Ambedkar and Christianity: “मैं एक अछूत हिंदू के रूप में पैदा हुआ था, लेकिन हिंदू के रूप में मरूंगा नहीं।” डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर की यह पंक्ति सिर्फ एक व्यक्तिगत घोषणा नहीं थी, बल्कि सदियों से जाति व्यवस्था से दबे समाज के लिए एक चेतावनी और उम्मीद दोनों थी। उन्होंने अपना पूरा जीवन जाति प्रथा को खत्म करने, सामाजिक बराबरी लाने और दलितों को सम्मान दिलाने में लगा दिया। 1956 में, अपनी मृत्यु से महज दो महीने पहले, उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया और अपने साथ लाखों लोगों को एक नए रास्ते पर ले गए।
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आपको जानकार हैरानी होगी कि आंबेडकर से दलित समाज का जुड़ाव इतना गहरा था कि उनके बौद्ध धर्म अपनाते ही करीब पांच लाख अनुयायियों ने भी वही राह चुनी। लेकिन यह फैसला अचानक नहीं लिया गया था। इसके पीछे वर्षों का वैचारिक संघर्ष, धार्मिक अध्ययन और समाज की हकीकत को समझने की लंबी प्रक्रिया थी। बहुत कम लोग जानते हैं कि बौद्ध धर्म अपनाने से पहले आंबेडकर ने ईसाई धर्म और बाइबिल को भी गंभीरता से पढ़ा, चर्च के नेताओं से संवाद किया और यहां तक कि कुछ मौकों पर ईसाई बनने पर भी विचार किया। लेकिन फिर भी, उन्होंने ईसाई धर्म को ठुकरा दिया और बौद्ध धर्म अपना लिया। लेकिन क्यों? आइए इसका जवाब जानते हैं।
बुद्ध और मसीह, दोनों से प्रभावित थे आंबेडकर (Ambedkar and Christianity)
अपको बता दें, 1938 में एक ईसाई सभा को संबोधित करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा था, “दो महान व्यक्तित्वों ने मेरे मन पर गहरा प्रभाव डाला है भगवान बुद्ध और यीशु मसीह।” उन्होंने साफ शब्दों में कहा था कि उन्हें ऐसा धर्म चाहिए जो समानता, भाईचारे और स्वतंत्रता की शिक्षा दे। यह बयान इस बात का संकेत था कि वे धर्म को सिर्फ आस्था नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव के औजार के रूप में देखते थे।
उनके एक करीबी मित्र, जो बाद में मेथोडिस्ट चर्च के बिशप बने, ने यह भी बताया कि आंबेडकर ने दो बार उनसे बपतिस्मा लेने की इच्छा जताई थी। जब वे दिल्ली में रहते थे, तब वे नियमित रूप से एक एंग्लिकन चर्च में जाते थे और वहां के पादरी से उनकी गहरी दोस्ती थी। यह सब दिखाता है कि ईसाई धर्म उनके लिए सिर्फ बाहरी रुचि नहीं था, बल्कि गंभीर विचार का विषय था।
चर्च से मोहभंग और बौद्ध धर्म की ओर झुकाव
हालांकि, यीशु मसीह के विचारों से प्रभावित होने के बावजूद, आंबेडकर को चर्च और उसके नेतृत्व से निराशा भी मिली। उन्हें लगा कि भारतीय चर्च दलितों की पीड़ा और जाति आधारित भेदभाव को लेकर आंखें मूंदे हुए है। यही कारण रहा कि अंततः वे ईसाई धर्म को दलित मुक्ति का रास्ता मानने से पीछे हट गए।
आज भी यह तस्वीर काफी हद तक वैसी ही दिखती है। जहां एक ओर कई दलितों ने हिंदू धर्म छोड़कर ईसाई धर्म अपनाया, वहीं उससे कहीं ज्यादा संख्या में लोगों ने बौद्ध धर्म का रास्ता चुना। इसी साल 14 अप्रैल को, आंबेडकर की 132वीं जयंती पर, करीब 50 हजार दलितों और आदिवासी समुदाय के लोगों ने एक सामूहिक बौद्ध धर्म परिवर्तन समारोह में हिस्सा लिया।
बौद्ध धर्म क्यों बना दलितों की पसंद?
