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Sikhism in Odisha: जगन्नाथ की धरती पर गुरु नानक की विरासत, ओडिशा में सिख समुदाय की अनकही कहानी

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Sikhism in Odisha: भारत में सिख समुदाय की पहचान आमतौर पर पंजाब से जोड़कर देखी जाती है, लेकिन देश के पूर्वी हिस्सों, खासकर ओडिशा में सिखों की मौजूदगी का इतिहास उतना ही पुराना, जटिल और दिलचस्प है। यह कहानी केवल धार्मिक प्रवास की नहीं है, बल्कि राजनीति, औपनिवेशिक शासन, व्यापार, औद्योगीकरण और सामाजिक संघर्षों से जुड़ी हुई है। 1980 के दशक के पंजाब संकट ने भले ही पश्चिमी देशों में सिख राजनीति और पहचान को तेज़ी से उभारा हो, लेकिन इसके बीज इससे कई दशक पहले, 1970 के दशक के अंत और उससे भी पहले बोए जा चुके थे।

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आज के दौर की बात करें तो, 2011 की जनगणना के अनुसार, यहां सिखों की संख्या केवल 21,991 थी, जिसमें लगभग आधे पुरुष और बाकी महिलाएँ हैं। संख्या कम है, लेकिन कहानी बड़ी और दिलचस्प है। आईए जानते हैं ऑडिश में बसे सिखों की इस रोचक कहानी के बारे में।

कौन हैं ‘पंजाबी-सिख’ और क्यों उन्हें एकसमान मानना गलत है (Sikhism in Odisha)

ओडिशा और भारत के अन्य हिस्सों में बसे जिन सिखों की बात हो रही है, उन्हें आमतौर पर ‘पंजाबी-सिख’ कहा जाता है। ये वे सिख हैं जो मूल रूप से भारतीय पंजाब से जुड़े रहे हैं या जिनकी जड़ें पंजाब में हैं। ये लोग पंजाबी भाषा बोलते हैं, गुरुमुखी लिपि में लिखते हैं, पाँच ककारों का पालन करते हैं और पंजाब को अपनी सांस्कृतिक मातृभूमि मानते हैं।

लेकिन इन्हें एक पूरी तरह एकसमान समुदाय मान लेना बड़ी भूल होगी। इनके भीतर जाति, पेशा, धार्मिक आचरण और राजनीतिक सोच को लेकर स्पष्ट भिन्नताएँ रही हैं। कुछ सिख पूरी तरह खालसा परंपरा में रमे हुए हैं, तो कुछ ऐसे भी रहे हैं जिन्हें इतिहास में सहजधारी या नानकपंथी कहा गया।

ओडिशा और सिखों का पुराना रिश्ता: तीर्थ, व्यापार और संवाद

ओडिशा के पुरी शहर का सिख इतिहास से एक गहरा संबंध रहा है। पुरी न सिर्फ जगन्नाथ मंदिर के कारण प्रसिद्ध रहा है, बल्कि उत्तर भारत से आने वाले यात्रियों का भी बड़ा केंद्र रहा है। यहां कलियुग पांडा के पास सुरक्षित पुराने रिकॉर्ड बताते हैं कि पंजाब के अलग-अलग जिलों जैसे लुधियाना, जालंधर, अमृतसर, होशियारपुर से लेकर लाहौर, सियालकोट, पेशावर और हज़ारा तक से सिख तीर्थयात्री पुरी आते रहे।

इन रिकॉर्ड्स में यात्रियों के नाम, गांव, जिला, जाति और यात्रा का समय तक दर्ज है। यह दिखाता है कि सिखों और ओडिशा के बीच संपर्क कोई नया या आकस्मिक नहीं था, बल्कि सदियों पुराना था।

गुरु नानक का ओडिशा आगमन

लेकिन कहानी शुरू होती है गुरु नानक देव जी (1469-1539) से। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने पश्चिम बंगाल से ओडिशा के बालासोर जिले में प्रवेश किया और नीलगिरी और बिरंचीपुर तक आए। यहाँ उन्होंने पंचुलिंगेश्वर मंदिर में बैठकर भैया मर्दाना के रबाब की धुन पर शबद का पाठ किया।

