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Hema Committee Report: जानें इस रिपोर्ट में ऐसा क्या है जिसने मलयालम फिल्म इंडस्ट्री में हलचल मचा दी है?

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Hema Committee Report
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पिछले कुछ सालों में मलयालम इंडस्ट्री में कई चौंकाने वाले खुलासे हुए हैं, जिससे इस इंडस्ट्री की गरिमा को ठेस पहुंची है। कुछ दिनों पहले मलयालम एक्ट्रेस मीनू मुनीर ने इंडस्ट्री के बड़े एक्टर्स और फिल्म प्रोड्यूसर्स पर गंभीर आरोप लगाकर सनसनी मचा दी थी। अब हेमा कमेटी (Hema Committee) की रिपोर्ट ने मलयालम फिल्म इंडस्ट्री में नई हलचल मचा दी है। इस रिपोर्ट में हुए खुलासे ने महिलाओं के खिलाफ शोषण और असमानता की हकीकत को उजागर किया है, जिसके चलते इंडस्ट्री के कई बड़े नाम निशाने पर हैं।

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हेमा कमेटी क्या है?

केरल सरकार ने 2017 में हेमा समिति की स्थापना की। केरल उच्च न्यायालय की सेवानिवृत्त न्यायाधीश हेमा समिति की अध्यक्ष थीं। इसका मुख्य उद्देश्य महिलाओं को कार्यस्थल पर होने वाले उत्पीड़न और मलयालम फिल्म उद्योग में उनकी सुरक्षा की जांच करना था। समिति की स्थापना 14 फरवरी, 2017 को एक विशेष घटना के जवाब में की गई थी, जिसमें एक प्रसिद्ध मलयालम अभिनेत्री का अपहरण कर लिया गया था और उसके साथ यौन उत्पीड़न किया गया था। इस घटना के बाद फिल्म उद्योग में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर गंभीर चिंताएँ व्यक्त की गईं।

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रिपोर्ट में क्या खुलासा हुआ?

हेमा समिति ने 2019 में अपनी रिपोर्ट केरल सरकार को सौंप दी थी, लेकिन इसे सार्वजनिक नहीं किया गया। 2024 में इसे आरटीआई के ज़रिए जारी किया गया, जिसमें कई चौंकाने वाली बातें सामने आईं:

– यौन उत्पीड़न के मामले

रिपोर्ट से पता चला है कि फिल्म इंडस्ट्री में यौन उत्पीड़न और कास्टिंग काउच की घटनाएं आम हैं। कई महिला कलाकारों ने बताया कि उन्हें फिल्मों में काम के बदले अनैतिक मांगों का सामना करना पड़ा।

– पुरुष वर्चस्व वाला समूह

रिपोर्ट में कहा गया है कि इंडस्ट्री में एक पुरुष प्रधान समूह है, जिसमें निर्माता, निर्देशक और अभिनेता शामिल हैं। यह समूह तय करता है कि इंडस्ट्री में किसे आगे बढ़ने का मौका मिलेगा और किसे नहीं।

– कोड नेम प्रथा

रिपोर्ट के मुताबिक, अनैतिक मांगें मानने वाली महिलाओं को ‘कोड नाम’ दिए जाते थे, ताकि उन्हें आसानी से पहचाना जा सके। इंडस्ट्री में यह प्रथा लंबे समय से चली आ रही है।

रिपोर्ट जारी करने में देरी और विवाद

हेमा समिति की रिपोर्ट को सार्वजनिक रूप से जारी करने में पांच साल की देरी की कड़ी आलोचना की गई है। कई लोगों ने इसे एक बहुत बड़ी धोखाधड़ी माना और सवाल उठाया कि इतने महत्वपूर्ण मामलों को क्यों छिपाया गया। हालांकि, केरल सरकार ने दावा किया कि रिपोर्ट की सामग्री अत्यधिक संवेदनशील थी, इसलिए इसे प्रकाशित करने में देरी हुई। इसके अलावा, न्यायमूर्ति हेमा ने सरकार से रिपोर्ट को गोपनीय रखने का अनुरोध किया था।

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हेमा समिति के सुझाव

हेमा समिति की रिपोर्ट में मलयालम फिल्म उद्योग को बेहतर बनाने के लिए कई सुझाव दिए गए हैं:

  • महिला और पुरुष कलाकारों को समान वेतन दिया जाना चाहिए।
  • शूटिंग स्थलों पर शराब और नशीले पदार्थों पर सख्त प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।
  • कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सख्त नियम लागू किए जाने चाहिए।

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कहाँ हैं एस्ट्रोनॉट सुनीता विलियम्स, अंतरिक्ष से वापस क्यों नहीं लौटी?