बुद्ध का जन्म 564 ईसा पूर्व माना जाता है। उन्होंने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा उस सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष में बिताया, जिसे उस समय चातुर्वर्ण कहा जाता था और जो आगे चलकर जाति व्यवस्था में बदल गई। बुद्ध ने जन्म के आधार पर ऊंच-नीच तय करने की सोच को सिरे से खारिज किया। उनके उपदेशों का मूल संदेश यही था कि हर इंसान बराबर है और उसकी कीमत उसके कर्म और आचरण से तय होती है, न कि जाति से।
यही बात आंबेडकर को सबसे ज्यादा आकर्षित करती थी। वे मानते थे कि बौद्ध धर्म में नैतिकता केंद्र में है, न कि ईश्वर की अवधारणा। उन्होंने अपने लेखों में लिखा कि जहां दूसरे धर्मों में भगवान सर्वोपरि है, वहीं बुद्ध ने इंसान को खुद सोचने, सवाल करने और अनुभव के आधार पर निर्णय लेने की आज़ादी दी।
आंबेडकर ने बुद्ध की तुलना यीशु, मोहम्मद और कृष्ण से भी की थी। उन्होंने लिखा कि यीशु ने खुद को ईश्वर का पुत्र बताया, मोहम्मद ने अंतिम पैगंबर होने की बात कही और कृष्ण ने स्वयं को परमेश्वर घोषित किया। लेकिन बुद्ध एक साधारण इंसान थे, जिन्होंने साधारण इंसान की तरह जीकर समाज को नई दिशा दी।
‘बुद्ध और भविष्य का धर्म’ में छिपा आंबेडकर का विज़न
1950 में लिखे अपने निबंध “बुद्ध और भविष्य का धर्म” में आंबेडकर ने साफ कहा था कि समाज को चलाने के लिए नैतिकता जरूरी है, धर्म को विज्ञान से टकराना नहीं चाहिए और उसे स्वतंत्रता, समानता व भाईचारे जैसे मूल्यों को मान्यता देनी चाहिए। उनके मुताबिक, कोई भी धर्म गरीबी को पवित्र या महान नहीं बना सकता।
उन्होंने लिखा था कि उनकी जानकारी में केवल बौद्ध धर्म ही इन सभी कसौटियों पर खरा उतरता है। आंबेडकर का मानना था कि बुद्ध का धर्म सामाजिक, बौद्धिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता की बात करता है। उन्होंने पुरुष और महिला के बीच भी समानता पर जोर दिया, जो उस दौर के लिहाज से बेहद आधुनिक सोच थी।
बौद्ध धर्म और सांस्कृतिक जड़ें
दलितों के लिए बौद्ध धर्म अपनाने का एक बड़ा कारण यह भी था कि यह भारत में ही जन्मा धर्म है। हिंदू धर्म छोड़ने के बावजूद वे अपनी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक जड़ों से पूरी तरह कटे नहीं। इसके उलट, ईसाई धर्म को अक्सर विदेशी माना जाता रहा है, भले ही वह पहली सदी में भारत आ चुका हो।
हालांकि बौद्ध धर्म की राजनीतिक मौजूदगी ऐतिहासिक रूप से मजबूत नहीं रही, लेकिन आंबेडकर के नेतृत्व में उभरे नव-बौद्ध आंदोलन ने दलित अधिकारों की लड़ाई को नई ऊर्जा दी और उन्हें एक नई पहचान दी।
फिर ईसाई धर्म क्यों नहीं?
जाति और छुआछूत के खिलाफ संघर्ष के दौरान एक समय ऐसा भी आया जब आंबेडकर ने दलितों को ईसाई धर्म अपनाने की सलाह देने पर विचार किया। उनका मानना था कि हिंदू समाज से मुकाबला करने के लिए दलितों को बाहर से ताकत जुटानी होगी और वह किसी अन्य धार्मिक समुदाय में शामिल होकर ही संभव है।
लेकिन उन्होंने जल्द ही महसूस किया कि भारत में ईसाई समाज भी जाति से पूरी तरह मुक्त नहीं है। दलित अगर ईसाई बन भी जाते, तो उनकी सामाजिक हैसियत में बहुत बड़ा फर्क नहीं पड़ता। उन्हें अब भी अछूत की नजर से देखा जाता।
खुद आंबेडकर को भी इसका व्यक्तिगत अनुभव हुआ। 1918 में पश्चिम से पढ़ाई करके लौटने के बाद जब वे बड़ौदा गए, तो उन्हें रहने के लिए जगह नहीं मिली। एक पारसी होटल से भी उन्हें बाहर निकाल दिया गया। एक ईसाई मित्र से मदद मांगी, लेकिन उसकी पत्नी ने, जो पहले ब्राह्मण परिवार से थीं, एक अछूत को घर में रखने से इनकार कर दिया। इस अनुभव ने आंबेडकर को गहरे स्तर पर झकझोर दिया।
मिशनरियों पर आंबेडकर की तीखी टिप्पणी
आंबेडकर बाइबिल के गंभीर विद्यार्थी थे और उनके पास धार्मिक पुस्तकों का बड़ा संग्रह था। इसके बावजूद उन्होंने 1938 के एक भाषण में ईसाई मिशनरियों की कड़ी आलोचना की। उन्होंने कहा कि मिशनरी यह मान लेते हैं कि दलित को ईसाई बना देना ही उनका कर्तव्य है, जबकि वे उसके राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों की चिंता नहीं करते।
उन्होंने लिखा कि ईसाई बनने के बाद भी दलित वही भेदभाव झेलता है, जो पहले झेलता था। फर्क सिर्फ इतना होता है कि अब वह चर्च के भीतर भी अकेला पड़ जाता है।
राजनीति से दूरी पर सवाल
आंबेडकर का मानना था कि भारतीय ईसाई समुदाय ने खुद को राजनीति से अलग कर लिया, जिससे वे अपने ही लोगों के साथ हो रहे अन्याय को रोकने में असमर्थ रहे। उन्होंने कहा कि दलित, जिन्हें अनपढ़ कहा जाता था, वे भी राजनीति में आगे आए और विधानसभा में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई। लेकिन ईसाई समुदाय ऐसा नहीं कर पाया।
उनके अनुसार, इसका बड़ा कारण यह था कि शिक्षित और ऊंची जाति के ईसाई आगे आकर दलित ईसाइयों के लिए आंदोलन खड़ा नहीं कर पाए।
आज भी गूंजती आंबेडकर की चेतावनी
आज भी दलित ईसाइयों को आरक्षण जैसे संवैधानिक अधिकार नहीं मिल पाए हैं और चर्च के भीतर जाति की दीवारें पूरी तरह नहीं टूटी हैं। ऐसे में आंबेडकर की बातें आज भी उतनी ही प्रासंगिक लगती हैं। बाइबिल साफ कहती है कि ईश्वर ने सभी इंसानों को अपनी छवि में बनाया है। लेकिन सवाल यह है कि क्या भारतीय चर्च इस संदेश को समाज में उतार पाया है?
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