जानिए दलित स्वाभिमान के प्रतीक स्वामी अछूतानंद हरिहर की अनसुनी कहानी

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ब्राह्मण व क्षत्रियों को सबका बनाया अफसर

हमको पुराने उतरन पहनो बता रही है

हमको बिना मजूरी, बैलों के साथ जोतें,

गाली व मार उस पर, हमको दिला रही है

लेते बेगार, खाना तक पेट भर न देते,

बच्चे तड़पते भूखे, क्या जुल्म ढा रही है

ऐ हिन्दू कौम सुन ले, तेरा भला न होगा,

हम बेकसों को ‘हरिहर’ गर तू रुला रही है.

हमारे समाज में बहुजनो की स्थिति को बताने वाली उपरोक्त पंक्तियाँ स्वामी अछूतानंद हरिहर द्वारा लिखी गयी है. यह उत्तर भारत के दलित नवजागरण के पहले चिंतक, नाटककार, सम्पादक, पत्रकार और लेखक थे. यह हिंदी भाषा के पहले आधुनिक समय के विद्रोही साहित्यकार है. भारत में 1980-90 के दशक में जो दलितों के उभर के लिए आन्दोलन हुए, उसे काफी पहले यह आन्दोलन स्वामी अछूतानंद हरिहर कर चुके थे. इन्होने हमेशा ही अपने साहित्य से दलितों की समाजिक स्थिति का बखान किया था. इनका साहित्य दलित साहित्य को एक मजबूत रूप प्रदान करते है.

दोस्तों, आज हम आपको दलित स्वाभिमान के प्रतीक स्वामी अछूतानंद हरिहर के जीवन के बारे में बतायेंगे. यह बहुजन समाज के पहले विद्रोही साहित्यकार थे, जिन्होंने अपने साहित्य से दलितों की समाजिक स्थिति को बयां किया था.

और पढ़ें : हिंदी साहित्य में ‘जातिवाद के विष’ को जनता के सामने लाने वाली इकलौती दलित लेखिका

स्वामी अछूतानंद हरिहर

दलित स्वामी अछूतानंद हरिहर का जन्म 6 मई, 1879 में उत्तर प्रदेश में ग्राम उमरी, पोस्ट सिरसागंज, जिला मैनपुरी में हुआ था. उनके पिता मोतीराम ने उनका नाम हीरा लाल रखा था. उनके चाचा मथुरा प्रसाद अंग्रेजों की फौज में भर्ती हो गए थे. इनकी शुरुवाती शिक्षा सैनिक छावनी में हुई थी. इन्होने 14 साल की उम्र तक अंग्रेजी और उर्दू भाषा अच्छी तरह से सिख ली थी. इनकी चाचा ने विवाह नहीं किया था, वह इन्हें ही अपनी सन्तान की तरफ रखते थे. जिसके चलते इनका अछूतानंद का पालन पोषण इनके चाचा ने किया था. इनके चाचा विचारों से कबीरपंथी थे. वे कबीर के दोहे बालक हीरा लाल (अछूतानंद) को सुनाया करते थे, जिसका गहरा असर अछूतानंद पर पड़ा. यहां ध्यान योग्य तथ्य यह है कि डॉ. आंबेडकर के पिता रामजी सूबेदार भी कबीरपंथी थे. स्वयं आंबेडकर बुद्ध के बाद कबीर को अपना दूसरा और जोतीराव फुले को तीसरा गुरु मानते थे.

जिसके बाद अछूतानंद को कबीर के साथ साधु-संतों का साथ अच्छा लगने लगा था. वे घर छोड़ कर कबीर पंथी साधुओं के एक दल के साथ चले गए और उनके साथ जगह-जगह घूमते रहे. कहा जाता है कि इसी दौरान उन्होंने धर्म, दर्शन और लोक-व्यवहार का बहुत-सा ज्ञान अर्जित किया तथा संस्कृत, गुरुमुखी,  गुजराती, बंगला, और मराठी भाषाएँ भी इसी घुमक्कड़ी में सीखी थी.

आर्य समाजी संन्यासी सच्चिदानन्द के सम्पर्क में अछूतानंद 1905 में आए थे और उनके शिष्य बन गए आर्य समाज का प्रचार करने लगे. इसी दौरान उनका नाम बदलकर हीरालाल से ‘स्वामी हरिहरानन्द’ कर दिया गया. इस दौरान अछूतानंद ने वेदों का गहन अध्ययन किया.

1917 में, स्वामी अछूतानंद अछूत सम्मेलन में भाग लेने के लिए गए थे. उस समय तक आर्य समाज के विरोधी के रूप में उनकी ख्याति हो चुकी थी. उस सम्मेलन में उन्होंने एक आर्य विद्वान् से बेहंस हो गयी थी, जिसके बाद उनका एक ब्रह्मवादी नाम बदल कर स्वामी अछूतानंद नाम रख दिया गया था. उसके बाद से ही उन्हें दलित स्वाभिमान के प्रतीक स्वामी अछूतानंद हरिहर कहा जाने लगा.

स्वामी अछूतानंद डॉ. आंबेडकर के समकालीन

हम आपको बता दे कि स्वामी अछूतानंद डॉ. आंबेडकर के समकालीन थे. दोनों के बीच वर्ण व्यवस्था और दलितों को लेकर गंभीर बातें भी हुई थी. इन दोनों कि पहली मुलाकात 1928 में तत्कालीन बंबई में ‘आदि हिन्दू’ आंदोलन के राष्ट्रीय अधिवेशन में हुई थी. दोनों ने दलितों की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति पर विचार किया था. डॉ. आंबेडकर ने स्वामी अछूतानंद को राजनीति में सक्रिय हिस्सेदारी का सुझाव दिया था.

और पढ़ें : अपने ‘लेखनी’ को तलवार बनाकर मनुवादी मानसिकता को झकझोरने वाली लेखिका के संघर्ष की कहानी 

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