Ambedkar vs Right-wing politics: बाबासाहेब की विरासत पर सवाल, कैसे दक्षिणपंथी राजनीति बदल रही है आंबेडकरवाद की छवि

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Ambedkar vs Right-wing politics: जैसे-जैसे भारत अपनी राजनीतिक धुरी पर नाटकीय रूप से घूम रहा है, देश की सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना में तेजी से बदलाव नजर आ रहे हैं। एक ओर, यह परिवर्तन राष्ट्रवादी और हिंदू वर्चस्ववादी एजेंडों के साथ जुड़ा है, वहीं दूसरी ओर, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की विरासत धीरे-धीरे खतरे में दिखाई दे रही है। गांधी की तरह अपेक्षाकृत आसानी से सार्वजनिक स्मृति में जगह बनाने के बाद, आंबेडकर की विचारधारा एक चुनौती के रूप में सामने आती है।

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आज के संदर्भ में, भाजपा के नेता और मंत्री सार्वजनिक रूप से डॉ. आंबेडकर को सम्मानित करते दिखते हैं। वहीं सोशल मीडिया और व्हाट्सएप फॉरवर्ड्स पर उनके नाम से भ्रामक उद्धरण और कट्टर दक्षिणपंथी संदेश फैलाए जा रहे हैं। मीडिया अक्सर उन्हें केवल संविधानदाता और ‘सौम्य दलित नेता’ के रूप में प्रस्तुत करता है, जबकि उनके असली दृष्टिकोण हिंदू वर्चस्ववाद और जाति व्यवस्था के खिलाफ उनका प्रतिरोध लगभग नजरअंदाज कर दिया गया है।

महाराष्ट्र में दलित आंदोलन और अंबेडकर का उदय (Ambedkar vs Right-wing politics)

1900 के दशक की शुरुआत में महाराष्ट्र का औद्योगिक क्षेत्र एक नई सामाजिक संरचना का जन्म दे रहा था। बॉम्बे की मिलों में लगभग 1.5 लाख मज़दूर काम करते थे और उनमें लगभग 10% महार समुदाय से थे। बावजूद इसके, महारों को अच्छी मजदूरी वाले काम नहीं मिलते थे। बुनाई जैसे कामों से उन्हें अलग रखा जाता था क्योंकि “टूटा हुआ धागा मुँह से जोड़ना पड़ता है” और जातिगत पूर्वाग्रहों के चलते उन्हें ‘अशुद्ध’ माना जाता था।

दिहाड़ी मज़दूरी, सफाई, कोयला, रेलवे और गोदी जैसे कठिन कामों में महारों की बड़ी उपस्थिति थी, लेकिन उनका शोषण जारी था। यही सामाजिक और आर्थिक हालात दलितों को इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए मजबूर कर रहे थे विशेषकर उन सुधारकों के आध्यात्मिक वादों से, जो सिर्फ “हिंदू एकता” की बात करते थे लेकिन जाति पर सवाल नहीं उठाते थे। इसी समय डॉ. आंबेडकर ने राजनीतिक मैदान में प्रवेश किया।

प्रारंभिक प्रयास और प्रतिरोध

आंबेडकर से पहले भी दलितों को संगठित करने के कुछ प्रयास हुए थे। गोपाल बाबा वलंगकर और शिवराम जनबा कांबले ने सेना में महारों की भर्ती के लिए याचिकाएँ दायर की थीं। वहीं, विट्ठल रामजी शिंदे जैसे राष्ट्रवादी मराठाओं ने ‘डिप्रेस्ड क्लासेस मिशन’ के माध्यम से दलितों का उत्थान करने का प्रयास किया। लेकिन व्यवहार में यह दलितों को हिंदू महासभा या कांग्रेस के व्यापक हिंदू-एकीकरणवादी एजेंडों में शामिल करने की कोशिश थी।

शिंदे के प्रभाव में आए प्रारंभिक दलित नेता किसन फागुजी बनसोडे और अक्काजी गवई थे। इन नेताओं ने शिक्षा और सामाजिक सुधार के क्षेत्र में काम किया, लेकिन बाद में राजनीतिक और धार्मिक विचारों में शिंदे के हिंदू-एकीकरणवादी एजेंडे को अपनाया। डॉ. आंबेडकर ने हालांकि उनसे दूरी बनाए रखी और नागपुर में अपने समर्थन का केंद्र विकसित किया।