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Sunita William
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एस्ट्रोनॉट सुनीता विलियम्स एक अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री हैं. जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन की अपनी तीन उड़ानों में रिकॉर्ड बनाए हैं. उनकी पहली दो अंतरिक्ष उड़ानें कुल मिलाकर 321 दिनों से ज़्यादा चलीं. लेकिन क्या आप जानते एस्ट्रोनॉट सुनीता विलियम्स इस वक़्त कहा पर हैं? अगर नहीं तो चलिए आपको इस लेख में बताते है. एस्ट्रोनॉट सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष में फंसी हुई हैं. उनके साथ एस्ट्रोनॉट बुच विल्मौर हैं.

क्या है पूरा मामला जानें..

अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (International Space Station) में भारतीय मूल की सुनीता विलियम्स को 5 जून को नासा ने अंतरिक्ष में भेजा था. उनके साथ उनके साथी एस्ट्रोनॉट बुच विल्मौर फसें हैं. 8 दिन के लिए स्पेस में गईं सुनीता इतने दिन बीत जाने के बाद भी धरती पर वापस नहीं लौटी हैं. दरअसल, सुनीता और बुश विलमोर बोइंग और NASA के जॉइंट ‘क्रू फ्लाइट टेस्ट मिशन’ पर गए थे. इसमें सुनीता, स्पेसक्राफ्ट की पायलट थीं. उनके साथ गए बुश विलमोर इस मिशन के कमांडर थे. दोनों को इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (ISS) में 8 दिन रुकने के बाद वापस पृथ्वी पर आना था. लेकिन तकनीकी खराबी के कारण उनकी वापसी टल गई थी.

जिसके बाद NASA ने पहले तो अंतरिक्ष में ही स्टारलाइनर को ठीक करने की कोशिश की, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली और बोइंग स्टारलाइनर 7 सितंबर को पृथ्‍वी पर वापस आ गया था. वही फिर यह तय किया कि विलियम्स और विल्मोर को दूसरे स्पेसक्राफ्ट से वापस लाया जाएगा. इस बीच अब खबर सामने आई है कि सुनीता विलियम्स और बुच विल्मोर को वापस लाने वाला स्पेसक्राफ्ट अंतरिक्ष में पहुंच गया है. SpaceX के Crew Dragon कैप्सूल जिसे Freedom नाम दिया गया है, शुक्रवार को इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (ISS) से जुड़ गया. यह स्पेसक्राफ्ट ISS के हार्मनी मॉड्यूल पर डॉक्ड है.

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Crew-9 मिशन के सदस्य NASA के एस्ट्रोनॉट निक हेग और Roscosmos के कॉस्मोनॉट अलेक्सांद्र गोरबुनोव का ISS पहुंचने पर गर्मजोशी से स्वागत किया गया. हांलाकि मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक एस्ट्रोनॉट सुनीता विलियम्स और उनके साथी बुश विलमोर फरवरी 2025 में इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (ISS) से धरती पर लौटेंगे. इसकी जानकारी अमेरिकी स्पेस एजेंसी NASA ने बीते कुछ दिन पहले दी है.

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क्या है Crew-9 स्पेस मिशन? 

यह NASA के कॉमर्शियल क्रू प्रोग्राम का हिस्सा है. SpaceX के साथ मिलकर स्पेस स्टेशन का 9 रोटेशनल मिशन है. ताकि स्पेस स्टेशन पर लगातार रिसर्च होती रहे. ताकि दुनिया को सही जानकारी मिलती रही. वही Crew-9 को शनिवार दोपहर लॉन्च किया गया था. इसके अलवा स्पेसएक्स का क्रू ड्रैगन कैप्सूल आमतौर पर चार लोगों को ISS तक ले जाता है, लेकिन NASA ने क्रू-9 मिशन में दो ही अंतरिक्ष यात्री भेजे हैं. ताकि वहां पहले से मौजूद दो लोगों सुनीता विलियम्स और बुच विल्मोर के लिए सीटें बचाई जा सकें, जिन्हें घर जाने के लिए सवारी की जरूरत है.