इतना ही नहीं, इतिहास में कहा जाता है कि गुरु नानक देव जी और चैतन्य महाप्रभु की मुलाकात भी पुरी में हुई थी। इसे 17वीं सदी के चैतन्य भागवत में दर्ज किया गया है। लेकिन आज भी कई लोग इसे गलत तरीके से पेश करते हैं, ताकि सिख धर्म की महत्ता को कम दिखाया जा सके।

पुरी और धार्मिक संगम

ये तो हम सब जानते ही हैं कि पुरी का तट हमेशा से तीर्थस्थल रहा है। अंटवरमन चोदगंगा के शासनकाल में यह क्षेत्र लंबे समय तक सुरक्षित रहा, जिससे दूर-दूर से लोग यहाँ आए। इनमें कुछ नानकपंथी और उदासी सिख भी थे। उनका यहाँ आना केवल धार्मिक यात्रा नहीं थी, बल्कि व्यापार और सामाजिक नेटवर्क का हिस्सा भी था।

ब्रिटिश शासन के दौरान 1803 में पुरी के राजा को मंदिर के प्रबंधन का अधिकार मिला। उन्होंने पारंपरिक धार्मिक गतिविधियाँ जारी रखीं और विभिन्न गढ़जत शासकों के मंदिर दर्शन के नियम बनाए। इस व्यवस्था ने सिख तीर्थयात्रियों के लिए भी एक सुरक्षित और सम्मानजनक जगह सुनिश्चित की।

नानकपंथी, सहजधारी और राम भक्ति की झलक

वहीं, ओडिशा में आए शुरुआती सिखों में बड़ी संख्या उन लोगों की थी जो खत्री जाति से जुड़े सहजधारी सिख थे। वे खुद को शुरुआती गुरुओं का शिष्य मानते थे और व्यापार से जुड़े थे। दिलचस्प बात यह है कि कुछ ओड़िया ग्रंथों और परंपराओं में इन्हें नानकपंथी फकीरों के रूप में याद किया गया है, जो निर्गुण ईश्वर की महिमा गाते थे।

वहीं कटक की परंपराओं में सगुण राम की भक्ति का ज़िक्र भी मिलता है। यह दिखाता है कि स्थानीय धार्मिक संस्कृति और सिख परंपराओं के बीच संवाद और आपसी असर मौजूद था।

ओडिशा में गुरुद्वारों की शुरुआत

ओडिशा के गढ़जत राज्यों जैसे जेयपोर, गढ़पोश और भवानीपतना में सिखों ने गुरुद्वारों की नींव रखी। 1883 में जेयपोर के महाराजा बिक्रम देव की अनुमति से पहला गुरुद्वारा बनाया गया। यह छोटा सा कमरे वाला ढांचा था, जिसमें गुरु ग्रंथ साहिब को रखा गया।

सिख समुदाय का एक बड़ा हिस्सा रामगढ़िया जाति का था, जो कारीगर और निर्माण कार्य में माहिर थे। ये लोग दूरदराज़ इलाकों में बस गए और धीरे-धीरे व्यापार और धर्म दोनों में अपनी पहचान बनाई। भवानीपतना में 1931 में अस्थायी गुरुद्वारा स्थापित किया गया, जिसे 1947 में गांधी चौक में स्थानांतरित किया गया।

उद्योग, रेल और रामगढ़िया सिख

उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी में जब रेलवे और उद्योगों का विस्तार हुआ, तब पंजाब के रामगढ़िया सिखों की भूमिका अहम रही। उनकी पारंपरिक तकनीकी और कारीगरी की विरासत रेलवे लाइनों, कारखानों और बाद में स्टील प्लांट्स के निर्माण में काम आई।

राउरकेला स्टील प्लांट, हीराकुंड, तालचर, पारादीप जैसे औद्योगिक क्षेत्रों में सिखों की संख्या तेज़ी से बढ़ी। सिर्फ सुंदरगढ़ ज़िले में 1951 से 1971 के बीच सिख आबादी में करीब 170 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई।

