‘दलितों का होना चाहिए अपना मीडिया’, बाबा साहेब ने ऐसा क्यों कहा था?

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Ambedkar on Indian Media – आज के समय में मेनस्ट्रीम मीडिया को गोदी मीडिया का तमगा मिला हुआ है. टीवी पर जमीनी मुद्दे नहीं दिखते, हकीकत नहीं दिखाई जाती…वंचित और शोषित जनता को टीवी स्क्रीन से भी वंचित रखा जाता है. बहुजनों की तो बात ही नहीं होती, उनके साथ हो रहे भेदभाव और शोषण की घटनाओं को जानबूझकर टीवी पर नहीं दिखाया जाता. अब आप इसे षड्यंत्र कहिए या कुछ और…लेकिन हकीकत यही है. अगर आपको लग रहा है कि ये स्थिति 2014 के बाद बनी है तो आप गलत हैं. मीडिया की इतनी बेकार स्थिति बाबा साहेब से भी पहले से है और खुद डॉ अंबेडकर ने मीडिया के कुकृत्यों पर सवाल उठाए थे.

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किसी ने बहुत ही सटीक बात कही थी कि अगर जनता को अपने वश में करना हो तो टीवी और समाचार पत्रों से जनता को ही गायब कर दो. जनता अगर टीवी पर जनता के दुख दर्द को नहीं देखेगी तो उसे अन्य लोगों की परेशानियों से कोई संवेदना नहीं होगी…नतीजा यह होगा कि धीरे धीरे संवेदना मरती जाएगी और इंसान, शासन का मानसिक गुलाम बन जाएगा. भारतीय मीडिया काफी लंबे समय से यही टैक्टिक्स अपनाते आई है और वंचितों को हर जगह वंचित ही रखा है. आजादी से पहले स्थिति ऐसी थी कि पूरे प्रेस पर मनुवादियों का नियंत्रण था. दलित समुदाय के लोगों के अपने अधिकार ही सुरक्षित नहीं थे, ऐसे में उन मीडिया घरानों के खिलाफ लड़ाई लड़ना भी आसान नहीं था. अछूतों को प्रेस स्थापित करने की आजादी नहीं थी. ऐसा माना जाता है कि लगभग सारे मीडिया हाउस मद्रासी ब्राह्मणों से भरे पड़े थे.
कई मीडिया हाउस पर अंग्रेजों का सीधा प्रभाव था..तो वही कई मीडिया हाउस ऐसे थे जिनपर कांग्रेस का नियंत्रण था. अखबारों को चलाने में विज्ञापन की भूमिका काफी अहम होती है. ऐसे में विज्ञापन दाताओं ने जैसा कहा मीडिया ने वही चलाया…कांग्रेस ने भी जमकर नीची जाति के लोगों को ठगा और उन्हें अपना सगा बताया..जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल अलग थी.

अछूतों के लिए नहीं भारतीय मीडिया

इसे लेकर बाबा साहेब ने अपनी किताब ‘लेखन और भाषण’ में लिखा था कि विदेश के लोग विश्वास करते हैं कि कांग्रेस ही एक मात्र संस्था है, जो भारत का प्रतिनिधित्व करती है. अछूतों का प्रतिनिधित्व भी कांग्रेस ही करती है लेकिन अछूतों के पास कोई साधन नहीं है…जिससे वो कांग्रेस के मुकाबले में अपना दावा जता सके. अछूतों के पास अपना प्रेस नहीं है, कांग्रेस का प्रेस उनके लिए बंद है. ध्यान देने वाली बात है कि भारत को तब आजादी नहीं मिली थी लेकिन आजादी से पहले प्रेस की स्वतंत्रता कांग्रेस के मुठ्ठी में थी. वे उसे अपने हिसाब से चलाते थे.

बाबा साहेब की आंखों के सामने ये सब हो रहा था. हालात बिगड़ते जा रहे थे. दलितों की स्थिति और ज्यादास दयनीय हो चली थी. तत्कालीन मीडिया के रवैये को लेकर बाबा साहेब ने कहा था, “यह निराशाजनक है कि इस कार्य (समाचार–पत्र) के लिए हमारे पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं. हमारे पास पैसा नहीं है, हमारे पास समाचार–पत्र नहीं है. पूरे भारत में प्रतिदिन हमारे लोग अधिनायकवादी लोगों के बेहरहमी और भेदभाव का शिकार होते हैं लेकिन इन सारी बातों को कोई अखबार जगह नहीं देते हैं. एक सुनियोजित षडयंत्र के तहत तमाम तरीकों से सामाजिक–राजनीतिक मसलों पर हमारे विचारों को रोकने में शामिल हैं.

बाबा साहेब ने कहा ‘वंचितों का होना चाहिए अपना मीडिया’

हालांकि कैसे भी करके बाबा साहेब ने दलितों के मुद्दों को प्रमुखता से सामने लाने के लिए अखबार और पत्रिकाओं के संपादन का काम शुरु किया. उन्होंने लिखा,“बहिष्कृत लोगों पर आज हो रहे और भविष्य में होने वाले अन्याय पर योजनाबद्ध तरीके से विचार करना होगा. उसी के साथ भावी प्रगति तथा उसे प्राप्त करने के रास्ते की सच्ची जानकारी के संबंध में भी चर्चा करनी होगी. चर्चा करने के लिए समाचार–पत्र जैसी दूसरी जगह नहीं है.” इसी कड़ी में 31 जनवरी को 1920 को बाबा साहेब ने एक साप्ताहिक अखबार शुरु किया मूकनायक. उस समय बाबा साहेब की उम्र मात्र 29 साल थी. ‘मूकनायक’ का पहला अंक 31 जनवरी 1920 को निकला, जबकि अंतिम अखबार ‘प्रबुद्ध भारत’ का पहला अंक 4 फरवरी, 1956 को प्रकाशित हुआ. इसके बीच में ‘बहिष्कृत भारत’ का पहला अंक 3 अप्रैल 1927 को, ‘समता’ का पहला अंक 29 जून 1928 और ‘जनता’ का पहला 24 नवंबर 1930 को प्रकाशित हुआ था.

बाबा साहेब ने इन अखबार और पत्रिकारों के जरिए दलितों के जीवन में रोशनी भरने, उनकी परेशानियों को जनता के सामने लाने का काम किया. मनुवादी मीडिया के रवैये पर रोष व्यक्त करते हुए उन्हें अपनी कलम से टक्कर दी और उन्हें उनकी औकात भी दिखाई.

और पढ़ें: अपने ‘लेखनी’ को तलवार बनाकर मनुवादी मानसिकता को झकझोरने वाली लेखिका के संघर्ष की कहानी

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