सुनीता विलियम्स स्पेस कितनी बार गयी हैं?

बता दें, सुनीता विलियम्स स्पेस पर तीसरी बार गई हैं. इससे पहले वो दो बार अंतरिक्ष की यात्रा कर चुकी हैं. साल 2006 और 2012 में अंतरिक्ष जा चुकी हैं. नासा के मुताबिक उन्होंने अंतरिक्ष में कुल 322 दिन बिताए हैं. वही 2006 में सुनीता ने अंतरिक्ष में 195 दिन और 2012 में 127 दिन बिताए थे.

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एस्ट्रोनॉट कैसे रहते है ?

आम लोगों के मन में अक्सर यह जानने की उत्सुकता होती है. कि स्पेस में अंतरिक्ष यात्रियों या एस्ट्रोनॉट का जीवन कैसा होता है…दरअसल ,अंतरिक्ष में मौजूद स्पेस स्टेशन में एस्ट्रोनॉट्स के लिए काफी खास तरीके का टॉयलेट बनाया गया है. जिसे वैक्यूम टॉयलेट कहा जाता है, जो हवा के जरिए आपके शरीर से निकलने वाले मल को एक टैंक में वैक्यूम फोर्स की मदद से ले जाता है. एस्ट्रोनॉट के लिए पीने का पानी एक पाउच में बंद होता है जिसे वह नली की मदद से पीते रहते हैं. इसके अलावा शरीर को साफ रखने के लिए एस्ट्रोनॉट आम बाथरूम की तरह शावर नहीं लेते हैं बल्कि वह अपने शरीर को गीले कपड़े की मदद से या खास लिक्विड का उपयोग करके साफ करते हैं. स्पेस में शरीर का भार महसूस ना होने के चलते सोने के लिए खुद को एक स्लीपिंग बैग में बंद करना होता है.

Sikh Toys: बाजार में पहले कभी नहीं देखे होंगे ऐसे खिलौने, सिख बच्चों को सिखा रहे हैं धर्म की शिक्षा

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Sikh Toys in London
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सिख धर्म के बारे में कई ऐसी बातें हैं जिनके बारे में आजकल के बच्चे बहुत कम जानते हैं और बच्चों में धार्मिक शिक्षा भरने के लिए बाजार में ऐसी चीजें आ गई हैं जो आपने पहले कभी नहीं देखी होंगी। दरअसल हम बात कर रहे हैं सिख बच्चों के लिए बनाए गए खिलौनों की जिन्हें बाजार में सिख खिलौने (Sikh Toys) कहा जाता है। ये खिलौने आम खिलौनों से काफी अलग हैं क्योंकि इन खिलौनों की बनावट सिख रीति-रिवाजों और सिख योद्धा जैसी हैं। इन खिलौनों को देखकर कई सिख बच्चे अपने धर्म के प्रति और भी ज्यादा लगाव और जुड़ाव महसूस करने लगे हैं। आइए आपको इन खिलौनों के बारे में विस्तार से बताते हैं।

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खालसा टॉय स्टोर के को-फाउन्डर सुख सिंह

हाल ही में ब्रिटेन में ‘सिख टॉय’ रिलीज हुए हैं। बच्चे भी इन खिलौनों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। अभिभावकों को भी उम्मीद है कि इसके जरिए उनके बच्चे अपनी संस्कृति के बारे में जान सकेंगे। ये खिलौने खालसा टॉय स्टोर के सह-संस्थापक सुख सिंह ने बनाए हैं। उनका कहना है कि एक दिन उनकी बेटी ने उनसे पूछा कि बाजार में सिख धर्म से जुड़ा कोई खिलौना क्यों नहीं है। बेटी के इस सवाल ने सुख सिंह को सिखों के लिए खिलौने बनाने का आइडिया दिया और उन्होंने अपनी खुद की कंपनी शुरू कर दी। उनकी कंपनी सिख बच्चों के लिए खिलौने बनाती है।

सिख टॉय बनाने का उद्देश्य

सिख बच्चों के लिए सिख खिलौने बनाने का उद्देश्य सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को बढ़ावा देना, बच्चों में सिख धर्म के बारे में जागरूकता बढ़ाना और उन्हें अपने धर्म और परंपराओं से जोड़ने के लिए एक मजेदार और शिक्षाप्रद माध्यम प्रदान करना है। यह एक ऐसा प्रयास है जो न केवल सिख समुदाय के बच्चों को सिख धर्म की मूल शिक्षाओं से परिचित कराता है, बल्कि उनकी सांस्कृतिक पहचान को भी मजबूत करता है।

