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Untouchability in India: क्या सचमुच खत्म हो गया छुआछूत? संविधान का अनुच्छेद 17 और आज की हकीकत

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Untouchability in India: 75 साल पहले, जब भारत का संविधान (Constitution of India) लागू हुआ, तब अनुच्छेद 17 ने साफ-साफ कहा था कि छुआछूत अब गैरकानूनी है। कोई भी इसे लागू करे, उसे सजा मिलेगी। बाबासाहेब आंबेडकर (Babasaheb Ambedkar) जैसे महान नेताओं की मेहनत से ये नियम बना, ताकि दलित और समाज के कमजोर वर्गों को बराबरी का हक मिले। लेकिन सवाल ये है कि क्या ये नियम सिर्फ कागजों तक सीमित रह गया? आज, 2025 में, क्या हम कह सकते हैं कि छुआछूत सचमुच खत्म हो गया? चलिए, इस पर खुलकर चर्चा करते हैं।

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अनुच्छेद 17 का वादा- Untouchability in India

26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ, और अनुच्छेद 17 (Article 17 of the Constitution) ने छुआछूत को जड़ से उखाड़ने का वादा किया। ये नियम बाबासाहेब की सोच का नतीजा था, जो चाहते थे कि हर इंसान को सम्मान और बराबरी मिले। इस अनुच्छेद में साफ लिखा है कि छुआछूत का कोई भी रूप, चाहे वो मंदिर में घुसने से रोकना हो, पानी न देना हो, या अलग बर्तन में खाना देना हो गैरकानूनी है। ऐसा करने वालों को सजा हो सकती है। लेकिन क्या ये वादा जमीन पर उतर पाया?

आज भी जिंदा है भेदभाव

अगर वर्तमान की बात करें तो 2025 में भी छुआछूत की घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं। हाल ही में गुजरात के बनासकांठा ज़िले के एक गाँव में दलित दूल्हे मुकेश पारेचा की बारात को 145 पुलिसकर्मियों की सुरक्षा दी गई, क्योंकि कुछ लोगों को इस बात से दिक्कत होने लगी कि एक दलित घोड़ी कैसे चढ़ सकता है। आपको बता दें, दलित दूल्हों के घोड़ी चढ़ने को लेकर कई विवाद सामने आ चुके हैं और कई मामलों में दूल्हे की हत्या तक कर दी जाती है। इसी डर से मुकेश पारेचा ने पुलिस सुरक्षा ली थी। दरअसल, दूल्हे का कहना है कि आज तक उनके गाँव में किसी दलित दूल्हे ने घोड़ी नहीं चढ़ी थी। इसलिए दूल्हे की सुरक्षा को मद्देनजर रखते हुए गुजरात पुलिस ने बारात पर नज़र रखने के लिए ड्रोन कैमरों का भी इस्तेमाल किया।

इसके बावजूद किसी ने दूल्हे की गाड़ी पर पत्थर फेंका। यह घटना तो बस एक छोटा सा उदाहरण है कि आज भी दलितों को कैसे परेशान किया जाता है।

दलितों के खिलाफ हालिया मामले

वहीं, गुजरात के अलावा, हाल के महीनों में उत्तर प्रदेश, और कर्नाटक जैसे राज्यों में कई ऐसी घटनाएं सामने आई हैं, जो बताती हैं कि जातिगत भेदभाव अब भी समाज की गहरी जड़ों में बस्ता है। अभी हाल ही में, जुलाई 2025 में उत्तर प्रदेश के फतेहपुर में दलित युवक नरेश पासी को कुछ लोगों ने पेड़ से बांधकर बेरहमी से पीटा। इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, जिसने लोगों का गुस्सा भड़का दिया। कांग्रेस ने इसे “मनुवादी सोच” का नतीजा बताया और दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग की। पुलिस ने SC/ST एक्ट के तहत मामला दर्ज किया, लेकिन हैरान कर देने वाले बात तो ये है कि इस घटना को लेकर स्थानीय लोगों का कहना हैं कि ऐसी घटनाएं यहां आम हैं।

