भारत
को अंग्रेजों से आजादी दिलाने के लिए ही ‘कांग्रेस’
पार्टी का गठन किया गया था. और 1947 में भारत को आज़ादी दिलाने के बाद लोकतान्त्रिक
रूप से देश को चलाने के लिए कांग्रेस देश की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर के
आई. उसके बाद कांग्रेस कई बार टूटी और कई बार जुड़ी. इस पार्टी का सिंबल अभी तो एक ‘पंजा’ है लेकिन इस पार्टी का जो सिंबल है वो किसकी देन
है कैसे अस्तित्व में आया ये शायद ही किसी को पता हो. ऐसे में तो आप ये भी पूछेंगे
कि हर पार्टी के सिंबल या चुनाव चिन्ह की अपनी एक कहानी है लेकिन कांग्रेस के
सिंबल की कहानी बाकी सब से थोड़ी हट कर है. पंजे के चुनाव चिन्ह से पहले पार्टी के
दो और भी चुनाव चिन्ह थे, कभी गाय का बछड़ा तो कभी जोड़ी बैल. आपको याद होगा कि इंदिरा
गांधी ने 1975 में इमरजेंसी घोषणा कर दी थी. जिसकी बुनियाद 1974 के छात्र आन्दोलन
से पड़ी थी, जयप्रकाश नारायण ने इसका नेत्रत्व कर आन्दोलन को राष्ट्रव्यापी बना
दिया. इंदिरा के इस फैसले का खामियाजा 1977 में लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार
के रूप में भुगतना पड़ा. इस हार के बाद ऐसा लग रहा था कि मानों इस पार्टी का अब दोबारा
सत्ता में वापसी कर पाना नामुमकिन है. लेकिन चुनाव चिन्ह के बदलने मात्र से ही कांग्रेस
पार्टी की पूरी किस्मत ही पलट गयी.
जब बाबा
की शरण में पहुंची इंदिरा गांधी
1977
के लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद कांग्रेस कि हालत काफी ख़राब हो गयी थी. मगर
हालत इतनी ख़राब हो गयी थी की चुनाव कि जीत तो छोड़ो पार्टी के रूप में बने रहने का
रास्ता तक कांग्रेस को नहीं सूझ रहा था. हार कि वजह तो पता थी लेकिन इस हार कि चोट
से बाहर कैसे आया जाए कांग्रेस में लगातार इस मुद्दे पर चर्चा हो रही थी. तभी एक
कांग्रेसी नेता ने सलाह दी कि क्यों पार्टी के छबि को सही करने के लिए पार्टी का
सिंबल बदला जाए. साथ ही नेता ने इंदिरा गांधी को उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल में रह
रहे सिद्ध संत देवरहा बाबा के दर्शन की सलाह भी दी.
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बाबा
का आशीर्वादी हाथ बना पार्टी का चुनाव चिन्ह
नेता
और अपने करीबियों कि सलाह पर इंदिरा उत्तर प्रदेश के एक जिला मुख्यालय देवरिया से करीब
40 किलोमीटर दूर देवरहा बाबा के दर्शन करने उनके आश्रम पहुंच गयी. बाबा से जो भी
मिलने जाता था, उसे वे हाथ उठा कर आशीर्वाद देते थे. जब इंदिरा गांधी पहुंची तो बाबा ने उन्हें भी उसी अंदाज में
हाथ उठा कर आशीर्वाद दिया. बताया जाता है
कि वहां से लौटने के बाद इंदिरा गांधी ने कांग्रेस का चुनाव चिह्न गाय-बछड़ा की
जगह पंजा करने के लिए चुनाव आयोग से आग्रह किया. आयोग ने पंजा चुनाव चिह्न कांग्रेस को आवंटित कर दिया. वही चुनाव चिह्न आज तक चल
रहा है.
1977 के लोकसभा
चुनाव में कांग्रेस की जिस तरह दुर्गति हुई थी, उससे किसी को अनुमान नहीं
था कि वह फिर से उठ पाएगी. देवरहा बाबा
के आशीर्वाद और पंजा चुनाव चिह्न मिलने के ढाई साल बाद हुए लोकसभा के मध्यावधि
चुनाव में इंदिरा गांधी ने पूरे दमखम से सत्ता में वापसी की थी.
टूटती
रही कांग्रेस बदलता रहा चुनाव चिन्ह
आजादी के बाद से कांग्रेस का चुनाव चिह्न कई बार बदला. शुरुआत में में इसका चुनाव चिह्न जोड़ा बैल था. जब इंदिरा गांधी 12 नवंबर 1969
को कांग्रेस से
निकाल दी गयीं. तब उन्होंने कांग्रेस (आर) नाम की पार्टी का गठन किया. कांग्रेस
(आर) का चुनाव चिह्न गाय-बछड़ा था. ये वही कांग्रेस (आर) है जो बाद में कांग्रेस (आई) बन गयी.
