हिंदी साहित्य में ‘जातिवाद के विष’ को जनता के सामने लाने वाली इकलौती दलित लेखिका

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लिख रही है औरतें

वे लिख रही है प्रेम, विरह

वे लिख रही है अधिकार, विरोध

वे लिखती है तुम्हारा दोगलापन

कि कैसे-कैसे निकल आता है वक्त-बेवक्त

तुम्हारे भीतर का जाति व्यवस्था और पितृसत्ता वाला समाज..

Rajni Disodia full Details in Hindi: आज हमारे देश की लड़कियां कहाँ पीछे है? हर चीज़ में दुनिया से कदम से कदम मिला कर चल रही है. वह चाहे खेल-कूद हो या अन्तरिक्ष, सिनेमा हो या पढाई, डॉक्टर हो या इंजिनियर किसी भी चीज़ में पीछे नहीं है. हाँ, कहने को तो समाज कह देता है, कि हमारी देश की बेटियां किसी से कम नहीं है, बेटा और बेटी में कोई फर्क नहीं है लेकिन साथ ही समय समय पर उनका दोगलापन बाहर आता रहता है, कभी जाति के नाम पर तो कभी लिंग के नाम पर.

अगर हमारे समाज के इतिहास को उठा कर देखोगे, तो उसके पन्नों पर दलित महिलओं की गूंजे सुनाई देगी, कभी दलित महिलाओं को दुखों में बिलखते पाओगे, कभी दलित महिलाओं को अपने हकोब के लिए आवाज उठाते… तो कभी दलित महिलाओं को अपने हकों के लड़ाई के लिए लिखते पाओगे.

दोस्तों, हमारे समाज कि दलित महिलओं ने सबसे ज्यादा तिरस्कार सहे है. इस जाति व्यवस्था ने साहित्य को भी नहीं छोड़ा है. भारतीय साहित्य और कला में हमेशा से उच्च जाति वालों का वर्चस्व रहा है. हमारे देश में दलित और पिछड़े वर्गो को कभी भी शिक्षा, और पड़ने लिखने के अवसर नहीं मिले जो एक इंसान का अधिकार होता है. आज हम एक ऐसी ही दलित लेखिका के बारे में बात करेंगे, जिनसे बातचीत करने पर पता चला की जातिव्यवस्था ने उन्हें और उन्हें साहित्य को भी नहीं बक्सा है. उन्हें भी अपने चपेड में ले लिया है. उनका नाम दलित लेखिका डॉ रजनी दिसोदिया है जिन्होंने अपने जीवन में अपनी कलम से दलितों के हकों के लिए लड़ाई की थी.

और पढ़ें : अपने ‘लेखनी’ को तलवार बनाकर मनुवादी मानसिकता को झकझोरने वाली लेखिका

अम्बेडकरवादी आलोचना पर दृष्टि

डॉ रजनी दिसोदिया का जन्म 26 सितम्बर 1971 को हरियाणा के एक दलित परिवार (Dr. Rajni Disodia full Details in Hindi) में हुआ था. यह एक दलित लेखिका है. जिन्होंने अपनी लेखनी से दलितों के हकों के लिए आवाज उठाई है, इन्होने अपनी कॉलेज की पढाई दिल्ली विश्वविद्यालय से की थी. इन्होने अपने जीवन में बहुत बार जातिगत भेदभाव का सामना किया है. डॉ रजनी दिसोदिया को बचपन से ही लेखिका बनना था. इनकी लेखनी में दलितों के प्रति दया और अम्बेडकरवादी आलोचना के खिलाफ उनके विचार दिखाई देती है. उनके अनुसार हमारे देश के छठी-सातवीं शताब्दी से लेकर बारवीं-तेहरवीं शताब्दी के इतिहास और साहित्य का अध्ययन करने की बहुत आवश्यकता है. उनकी लेखनी में समाज के दोगलेपन का जिक्र दिखता है.

दलित लेखिका डॉ रजनी दिसोदिया के अनुसार दलित साहित्य केवल इसलिए दलित साहित्य नहीं है कि वह दलितों द्वारा लिखा गया था, बल्कि इसलिए भी इसे दलित साहित्य कहा जाता है, कि दलित समाज वास्तव में ब्राह्मणवादी व्यवस्था है.आजकल अन्य समाजों को देख कर दलित समाज भी उसके प्रभाव में है. ऐसे में दलित आलोचना को अपने साहित्य और साहित्यकारों का जागरूक करने की जरूरत है. नहीं तो, वह समय दूर नहीं जब पढ़-लिख कर आगे आया दलित समाज पूरी तरह ब्राह्मणवादी संस्कारों में ढल जाएगा. दलित आलोचना को दलित संस्कृति की रक्षा के लिए काम करना पड़ेगा.

और पढ़ें : शान्तबाई कांबले: अपने जीवन की कहानियों को किताब के पन्नों पर उकेरने वाली पहली दलित महिला 

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