Dr. Ambedkar vs Gandhi: डॉ. अंबेडकर ने गांधी को क्यों कहा था ‘अछूतों का सबसे बड़ा दुश्मन’?

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Dr. Ambedkar vs Gandhi: भारतीय इतिहास में ऐसे कई पल आए हैं, जब दो महान व्यक्तित्वों के विचार आमने-सामने खड़े हो गए। लेकिन जब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने महात्मा गांधी को “भारत में अछूतों का सबसे बड़ा दुश्मन” कहा, तो ये सिर्फ एक व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं थी ये एक ऐतिहासिक हकीकत, एक चेतावनी और एक गहरी पीड़ा का नतीजा थी।

यह बयान अपने आप में भारी है, इसलिए यह समझना बेहद जरूरी है कि आखिर डॉ. अंबेडकर ने ऐसा क्यों कहा? क्या वे महात्मा गांधी के विरोधी थे? या फिर उनके पास इसके पीछे कोई ऐतिहासिक, सामाजिक और कानूनी आधार था? यह खबर उन्हीं सवालों की तह में जाने का प्रयास है।

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आरंभ: अलग निर्वाचिका का अधिकार और गांधी का अनशन

1930 के दशक की बात है। लंदन में आयोजित राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस (RTC) में डॉ. अंबेडकर ने एक ऐतिहासिक जीत हासिल की थी। उन्होंने वहाँ पर यह साबित कर दिया कि अछूत जिन्हें आज अनुसूचित जातियों के नाम से जाना जाता है हिंदू समाज का हिस्सा नहीं हैं। वे वर्ण व्यवस्था के किसी भी वर्ग में नहीं आते थे, ना ब्राह्मण, ना क्षत्रिय, ना वैश्य और ना ही शूद्र। यानी वे ‘अवर्ण’ थे वर्ण से बाहर।

इसी आधार पर डॉ. अंबेडकर ने उनके लिए अलग निर्वाचिका (separate electorate) की मांग की और यह अधिकार ब्रिटिश सरकार ने मान भी लिया। यह अधिकार पहले से मुसलमानों, सिखों और एंग्लो-इंडियंस को मिल चुका था, तो फिर अछूतों को क्यों नहीं?

लेकिन जैसे ही यह अधिकार अछूतों को मिलने वाला था, महात्मा गांधी ने इसका कड़ा विरोध किया। उन्होंने इसे हिंदू धर्म के लिए “जहर का इंजेक्शन” कहा और इसके खिलाफ आमरण अनशन पर बैठ गए। यह अनशन किसी नैतिक दबाव का नहीं, बल्कि एक भावनात्मक ब्लैकमेल का रूप ले चुका था।

पूना समझौता: विवशता में लिया गया फैसला |Dr. Ambedkar vs Gandhi

गांधी के अनशन ने देशभर में तनाव फैला दिया था। डॉ. अंबेडकर पर दबाव डाला गया राजनीतिक, सामाजिक और यहां तक कि हिंसा की धमकियों के जरिए भी। उन्हें बताया गया कि अगर गांधी की मृत्यु हो गई, तो पूरे भारत में अनुसूचित जातियों के खिलाफ नरसंहार हो सकता है। हजारों घर जलाए जा सकते हैं, हजारों जानें जा सकती हैं।

अंततः डॉ. अंबेडकर ने पूना समझौते पर हस्ताक्षर किए। उन्होंने अपने कानूनी रूप से मिले अधिकार को छोड़ दिया इसलिए नहीं कि उन्हें गांधी से सहानुभूति थी, बल्कि इसलिए कि वो अपने लोगों की जान बचाना चाहते थे। उन्होंने सोचा कि अगर लोग जिंदा रहेंगे, तो संघर्ष आगे भी जारी रखा जा सकता है।

“हिंदू” शब्द का बदलता अर्थ: इतिहास का सबसे बड़ा छल

यहां एक अहम सवाल खड़ा होता है — जब डॉ. अंबेडकर ने साबित कर दिया कि अछूत हिंदू नहीं हैं, तो गांधी किस ‘हिंदू समाज’ को बचाना चाह रहे थे?