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सिख धर्म की विरासत को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का काम

सरल शब्दों में कहें तो सिख खिलौने बनाना सिख धर्म की शिक्षाओं और सांस्कृतिक विरासत को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का एक मज़ेदार और इंटरैक्टिव तरीका है। यह प्रयास बच्चों को उनके धर्म, इतिहास और संस्कृति से जोड़ने में मदद करता है और उन्हें सिख होने पर गर्व महसूस कराता है। साथ ही, यह वैश्विक परिदृश्य में सिख धर्म के बारे में जागरूकता फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

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खिलौने ऑनलाइन बेचे जा रहे हैं

सिख खिलौने अब विभिन्न ऑनलाइन प्लेटफार्मों और विशेष सिख दुकानों पर उपलब्ध होते हैं। यह खिलौने सिख धर्म और संस्कृति को दर्शाने वाले होते हैं, जैसे कि सिख गुरुओं, सिख योद्धाओं, धार्मिक प्रतीकों, और सिख परंपराओं पर आधारित होते हैं। Sikh Toys UK नाम की एक वेबसाइट है जो सिख धर्म पर आधारित खिलौने और शैक्षिक सामग्री विशेष रूप से बच्चों के लिए उपलब्ध कराती है।

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मायावती के बाद कांशीराम के सबसे करीब था ये परिवार, पंजाब की राजनीति को देखते हुए इस महिला को बनाना चाहते थे CM

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बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के संस्थापक कांशीराम का पूरा जीवन दलितों के हितों और उनके कल्याण की लड़ाई को समर्पित रहा। इसके लिए उन्होंने बहुजन समाज पार्टी का गठन किया और इस पार्टी की बागडोर बहनजी उर्फ ​​मायावती को सौंपी। मायावती के राजनीतिक करियर और दलित आंदोलन में कांशीराम का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। लेकिन मायावती अकेली ऐसी शख्सियत नहीं हैं, जो कांशीराम की करीबी थीं। इसी कड़ी में एक परिवार ऐसा भी था, जिसे कांशीराम बेहद करीबी मानते थे और खास तौर पर उस परिवार की किसी महिला को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे। दरअसल, हम बात कर रहे हैं पीडी शांत और उनके परिवार की, जिसका कांशीराम के जीवन में अहम स्थान रहा।

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पी. डी. शांत और उनका परिवार

बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, जब भी कांशीराम जी पंजाब के जालंधर शहर में आते थे, तो वे हमेशा पी.डी. शांत के घर पर रुकते थे। पी.डी. शांत एक सम्मानित व्यक्ति थे, जिन्होंने दलितों के लिए संघर्ष और काम में कांशीराम का हमेशा साथ दिया। चाहे कांशीराम के राजनीतिक सफर की शुरुआत हो या उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने के बाद, जब भी वे जालंधर आए, उन्होंने शांत परिवार का आतिथ्य स्वीकार किया। खास तौर पर पी.डी. शांत की पत्नी हरदेव कौर शांत के हाथ का बना खाना कांशीराम के लिए खास महत्व रखता था।

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हरदेव कौर शांत पंजाब के लिए कांशीराम की पसंद

कांशीराम हरदेव कौर शांत को बहुत खास मानते थे और उनकी लगन और कार्यकुशलता को देखते हुए उन्होंने उन्हें पंजाब की राजनीति में अहम भूमिका देने का फैसला किया। कांशीराम ने हरदेव कौर शांत को दो बार विधायक का चुनाव लड़वाया और उनकी इच्छा थी कि हरदेव कौर को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया जाए। कांशीराम का मानना ​​था कि समाज सेवा और दलितों के अधिकारों के लिए लड़ने में हमेशा आगे रहने वाली हरदेव कौर शांत पंजाब के दलित और पिछड़े वर्ग के लिए एक मजबूत नेता साबित हो सकती हैं।