कांग्रेस का गठन 28 दिसंबर 1885 को हुआ था. इसकी स्थापना अंग्रेज एओ ह्यूम ने की थी.
कांग्रेस के पहले अध्यक्ष व्योमेशचंद्र बनर्जी बने थे. जिस समय कांग्रेस की
स्थापना हुई, उस समय इसका उद्देश्य अंग्रेजों की गुYलामी से भारत की मुक्ति थी. आजादी मिलने
के बाद कांग्रेस भारत की प्रमुख राजनीतिक पार्टी बन गयी. आजादी मिलने के बाद
महात्मा गांधी ने कहा था कि कांग्रेस के गठन का उद्देश्य पूरा हो गया. अब इसे खत्म
कर देना चाहिए. कांग्रेस विरोधी लोग आज भी महात्मा गांधी की उस बात को अक्सर
दोहराते रहते हैं.
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1984
में विपक्ष का वही आज था जो 1977 में कांग्रेस का
1984
में इंदिरा गांधी कि हत्या के बाद कांग्रेस कुछ इस कदर सत्ता में उभरा कर आई कि
बाकी विपक्षियों का सूपड़ा साफ़ हो गया. राजीव गांधी के नेतृत्व में हुए अगले आम
चुनाव में कांग्रेस को एकतरफा बहुमत मिला. हालांकि राजीव गांधी की सरकार में रक्षा मंत्री
रहे वीपी सिंह ने बोफोर्स तोप घोटाले को लेकर बगावत कर दी और कांग्रेस को 1998
में सत्ता से
बाहर होना पड़ा. वीपी सिंह ने
कांग्रेस छोड़ कर जनमोर्चा नाम की नयी पार्टी बनायी. भाजपा और वामपंथी दलों के सहारे वे प्रधानमंत्री बन गये. मंडल आयोग की सिफारिशें
लागू होने पर बीजेपी ने समर्थन वापस ले लिया और वीपी संह की सरकार गिर गयी. जनमोर्चा भी बिखर गया. जनमोर्चा के टूटने पर जनता
दल, जनता दल (यू), राजद, जद (एस), सपा जैसे कई दल अस्तित्व में आये.
कौन थे
सिद्ध संत देवरहा बाबा?
कुछ मान्यताओं के अनुसार, वह दैवीय शक्तियों से
संपन्न थे, इसलिए उन्हें भक्तों ने देवरहा बाबा कहा। आयु, योग, ध्यान और आशीर्वाद, वरदान देने की
क्षमता के कारण लोग उन्हें सिद्ध संत कहते थे। उनके अनुयायियों का मानना है कि वह 250
से 500 वर्ष तक जीवित
रहे. लोग बताते हैं कि उनकी सबसे
बड़ी खूबी होती थी कि वे बिना बताये लोगों के मन की बात जान लेते थे। उनका नाम
देवरहा बाबा शायद इसलिए पड़ा कि वे उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में रहते थे. उनकी उम्र का
कोई पुख्ता सबूत तो नहीं मिला, लेकिन उनके भक्त 250
से 500 साल उम्र बताते
हैं.
19 जून 1990 को उन्होंने अपने
प्राण छोड़ दिए थे. लोग तो यह भी बताते हैं कि वे पानी की धार पर भी चलते थे. बाबा के
चमत्कार की चर्चा इतनी थी कि 2011 में जार्ज पंचम भी उनके दर्शन के लिए भारत आए थे. देश के दिग्गज
राजनेता उनके भक्त थे. ऐसे लोगों में पहले राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद के
अलावा अटल बिहारी वाजपेयी, मुलायम सिंह यादव, जगन्नाथ मिश्र जैसे कई बड़े नेता शामिल थे। इसी
क्रम में इंदिरा गांधी भी बाबा का आशीर्वाद लेने उनके आश्रम आयी थीं. कहा जाता है कि बाबा जल पर भी चलते थे, उन्हें प्लविनी
सिद्धि प्राप्त थी। किसी भी गंतव्य पर पहुंचने के लिए उन्होंने कभी सवारी नहीं की।
बाबा हर साल माघ मेले के समय प्रयाग जाते थे। यमुना किनारे वृंदावन में वह आधा
घंटे तक पानी में, बिना सांस लिए रह लेते थे. देवरहा बाबा ने अपनी उम्र, तप और सिद्धियों के बारे
में कभी कोई दावा नहीं किया, लेकिन उनके इर्द-गिर्द हर तरह के लोगों की ऐसी भी भीड़ रही,
जो उनमें चमत्कार
तलाशती थी.