इसका जवाब छिपा है ‘हिंदू’ शब्द की ऐतिहासिक परिभाषाओं में:

फारसी हिंदू (Persian Hindu):

जब ‘हिंदू’ शब्द की उत्पत्ति हुई, तो इसका धार्मिक अर्थ नहीं था। यह सिर्फ एक भौगोलिक पहचान थी — सिंधु नदी के पार रहने वाले लोग। यानी हिंदुस्तान के निवासी। इस पहचान का धर्म से कोई लेना-देना नहीं था।

ब्रिटिश हिंदू (British Hindu):

अंग्रेजों के शासनकाल में ‘हिंदू’ शब्द को एक सामाजिक संरचना में ढाला गया। इसमें चार वर्ण थे — ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। अछूत इस व्यवस्था से बाहर थे। वे ‘अवर्ण’ कहलाते थे। उनके लिए कोई वर्ण धर्म नहीं था, कोई जाति नहीं थी। इसलिए वे हिंदू नहीं थे।

गांधीवादी हिंदू (Gandhian Hindu):

महात्मा गांधी ने एक नया प्रयोग किया। उन्होंने अछूतों को भी ‘हिंदू’ घोषित कर दिया। यानी एक ऐसा “हिंदू समाज” गढ़ा गया जिसमें सबको शामिल किया गया चाहे वे वर्ण व्यवस्था में हों या नहीं। यह एक सामाजिक और राजनीतिक मिलावट थी, ताकि अछूतों को हिंदू समाज का हिस्सा दिखाया जा सके और उन्हें अलग पहचान से वंचित किया जा सके।

धर्म या जीवनशैली: पहचान की राजनीति

गांधी ने “हिंदू धर्म” को एक धर्म की तरह प्रस्तुत किया, और अछूतों को उसमें शामिल करके कहा कि उनकी अलग निर्वाचिका हिंदू धर्म को तोड़ देगी। लेकिन डॉ. अंबेडकर के अनुसार, यह तो एक झूठी पहचान थोपने की साजिश थी।

अगर अछूतों को अलग पहचान मिल जाती, तो आज कोई भी अनुसूचित जाति का व्यक्ति हिंदू न कहलाता। और तब उनकी धार्मिक स्वतंत्रता और राजनीतिक पहचान दोनों ही मजबूत होतीं।

आज का सवाल: क्या हम वाकई अंबेडकर के मिशन के साथ हैं?

डॉ. अंबेडकर की सबसे बड़ी चिंता यह थी कि कहीं ऐसा न हो कि समय के साथ-साथ अछूत खुद को हिंदू मानने लगें उस पहचान को जो कभी उनकी थी ही नहीं। दुर्भाग्य से, आज का सच यही है। अनुसूचित जातियों के लोग आज ‘दलित हिंदू’, ‘बौद्ध दलित’, ‘सिख दलित’ जैसे मिश्रित पहचानें अपनाते हैं जो इतिहास और सच्चाई को धुंधला कर देती हैं।

यह पहचान न केवल भ्रम फैलाती है, बल्कि डॉ. अंबेडकर के उस ऐतिहासिक संघर्ष को भी मिटा देती है, जिसमें उन्होंने साबित किया था कि अछूत कभी हिंदू नहीं थे।

क्या यह पहचान का बलात्कारीकरण नहीं है?

जब किसी को उनकी मर्जी के खिलाफ कोई धर्म या पहचान थोप दी जाए, तो उसे जबरन पहचान परिवर्तन (forced identity conversion) कहा जाता है। और यही हुआ है अनुसूचित जातियों के साथ — उन्हें बिना उनकी सहमति के ‘हिंदू’ बना दिया गया।

इसलिए डॉ. अंबेडकर का यह कथन — “gandhi is the greatest enemy the untouchables ever had in India” — केवल एक व्यक्तिगत मतभेद नहीं था, बल्कि यह एक बहुत ही गहरे और लंबे सामाजिक धोखे की तरफ इशारा था।

क्या अब भी समय नहीं आया जागने का?

डॉ. अंबेडकर ने जिस संघर्ष की नींव रखी थी, क्या हम उसे समझ पा रहे हैं? क्या हम इस बात से वाकिफ हैं कि आरक्षण केवल जाति नहीं, बल्कि पेशेवर और सामाजिक बहिष्कार पर आधारित था? और क्या हम यह मानते हैं कि अगर हम खुद को आज भी हिंदू कहते हैं, तो हम उसी व्यवस्था का हिस्सा बन जाते हैं जिसने हमें कभी इंसान तक नहीं समझा?

डॉ. अंबेडकर ने पूना समझौते पर हस्ताक्षर करके अपने लोगों की जान बचाई थी, लेकिन आज अगर वे देख रहे होते कि उनके लोग उसी पहचान को गर्व से अपना रहे हैं जिससे वो आजीवन संघर्ष करते रहे — तो क्या उन्हें संतोष होता?

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