कांशीराम और शांत परिवार का गहरा संबंध

इस किस्से से पता चलता है कि कांशीराम न केवल दलित समुदाय के राजनीतिक हितों के लिए समर्पित थे, बल्कि व्यक्तिगत और सामाजिक रिश्तों को भी महत्व देते थे। उनके और शांत परिवार के बीच का रिश्ता सिर्फ़ राजनीतिक नहीं था, बल्कि पारिवारिक भी था। शांत परिवार के घर में रहने के दौरान कांशीराम जी ने एक करीबी रिश्ता स्थापित किया और इस परिवार के समर्थन और सहयोग ने कांशीराम की राजनीति और उनके आंदोलन को मज़बूती दी।

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कांशीराम की दृष्टि

कांशीराम का दृष्टिकोण हमेशा दलितों के सशक्तिकरण और उनके अधिकारों के लिए संघर्ष पर केंद्रित रहा और उन्होंने हमेशा योग्य और समर्पित व्यक्तियों को बढ़ावा देने की कोशिश की। हरदेव कौर शांत को मुख्यमंत्री बनाने की उनकी इच्छा दर्शाती है कि वे महिला सशक्तिकरण और दलित समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को कितना महत्व देते थे।

कांशीराम और पी. डी. शांत के परिवार के बीच का यह किस्सा एक महत्वपूर्ण और अनसुना पहलू है, जो कांशीराम के संघर्ष और उनके रिश्तों को एक नया आयाम देता है। यह दर्शाता है कि कैसे कांशीराम ने न केवल राजनीति में बल्कि व्यक्तिगत रिश्तों में भी ईमानदारी और पारदर्शिता बनाए रखी। हरदेव कौर शांत को मुख्यमंत्री बनाने की उनकी इच्छा उनके सपनों और विचारधारा का हिस्सा थी, जिसे उन्होंने हमेशा आगे बढ़ाने की कोशिश की।

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ब्राह्मण लड़की और दलित लड़के के बीच प्यार की खूनी कहानी, यूपी की ये वारदात आपको रुला देगी

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साल 2021 में उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले में दलित पंचायत अधिकारी अनीश कुमार चौधरी की हत्या ने जाति विभाजन और ऑनर किलिंग जैसी सामाजिक बुराइयों को उजागर किया। 24 जुलाई 2021 को अनीश कुमार चौधरी की हत्या कर दी गई। अनीश एडीओ पंचायत (पंचायत अधिकारी) के पद पर तैनात थे। उन्होंने ब्राह्मण समुदाय की लड़की दीप्ति मिश्रा से प्रेम विवाह किया था, जो उनके जीवन के लिए घातक साबित हुआ। इस हत्या को लेकर आरोप लगाया गया कि लड़की के परिवार ने कुछ अधिकारियों की मिलीभगत से इस हत्या को अंजाम दिया है। अनीश की दिनदहाड़े गड़ासे से काटकर बेरहमी से हत्या कर दी गई थी। इस घटना ने न सिर्फ अनीश की जान ले ली, बल्कि समाज में जाति आधारित हिंसा की गहरी जड़ों को भी उजागर कर दिया।

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पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई के वक्त हुई मुलाकात

बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार, अनीश की पत्नी दीप्ति मिश्रा का दावा है कि उनका परिवार उनकी शादी से खुश नहीं था। अनीश और दीप्ति ने अपनी पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई के लिए एक साथ गोरखपुर के पंडित दीन दयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय में पढ़ाई की। कैंपस मीटिंग के दौरान अनीश और दीप्ति को ग्राम पंचायत अधिकारी के पद के लिए चुना गया था। नौकरी मिलने के बाद अनीश से उनकी पहली मुलाकात 9 फरवरी, 2017 को गोरखपुर के विकास भवन में हुई थी।

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प्रेम विवाह और सामाजिक विरोध

उसी पद के लिए चयन के बाद, विश्वविद्यालय के परिसर में होने वाली बैठकों की संख्या बढ़ने लगी। जैसे-जैसे वे एक साथ प्रशिक्षण लेते गए, वे एक-दूसरे के और करीब आते गए। इसके बाद उन्होंने सामाजिक मान्यताओं और जातिगत बंधनों को दरकिनार करते हुए शादी का फैसला किया।