1920 में, अखिल भारतीय बहिष्कृत परिषद में डॉ. आंबेडकर ने शिंदे और गवई के ‘डिप्रेस्ड क्लासेस मिशन’ के हिंदू पुनरुत्थानवादी एजेंडे की तीखी निंदा की। यह घटना उनके नेतृत्व के उदय और दलित आंदोलन के स्वतंत्र होने की दिशा में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई।

आंबेडकर की राजनीति: हिंदू दक्षिणपंथ के लिए सबसे बड़ी बाधा

आंबेडकर कभी भी हिंदू दक्षिणपंथ या उदार ब्राह्मण सभ्यताओं के दोस्त नहीं थे। 1920 में ही उन्होंने साफ़ कहा कि: “अस्पृश्यता को दूर करने के लिए उच्च जातियों की विधायिका कभी कानून नहीं बनाएगी… वे कर सकते हैं, लेकिन वे करेंगे नहीं।” उनकी सोच उन्हें चुनावी प्रतिनिधित्व जैसे सांकेतिक उपायों से आगे ले गई। वे अलग निर्वाचिकाओं के समर्थन में खड़े हुए, जिससे गांधी से टकराव हुआ और अंततः पूना पैक्ट हुआ।

गांधी और आंबेडकर का टकराव सिर्फ राजनीतिक नहीं था यह दो विचारों का टकराव था।
गांधी जाति व्यवस्था के मूल ढांचे को बचाना चाहते थे, जबकि आंबेडकर उसे पूरी तरह खत्म करना चाहते थे। आंबेडकर बार-बार ‘हिंदू राज’ को खतरा बताते थे और हिंदू समाज को समानता और स्वतंत्रता का दुश्मन मानते थे।

कश्मीर और पाकिस्तान पर आंबेडकर की स्पष्ट दार्शनिक दृष्टि

1940 के दशक में उनकी किताब “Pakistan: Or The Partition of India” आज भी उस दौर की राजनीति का सबसे सटीक विश्लेषण मानी जाती है। उन्होंने बताया कि राष्ट्रवाद की शक्तियों को भावनाओं के आधार पर संभाला नहीं जा सकता। कश्मीर पर भी उनका दृष्टिकोण आज के हिंदू दक्षिणपंथी आख्यान से बिल्कुल अलग था। उनके विचारों को चुनिंदा उद्धरणों से तोड़ा-मरोड़ा गया है, जबकि वे न तो पाकिस्तान समर्थक थे, न ही हिंदू राष्ट्र के सहयोगी।

दक्षिणपंथ और दलित आंदोलन

हिंदू दक्षिणपंथी संगठन जैसे आरएसएस ने 1970 के दशक के बाद से दलित आंदोलन को अपने पक्ष में जोड़ने की कोशिश की। हालांकि, डॉ. आंबेडकर ने कभी स्वीकार नहीं किया कि बौद्ध धर्म हिंदू धर्म का एक संप्रदाय मात्र है। उनके व्यक्तित्व और विचारधारा को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया, और सोशल मीडिया तथा अन्य प्रचार माध्यमों में उन्हें मुस्लिम-विरोधी और उग्र राष्ट्रवादी के रूप में दिखाने की कोशिश की गई।

लेकिन वास्तविकता यह है कि आंबेडकर का आंदोलन अब भी जीवित है। एनआरसी-सीएए विरोधी प्रदर्शनों और अन्य सामाजिक आंदोलनों में उनकी तस्वीरें और विचार लगातार प्रकट होते रहे। सोशल मीडिया पर अध्ययन मंडलियाँ, चर्चा समूह और हास्य पेज उनकी विरासत को जीवित रख रहे हैं।

डॉ. आंबेडकर की विरासत केवल संविधान बनाने तक सीमित नहीं थी। यह दलित समाज को संगठित करने, जातिवादी वर्चस्व का विरोध करने और सामाजिक न्याय स्थापित करने की एक व्यापक लड़ाई थी। आज, हिंदू दक्षिणपंथ की राजनीतिक रणनीतियाँ उनकी छवि को कमजोर करने या अपने एजेंडे में शामिल करने की कोशिश कर रही हैं।

और पढ़ें: Caste discrimination in cities: शहरी हवा में भी जातिवाद जिंदा है — बस वो अब अंग्रेज़ी बोलता है

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