कॉलोनियाँ, गुरुद्वारे और सामूहिक जीवन

इतना ही नहीं, ओडिशा के कई शहरों में आज भी ‘पंजाबी कॉलोनी’ या ‘पंजाबी पाड़ा’ जैसे नाम मिलते हैं। भुवनेश्वर का सत्य नगर, भवानिपटना का बहादुर बगीचा, संबलपुर की कॉन्ट्रैक्टर्स कॉलोनी ये सभी सिख बसावट के उदाहरण हैं। 1984 के बाद के अनुभवों ने भी सिखों को एक-दूसरे के पास बसने के लिए प्रेरित किया।

बिरंचीपुर: सिखों का दिल

वहीं, गंजाम जिले का छोटा सा गाँव बिरंचीपुर, सिखों का एक प्रमुख केंद्र है। यहाँ लगभग 40 परिवार रहते हैं, जो गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का पालन करते हैं। 1919 में यहाँ का गुरुद्वारा बना, जिसमें गुरु ग्रंथ साहिब लोहे के पेडस्टल पर रखा गया है।

गुरुद्वारा का माहौल बहुत शांत और सकारात्मक है। पूजा का काम स्थानीय किसान भास्कर चंद्र साहू संभालते हैं। दीवारों पर गुरु नानक के संदेश “सच्चे भगवान के नाम में” लिखे हैं। हर पूर्णिमा और गुरु पूर्णिमा पर लंगर आयोजित किया जाता है, और प्रसाद में पंजाब की मिठास का स्वाद बनाए रखा जाता है।

भद्रक और पुरी से संबंध

अपको बता दें, ओडिशा में कुछ सिख भद्रक जिले में भी बसे हैं। माना जाता है कि बिरंचीपुर के सिख कभी भद्रक समूह का हिस्सा थे। विभाजन से पहले नानकपंथी अक्सर पुरी आते थे और रथयात्रा में शामिल होते थे। विभाजन के बाद उनकी संख्या कम हो गई, लेकिन उनकी मौजूदगी का असर अब भी महसूस किया जा सकता है।

ओडिशा सिख प्रतिनिधि बोर्ड और अंदरूनी राजनीति

इसी बीच, ओडिशा में सिखों की सामूहिक आवाज़ के लिए सिख प्रतिनिधि बोर्ड (OSPB) का गठन हुआ। इसका उद्देश्य था कि इसके फैसले पूरे राज्य के सिखों पर लागू हों। लेकिन समय के साथ बोर्ड की संरचना, ज़ोन विभाजन और नेतृत्व को लेकर विवाद भी उभरे।

कुछ ज़ोन को असमान महत्व दिए जाने और आंकड़ों में ग़लतियों को लेकर समुदाय के भीतर असंतोष पनपा। फिर भी, संतोक सिंह के बाद से नेतृत्व में संतुलन बनाए रखने की कोशिशें जारी रहीं।

पुरी, गुरु ग्रंथ साहिब और स्मृति

आपको जानकर हैरानी होगी कि सिख परंपरा में पुरी का विशेष महत्व है। माना जाता है कि भाई हिम्मत सिंह, जो पाँच प्यारों में से एक थे, का जन्म पुरी में हुआ था। 1699 में खालसा की स्थापना और 1708 में गुरु ग्रंथ साहिब को शाश्वत गुरु घोषित किए जाने की परंपरा आज भी सिख पहचान की रीढ़ है।

एक अधूरी लेकिन ज़रूरी कहानी

ओडिशा में सिखों का इतिहास सिर्फ प्रवास या बसावट की कहानी नहीं है। यह धार्मिक संवाद, औपनिवेशिक राजनीति, औद्योगिक विकास और सामुदायिक संघर्षों का साझा दस्तावेज़ है। यह कहानी बताती है कि सिख पहचान कैसे समय, जगह और हालात के साथ बदलती रही, लेकिन अपनी मूल चेतना को बचाए रखी।

आज जब सिख इतिहास को अक्सर केवल पंजाब या विदेशों तक सीमित कर दिया जाता है, तब ओडिशा जैसे क्षेत्रों की यह अनकही दास्तान हमें भारतीय समाज की बहुलता और आपसी जुड़ाव को नए सिरे से समझने का मौका देती है।

और पढ़ें: Sikhism in Estonia: एस्टोनिया में सिख धर्म का सफर, छोटी कम्युनिटी, अनोखा गुरुद्वारा… जानें कैसे इस देश में पंजाब की धुन बसी?

Nandani

nandani@nedricknews.com

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