंपनी में स्थानांतरित की। अगले ही वर्ष कंपनी ने इसे बैलेंस शीट में समायोजित किया और ₹1,088 करोड़ का ‘राइट डाउन’ (घाटा) दिखा दिया।

अब सवाल उठता है कि इतना बड़ा स्थानांतरण, फिर अचानक मूल्य घटाकर दिखा देना… आखिर क्यों? वहीं, आरोप यह भी है कि यही संपत्तियाँ अलग-अलग निजी कंपनियों के चक्कर लगाती रहीं और बाद में उन्हें राइट ऑफ/इम्पेयरमेंट में समा दिया गया।

GDR और विदेशी फंड की परत, 46.5 मिलियन डॉलर वाला केस

2002 के आसपास की एक अंतरराष्ट्रीय फंडिंग कहानी भी दस्तावेज़ों में दर्ज है। आरोप यह है कि एक विदेशी एंटिटी “रोकन” के नाम पर बैंक गारंटी दिखाकर पैसा लिया गया और उसी पैसे से GDR (Global Depository Receipt) जारी किए गए। कुछ समय बाद रोकन को भुगतान बंद कर दिया गया। सेबी के रिकॉर्ड के मुताबिक यह “साधारण प्रक्रिया त्रुटि” नहीं, बल्कि निवेशकों के हितों को प्रभावित करने वाली सूचना वंचना बताई गई। यही वह दौर है जब महेंद्र नाठा (मामा) और विनय मालू (भांजा) की भूमिका कई जगहों पर दिखाई देती है। दस्तावेज़ों के मुताबिक इन दोनों के नाम कई वित्तीय लेन-देन, कंपनियों और बाद में टेलीकॉम लाइसेंसों के चक्र में जुड़े हुए बताते गए हैं।

4000 करोड़ से ज्यादा की मनी रूटिंग?

4PM की रिपोर्ट मे आगे कहा गए कि 2001–2011 के बीच विभिन्न रिपोर्टों में यह भी दर्ज है कि करीब 4000 करोड़ से अधिक की रकम कभी GDR, कभी FCCB, कभी विदेशी प्रेफरेंस शेयरों के नाम पर इधर-उधर घूमती रही और अंत में राइट-ऑफ में समा गई।

यह आरोप पूरी तरह तकनीकी सवाल उठाता है: अगर संपत्ति कल तक “गोल्ड” थी, आज अचानक बेकार कैसे हो गई? और अगर वास्तव में घाटा था, तो पहले उसके एवज में ऊंचा प्रीमियम क्यों दिखाया गया? यही वह “ग्रे ज़ोन” है जहां नियामक, ऑडिटर्स, बैंकर और प्रवर्तक सभी का रोल सवालों के घेरे में आता है।

2004–05: CDR और बैंकों से कर्ज़ माफी

फिर आता है समय 2004–05 का जब कंपनी ने बैंकों और वित्तीय संस्थानों से कहा कि वे ऋण चुकाने में सक्षम नहीं हैं। इसके बाद ₹27.19 करोड़ का कर्ज़ माफ हुआ। बाकी कर्ज़ लंबी किश्तों में बदला गया। फिर 2009-11 में, कंपनी ने ₹65.30 करोड़ ब्याज लाभ और ₹227.84 करोड़ ऋण माफी लाभ का वित्तीय लाभ दिखाया, कुल मिलाकर ₹320 करोड़ (₹320 करोड़) से अधिक। यह सब कानूनी था, पर सवाल आम जनता का है कि बैंकों का पैसा आखिर किसका होता है? आम जनता का ही। जब छोटे उद्योगपति 2–3 किस्त लेट कर दें, उनका खाता NPA हो जाता है। लेकिन बड़े कॉरपोरेट बार-बार राहत ले जाएँ तो यह समानता कहाँ रह जाती है?

और फिर कहानी पहुँचती है 2010 की BWA स्पेक्ट्रम नीलामी तक

यहीं से कहानी का सबसे संवेदनशील हिस्सा शुरू होता है टेलीकॉम लाइसेंस, स्पेक्ट्रम नीलामी और अंततः Reliance Jio का उभरना। दस्तावेजों के अनुसार, 2010 में “इन्फोटेल ब्रॉडबैंड सर्विसेज प्रा. लि.” ने पूरे देश का BWA स्पेक्ट्रम जीत लिया। उसी साल कंपनी का मूल्यांकन कथित तौर पर 5000 गुना प्रीमियम पर दिखाया गया। कुछ ही समय बाद यह कंपनी रिलायंस को बेच दी गई। बाद में CBI ने 2014 में सुझाव दिया था कि नीलामी की जांच हो, और CAG की रिपोर्ट में अनुमान था कि नियमों में बदलाव से ₹2,842 करोड़ का अनुचित फायदा हुआ। फिर से स्पष्ट ये आरोपित दावे हैं। अदालतें और सरकारें ही इसकी वास्तविकता तय करेंगी।

महेंद्र नाठा का रिलायंस जियो से जुड़ना—एक और कड़ी?

