Dalit Shantabai Kamble Details – एक चुनाव, एक बाजार, एक देश, एक मुखिया, एक कानून, मैंने कहा- ‘एक जाति’, बोले ये देशद्रोही है….यह पक्तियां हमारे आज के समाज की सच्चाई को बया करती है. पुराने समय से ही हमारे समाज में जातिव्यवस्था जैसी कुप्रथाएं चली आ रही है. जिनकी वजह से जाने कितने दलितों इंसान होने के अधिकार तक नहीं मिले है लेकिन समय समय पर कुछ ऐसे विद्रोधियों ने जन्म भी लिया है जिन्होंने जातिव्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाई आई है. लेकिन जो भी समाज ओए सरकार के विरूद्ध जाता है समाज उसे अपना दुश्मन बना लेता है.
आज हम एक ऐसी ही दलित लेखिका और कार्यकर्ता के बारे में बात करेंगे, जिन्होंने दलितों के हकों की लड़ाई अपनी कलम से लड़ी. और समाज को अपने खिलाफ कर लिया. उनका नाम शांताबाई कृष्णाजी कांबले था, पहली दलित महिला लेखिका थीं जिन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी. इनकी किताब भारत दलितों की समस्याओं का बखान करती है. हिंदू वर्ण व्यवस्था के चलते जिस तरह जाति के नाम पर छुआछुत थोप दी जाती है. दलितों संघर्ष को लेखिका ने शब्दों में बयां कर उनका विरोध किया है. उन्होंने दलित समाज के हकों और शिक्षा के लिए नहुत काम किए.
और पढ़ें : जब 36 अंग्रेजों पर भारी पड़ी थी दलित वीरांगना ऊदा देवी लेकिन इतिहास ने इनके साथ….
दोस्तों, आईये आज हम आपको एक मराठी दलित लेखिका शांताबाई के हमारे समाज में योगदान के बारे में बताएंगे. इन्होने देश में दलित महिलाओं की स्थिति को बदलने के लिए आवाज़ उठाई. शांताबाई कांबले की आत्मकथा में उन्होंने भेदभाव के मुद्दे सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक तौर पर चेतना शामिल की हैं.
ऐसे हुई थी संघर्ष की शुरुआत
शांताबाई कांबले Dalit Shantabai Kamble Details) का जन्म एक महार दलित परिवार में 1 मार्च 1923 को सोलापुर में स्थित महुद जगह पर हुआ था. उनके परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी. उस समय हमारे समाज में दलित समुदाय को शिक्षा की अनुमति नहीं थी. ख़ासकर महिलाएं उस समय स्कूल नहीं जाती थी. लेकिन इनके माता पिता ने अपनी बेटी को स्कूल भेजने और शिक्षित करने का फैसला लिया. शांताबाई कांबले ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि “एक अछूत के रूप में, उन्हें कक्षा में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी और कक्षा के बाहर बैठकर कुछ भी करने के लिए कह दिया जाता था. स्कूल में पढ़ाई के दौरान उन्हें बहुत जातिगत भेदभाव के अनुभवों से गुजरना पड़ा था”.
एक दलित होने के नाते उन्हें बहुत कुछ सहना पड़ा. शांताबाई ने ‘माजा जन्माची चित्तरकता’ नाम से एक जीवन कथा लिखी थी. इस आत्मकथा में उन्होंने अपने बुरे अनुभव बयां किए हैं. शांताबाई ने स्कूल, कार्यस्थल और यहां तक कि घर पर भी समाज द्वारा हुए अपमान को लिखा. इन्होने अपनी आत्मकथा में वह जाति, समाज, और तिरस्कार के बारे में बातें लिखी. शांताबाई कांबले का लिखना या ऐसा कह सकते है कि उनकी कलम का चलबा दलित समुदाय की सामूहिक आवाज़ भी प्रस्तुत करता है.
दलित लेखिका के जीवन का अनुभव
Dalit Shantabai Kamble Details – शांताबाई कांबले, जो एक दलित लेखिका है, जिन्होंने अपने किताबों के पन्नों पर उसके साथ हुए जातिगत भेदभाव के बारे में लिखा है. उन्होंने लिखा है कि “जब वह छठी कक्षा में पढ़ रही थी, तो वह अपने ब्राह्मण सहपाठी को उसके घर स्कूल में जाने के लिए बुलाने के लिए चली गई थी. वहां उन्हें देखकर उस सहपाठी की माँ चिल्लाई, “ऐ महार की बेटी, वहीं रुक जाओ. अंदर मत आना. मैं वहां घबराए रूकी एक जगह खड़ी रही थी. उसकी माँ ने कहा कि महार की बेटी तुम्हें बुला रही है. जल्दी करो और विद्यालय जाओ” मैं स्कूल आ गई लेकिन उसकी माँ के कहे शब्द मुझे याद रहे. “महार की बेटी” वहीं रुक जाओ”.
उन्होंने अपनी किताबों में बताया है कि पढ़ी-लिखी होने के बावजूद भी उन्हें घर-घर जाकर भाकरी माँगनी पड़ी थी. शांताबाई के सरकारी शिक्षक बनाने का बाद भी जाति के आधार पर अपमान और अत्याचार के कम नहीं हो सका. शांताबाई को 1942 में सोलापुर जिले के कदल गांव शिक्षक के रूप में नियुक्त किया. लेकिन गांव के अन्य जाति के लोग उनसे कहते थे, कि वह नहीं लौटी तो उनके साथ वैसा ही ऐसा व्यवहार किया जाएगा जैसे पिछले निचली जाति के शिक्षकों के साथ हुआ था. उनको पीटा गया था और वापस भेजा दिया गया था. शांताबाई ने साहसपूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन किया.
और पढ़ें : अन्नै मीनमबल शिवराज: जातिवादी व्यवस्था का विरोध करने वाली पहली दलित महिला