क्या है मुहर्रम की पूरी कहानी और क्यों निकाला जाता है ताजिया जुलूस, जानिए…

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तजिया क्यों निकलता है – मुहर्रम इस्लामी साल का पहला महीना है, जिसक 10वीं तारीख को मुहर्रम मनाया जाता है. जिसे यौम-ए-आशुरा कहा जाता है. वहीं अरबी में इस अशुरा शब्द का अर्थ दसवां दिन है. इस बार 10 सितंबर को मुहर्रम मनाया जा रहा है जो इस्लामिक नए साल का पहला पर्व है. इस दिन को शिया इस्लाम गम के तौर पर मनाते हैं. बता दें कि इस दिन मुसलमान इमाम हुसैन और उनके अनुयायियों की शहादत को याद करते हैं और मुहर्रम की 9 और 10 तारीख को रोजा भी रखते हैं. आज हम आपको मोहर्रम की कहानी बताने जा रहे हैं कि आखिर इसे क्यों मनाया जाता है, तो आइए जानते हैं.

क्यों मनाते हैं मुहर्रम में शोक

10 दिनों तक शिया मुस्लमान मुहर्रम को शोक के तौर पर मनाते हैं. शिया मुस्लमान के अनुसाप ये वो दिन है जब पैगंबर मुहम्मद के पोते इमाम हुसैन की शहादत हुई. इमाम हुसैन और उनके परिवार ने धर्म की रक्षा के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी थी. आपको बता दें कि हजरत मुहम्मद के पोते हजरत इमाम हुसैन इस्लाम की रक्षा में इराक के प्रमुख शहर कर्बला में एक जंग में थे. ये जंग यजीद के साथ हुई जिसके पास एक विशाल सेना थी. यजीद ने वो हजरत इमाम हुसैन और उनके काफिले पर काफी जुल्म किया. यजीद ने वहां रह रहे लोग, बूढ़े, जवान, बच्चों के पानी पीने पर पाबंदी लगा दी.

ऐसी स्थिति में भी युद्ध जारी रहा, लेकिन हजरत इमाम हुसैन ने यजीद के सामने हार नहीं मानी. इमाम हुसैन ने अपने 72 साथियों के साथ 80,000 दुश्मन सैनिकों से लड़ाई की और फिर उनके सारे साथी मारे गए. कहा जाता है कि जब इमाम हुसैन अपने भाइयों और साथियों के शवों को दफन कर अस्र की नमाज पढ़ रहे थे, तभी एक दुश्मन सैनिक ने पीछे से उन पर वार कर दिया जिससे वो शहीद हो गए. यही वो दिन था जब हजरत इमाम हुसैन ने अपनी जान कुर्बान की थी और उनका पूरा काफिला भी कुर्बान हो गया था.

एक रोजे से कई गुनाह माफ

कहा जाता है कि जिसने मुहर्रम की 9 तारीख का रोजा रखा उसके पीछे के 2 साल के गुनाह को अल्लाह माफ कर देता है. इतना ही नहीं जितना 30 दिनों के रोजे रखने पर फल मिलता है उतना ही मुहर्रम के 1 रोजे का फल मिलता है.

तजिया क्यों निकलता है 

मोहर्रम महीने की 10वीं तारीख को ताजिया जुलूस निकाला जाता है. ये ताजिया लकड़ी और कपड़ों से गुंबदनुमा आकार में बना होता है, जो इमाम हुसैन की कब्र का नकल होता है. जिसे झांकी के जैसे सजाकर कर्बला में दफन कर दिया जाता है. बताया जाता है कि मुहर्रम के 10वें दिन ही कर्बला में नरसंहार हुआ जिसमें इमाम हुसैन शहीद हो गए. माना जाता है कि मुहर्रम के 10वें दिन ही अल्लाह ने इंसान को बनाया था.

शिया और सुन्नी के होती हैं अलग-अलग मान्यताएं

मोहर्रम में ताजिया निकालने को लेकर शिया और सुन्नी इन दोनों की अलग-अलग मान्यताएं होती हैं. शिया ताजिया निकालते हैं और दफनाते हैं, लेकिन सुन्नी मुस्लिम इसे सही नहीं मानते बल्कि वो इमाम हुसैन के गम में शरबत बांटने, खाना खिलाने और जरूरतमंद की मदद में विश्वास रखते हैं. ज्यादातर मुसलमान शोक में अपना कारोबार बंद रखते हैं और मस्जिदों में नफिल नमाजें अदा करते हैं.

यहां से शुरू हुई थी ताजिया दफन की परंपरा

आपको बता दें कि भारत से ही ताजिया दफन करने की परंपरा शुरू हुई थी. शिया संप्रदाय से आने वाले बादशाह तैमूर लंग ने ताजिया दफन करवाया था. साल 1398 में तैमूर लंग भारत पहुंचा. इससे पहले उसने फारस, अफगानिस्तान, मेसोपोटामिया और रूस के कुछ भागों को जीत लिया था और फिर दिल्ली को अपना ठिकाना बना लिया और अपने आपको को सम्राट घोषित कर दिया.

तैमूर लंग ने मुहर्रम के महीने में इमाम हुसैन की याद किया. उसने दरगाह जैसा एक ढांचा बनवाया और फिर उसे फूलों से सजवाया. इस ढांचे को उसने ताजिया का नाम दिया। इसके बाद ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती भारत आए और अजमेर शहर में एक इमामबाड़ा बनवाकर वहां ताजिया रखने की एक जगह बनवाई।

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