दस्तावेज़ों में यह भी दर्ज है कि महेंद्र नाठा, जो पूरी कहानी की शुरुआती पंक्तियों में प्रवर्तकों के तौर पर दिखते हैं, बाद में Reliance Jio के बोर्ड में भी नज़र आते हैं। आरोप यह है कि इन्फोटेल को लाइसेंस दिलाने में नाठा की भूमिका रही और पूरा ढांचा बाद में रिलायंस के हाथों में चला गया। यह रिश्ता संदेह पैदा करता है, लेकिन यह स्पष्ट रूप से दोष सिद्ध नहीं करता। इसी वजह से जांच की मांग बढ़ती है।

विनय मालू के खिलाफ पुराने मुकदमे और अनुत्तरित सवाल

विनय मालू का नाम दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद और कोलकाता पुलिस की कई केस फाइलों में दर्ज बताया गया है। कुछ मामलों में सजा, कुछ में अपीलें, कुछ में बरी लेकिन कई मामले आज भी पेंडिंग हैं। सवाल उठता है अगर इतने मामले हैं, तो गिरफ्तारी क्यों नहीं? जांच क्यों आगे नहीं बढ़ती? और अगर गलत है तो मुकदमे पेंडिंग क्यों रहते हैं?

क्या रिलायंस को नीतिगत लाभ मिले? दोनों सच्चाईयाँ समानांतर

रिलायंस का दावा है कि जियो ने भारत के डिजिटल सेक्टर में क्रांति ला दी और यह बात किसी से छिपी भी नहीं। डेटा सस्ता हुआ, इंटरनेट सुलभ हुआ, देश डिजिटल हुआ। लेकिन विरोधी पक्ष कहता है कि अगर इस क्रांति की नींव ही ‘नीतिगत लचीलापन’ पर टिकी हो, तो सवाल पूछा जाना जरूरी है कि:

  • क्या सभी टेलीकॉम कंपनियों को वही अवसर दिए गए?
  • क्या नीलामी में समान अवसर था?
  • अगर नियम बदले गए, तो क्यों? और किसके लिए?

सवाल एंटी-बिज़नेस नहीं, प्रो-पारदर्शिता हैं।

अब जरूरत एक व्यापक, निष्पक्ष, पारदर्शी जांच की

कई विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह के विवादों में पारदर्शिता ही सबसे बड़ा बचाव होती है। मांग उठ रही है कि:

  1. 2000–2014 के सभी CDR, राइट-ऑफ, विदेशी फंड मूवमेंट, कर्ज़ पुनर्गठन का एक व्हाइट पेपर जारी हो।
  2. 2010 की नीलामी और बाद के लाइसेंस परिवर्तन की पूरी फ़ाइल खोलकर सार्वजनिक की जाए।
  3. बैंकों की फोरेंसिक रिपोर्ट सार्वजनिक की जाए।
  4. SEBI और स्टॉक एक्सचेंज की भूमिका की स्वतंत्र जांच हो।
  5. एक संयुक्त कमेटी (सेबी, सीएजी, सीबीआई, DOT, फोरेंसिक ऑडिटर) की समयबद्ध जांच हो।

आम निवेशक और जनता का दर्द, जो इस पूरी कहानी का असली पीड़ित है

यह कहानी सिर्फ कॉरपोरेट्स की लड़ाई नहीं है। यह उस आम आदमी की भी कहानी है, जिसने 2000 के बुल रन में पैसा गंवाया, जिसने 2010 में डिजिटल इंडिया की खबरों पर शेयर खरीदे, जो खुद बैंक की लाइन में खड़ा होता है, और बाद में उसी बैंक को करोड़ों का कॉर्पोरेट कर्ज़ माफ करते देखता है। यह व्यवस्था की कठिनाई है जहां नियम आम लोगों के लिए सख्त और बड़े खिलाड़ियों के लिए लचीले दिखाई देते हैं।

वहीं, अगर सब कुछ नियमों के भीतर है, तो सभी पक्षों को सामने आकर साफ-साफ बताना चाहिए कि:

  • लाइसेंस कैसे मिले?
  • नियम किसने बदले?
  • 5000 गुना प्रीमियम का आधार क्या था?
  • 22842 करोड़ का अनुमानित लाभ किस वजह से हुआ?

सच्चाई चाहे जो हो पारदर्शिता, जवाबदेही और निष्पक्ष जांच लोकतंत्र के लिए जरूरी है। यह मामला सिर्फ एक कंपनी का नहीं, बल्कि उस सिस्टम का है जिसके भरोसे आम लोग अपना पैसा, अपना भविष्य और देश की अर्थव्यवस्था सौंपते हैं।

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