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आखिर कॉलेजियम सिस्टम पर सरकार और जजों के बीच बहस क्यों होती है? अंबेडकर ने इसे बताया था खतरनाक

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जजों की नियुक्ति के मुद्दे पर अक्सर सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम और केंद्र सरकार के बीच तनातनी रहती है। सरकार कॉलेजियम की हर सिफारिश को लागू नहीं करती है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे लेकर कई बार सरकार को चेतावनी भी जारी की है। लेकिन सरकार का कहना है कि संविधान के मुताबिक जजों की नियुक्ति करना उसका काम है। हालांकि, कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने इसे लेकर कहा था कि कॉलेजियम व्यवस्था संविधान के मुताबिक नहीं है। वहीं सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जजों ने सरकार के इस अशिष्ट रवैये पर नाराजगी जताई है कि केंद्र सरकार लंबे समय तक जजों के नामों पर फैसला नहीं लेती है। जस्टिस संजय किशन कौल ने भी इस मुद्दे पर बयान दिया था और कहा कि केंद्र के हस्तक्षेप से व्यवस्था खराब होती है। वहीं भारत के पूर्व अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल का मानना ​​है कि जजों की नियुक्ति का काम पूरी तरह सरकार का है। संविधान ने भी यह व्यवस्था की है। उन्होंने संविधान सभा का एक वाकया बताते हुए कहा कि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने सलाह दी थी कि जजों की नियुक्ति का काम भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) पर छोड़ देना चाहिए। लेकिन उन्होंने इस सुझाव को सिरे से खारिज कर दिया। इस लेख में हम ये जानने की कोशिश करेंगे कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति की संवैधानिक व्यवस्था क्या थी और डॉ. अंबेडकर ने इसे लेकर क्या कहा था।

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संविधान के मुताबिक जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया

संविधान के अनुच्छेद 124 (2) में सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया लिखी हुई है: ‘उच्चतम न्यायालय के और राज्यों के उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करने के पश्चात, जिनसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए परामर्श करना आवश्यक समझे, राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा…’ हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया अनुच्छेद 217 में है। इसमें भी यही कहा गया है कि राष्ट्रपति चीफ जस्टिस और गवर्नर के परामर्श से जजों को नियुक्त करेंगे।

1993 तक इन्हीं दो अनुच्छेदों के तहत सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति होती रही। 1993 में सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की बेंच ने बहुचर्चित दूसरे जजों के मामले में फैसला सुनाया कि अनुच्छेद 124 और 217 में परामर्श का मतलब सिर्फ चीफ जस्टिस से चर्चा करना नहीं है, बल्कि सहमति या मंजूरी लेना भी है। यानी राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की सहमति से ही जजों की नियुक्ति करेंगे। इस तरह जजों ने जजों की नियुक्ति का अधिकार अपने हाथ में ले लिया और राष्ट्रपति को उसके अधिकार से वंचित कर दिया। जजों के कॉलेजियम द्वारा की गई सिफारिशों को मानना ​​राष्ट्रपति के लिए अनिवार्य कर दिया गया है।

संविधान सभा में क्या हुआ था

23 और 24 मई 1949 को संविधान सभा में इस बात पर बहस हुई थी कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति कैसे होगी। अनुच्छेद 124 में (यह संविधान के मसौदे में 103वां अनुच्छेद था) बी पोकर साहब (मद्रास/मुस्लिम, *यह नाम संविधान सभा की कार्यवाही में इसी रूप में दर्ज है) ने दो संशोधन प्रस्तावित किए। पहला प्रस्ताव यह था कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए। दूसरा प्रस्ताव यह था कि राष्ट्रपति को जजों की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश की सहमति से करनी चाहिए, न कि सिर्फ़ उनसे सलाह-मशविरा करके। लेकिन इस संशोधन में जजों की स्वीकृति से जजों की नियुक्ति की व्यवस्था लाने की कोशिश की गई थी, जिसे संविधान सभा ने ध्वनिमत से खारिज कर दिया। 1950 के दशक में जवाहरलाल नेहरू के शासनकाल में ऐसा कई बार हुआ। तब सुप्रीम कोर्ट ने संविधान संशोधन करने वाले सरकार के कई फ़ैसलों को रद्द कर दिया था।

डॉ. अंबेडकर- सीजेआई में भी हो सकती है कमियां

संविधान निर्माण की बहस के दौरान संविधान सभा ने सिफारिश की थी कि भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) ही सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्त होने वाले एकमात्र व्यक्ति होंगे। लेकिन डॉ. भीमराव अंबेडकर इस दृष्टिकोण से असहमत थे और उन्होंने दावा किया कि सीजेआई केवल एक इंसान हैं। उनके पास भी अपने कौशल और कमियाँ हैं, जैसे हर किसी के पास होती हैं। एक व्यक्ति पूरी कानूनी व्यवस्था की देखरेख नहीं कर सकता। इससे नकारात्मक प्रभाव भी पड़ सकते हैं।

अंबेडकर ने कहा था, ‘मेरा मानना ​​है कि जजों की नियुक्ति में मुख्य न्यायाधीश को वीटो का अधिकार देने की बात हो रही है, जो हम राष्ट्रपति और सरकार को भी नहीं दे रहे हैं। यह एक खतरनाक व्यवस्था होगी।’

और पढ़ें: जब भरी महफिल में आमिर खान ने की डॉ अंबेडकर की तारीफ, तालियों से गूज़ उठा था पूरा ऑडिटोरियम 

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