अब दलित उत्पीड़न का एक और मामला सुनिए, 9 जुलाई 2025 को बाराबंकी के लोधेश्वर महादेव मंदिर में एक दलित युवक, शैलेंद्र गौतम, को पूजा करने से रोका गया और बेरहमी से पीटा भी गया। शैलेंद्र का कहना है कि मंदिर के पुजारी और उनके बेटों ने उसे लोटे और घंटे से मारा और जातिसूचक गालियां दीं।

इस तरह अगर आप इन मामलों को सुनने बैठेंगे तो पूरा दिन बीत जाएगा, लेकिन ये घटनाएँ खत्म नहीं होंगी। आप हमारी इस बात से साफ़ अंदाजा लगा सकते हैं कि कड़े नियम-कानूनों के बावजूद दलित आज भी लाचार हैं।

दलितों के साथ भेदभाव

आपको जानकार हैरानी होगी कि की कुछ गाँवों में आज भी दलितों के बच्चों को स्कूल में अलग बिठाया जाता है, तो कहीं उन्हें अलग बर्तनों में खाना दिया जाता है। शहरों में यह भेदभाव थोड़ा छिपा ज़रूर है, लेकिन खत्म नहीं हुआ है। उदाहरण के लिए, दलितों को अक्सर शहरों में घर किराए पर लेने में दिक्कत होती है। वहीं, अगर सरकारी आंकड़ों पर गौर करें, तो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की 2023 की रिपोर्ट बताती है कि अनुसूचित जातियों के खिलाफ अपराध कम नहीं हुए हैं, 2022 में अनुसूचित जातियों के खिलाफ अपराधों में 13.1% की वृद्धि देखी गई, जो 50,900 से बढ़कर 57,582 हो गए। इसी तरह, अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अपराध भी 14.3% बढ़ गया। 2021 में ये आंकड़े 8,802 से बढ़कर 2022 में 10,064 हो गए।

कानून और उसकी हकीकत

वैसे तो, सरकार ने छुआछूत रोकने के लिए कई कानून बनाए हैं। 1955 का सिविल राइट्स प्रोटेक्शन एक्ट और 1989 का SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम इसके बड़े उदाहरण हैं। 1993 में मैनुअल स्कैवेंजिंग को भी गैरकानूनी बनाया गया, ताकि दलितों को अमानवीय कामों से बचाया जाए। लेकिन हकीकत ये है कि इन कानूनों का सही अमल नहीं हो पा रहा। इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025 के मुताबिक, 2022 में छुआछूत से जुड़े 1000 से ज्यादा मामले कोर्ट में लंबित थे, और ज्यादातर में आरोपी बरी हो गए। इस मामले में, पुलिस और ज्यूडिशियरी में SC/ST समुदाय का कम प्रतिनिधित्व भी एक बड़ी रुकावट है। इसके अलावा, सामाजिक न्याय मंत्रालय ने 2025 में एक बैठक की, जिसमें दलितों और आदिवासियों के खिलाफ अत्याचार रोकने की बात हुई, लेकिन जमीन पर बदलाव की रफ्तार धीमी है।

क्या कहते हैं लोग?

कुछ लोग मानते हैं कि छुआछूत अब सिर्फ गांवों तक सीमित है, लेकिन ये सच नहीं। शहरों में भी ये भेदभाव नए-नए रूपों में दिखता है। उदाहरण के तौर पर, कॉरपोरेट ऑफिसों में भी दलित कर्मचारियों को कई बार अलग-थलग किया जाता है। वहीं, कुछ का कहना है कि नई पीढ़ी में जागरूकता बढ़ रही है, और शिक्षा ने हालात को पहले से बेहतर किया है। लेकिन सच्चाई ये है कि जागरूकता के बावजूद समाज में गहरी जड़ें जमाए ये भेदभाव आसानी से खत्म नहीं हो रहा।

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