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हालांकि, दीप्ति मिश्रा के परिवार और समुदाय को यह शादी मंजूर नहीं थी। उन्होंने इस शादी का कड़ा विरोध किया, क्योंकि उनके समाज में दलित से शादी करना ‘परिवार की इज्जत’ के खिलाफ माना जाता था। इसके बावजूद अनीश और दीप्ति ने शादी कर ली, लेकिन इसके बाद उन्हें काफी दबाव और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा।

हत्या की घटना

शादी के कुछ समय बाद ही दोनों परिवारों के बीच तनाव बढ़ गया। दीप्ति मिश्रा के परिवार ने इस शादी को कभी स्वीकार नहीं किया और लगातार अनीश और दीप्ति पर दबाव बनाया। अनीश और उनकी पत्नी को सामाजिक स्तर पर कई धमकियों का सामना करना पड़ा।

हत्या के पीछे के कारण

जांच में सामने आया कि इस हत्या के पीछे दीप्ति मिश्र के परिवार के सदस्यों और उनके समुदाय के कुछ लोगों का हाथ था। उन्हें यह विवाह अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए अपमानजनक लगा और उन्होंने इसे ‘इज्जत’ से जोड़कर हत्या की साजिश रची।

फिर एक दिन अनीश कुमार चौधरी की हत्या कर दी गई। घटना वाले दिन अनीश अपने दैनिक काम से लौट रहा था, तभी कुछ अज्ञात हमलावरों ने उस पर हमला कर दिया। हमलावरों ने उस पर बेरहमी से हमला किया और उसे गंभीर रूप से घायल कर दिया। अनीश को अस्पताल ले जाया गया, लेकिन उसकी जान नहीं बचाई जा सकी। यह स्पष्ट हो गया कि यह हत्या उसके और दीप्ति के विवाह से उपजे जातिगत आक्रोश और ‘ऑनर किलिंग’ का नतीजा थी।

पुलिस कार्रवाई और गिरफ्तारी

अनीश की हत्या के बाद पुलिस ने तेजी से कार्रवाई की। दीप्ति मिश्रा के परिवार और अन्य संदिग्धों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया। पुलिस ने कुछ आरोपियों को हिरासत में लिया और हत्या की जांच शुरू की। जांच में पता चला कि घटना पहले से तय थी और परिवार के कुछ लोगों ने ही साजिश रची थी।

समाज में प्रतिक्रिया

यह घटना समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव और ‘ऑनर किलिंग’ की कड़वी सच्चाई को दर्शाती है। अनीश कुमार चौधरी की हत्या ने दिखा दिया कि भारत के कुछ हिस्सों में आज भी लोग अपने सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों की रक्षा के लिए जाति के आधार पर हिंसा का सहारा लेते हैं।

अनीश कुमार चौधरी की हत्या एक दुखद और झकझोर देने वाली घटना है, जो समाज में व्याप्त जातिगत विभाजन और ऑनर किलिंग की प्रवृत्ति को उजागर करती है। यह घटना दर्शाती है कि समाज का एक बड़ा हिस्सा अभी भी प्रेम और विवाह की स्वतंत्रता को स्वीकार करने में पीछे है, और जाति की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। ऐसी घटनाएं हमारे समाज में सामाजिक सुधार और जागरूकता की तत्काल आवश्यकता को दर्शाती हैं।

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चंद्रशेखर आज़ाद पर लगे फंडिंग के आरोपों का सच क्या है? जानें कहां से आता है पार्टी के लिए चंदा

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चंद्रशेखर आज़ाद उर्फ़ “रावण” आज राजनीति में एक अलग मुकाम पर पहुंच चुके हैं। नगीना सीट से जीतकर आज़ाद ने अपनी अलग पहचान बनाई है। लेकिन समय-समय पर चंद्रशेखर आज़ाद की फंडिंग को लेकर अलग-अलग आरोप सामने आते रहते हैं, खासकर उनकी राजनीतिक पार्टी आज़ाद समाज पार्टी (ASP) के वित्तीय स्रोतों पर सवाल उठते रहे हैं। हालांकि, ये आरोप मुख्य रूप से विरोधियों और आलोचकों द्वारा लगाए जाते हैं, जिनका दावा है कि पार्टी की फंडिंग पारदर्शी नहीं है या इसे अज्ञात स्रोतों से प्राप्त किया जा रहा है। चंद्रशेखर आज़ाद और उनकी पार्टी ने इन आरोपों का खंडन किया है और कई बार स्पष्ट किया है कि पार्टी की फंडिंग पूरी तरह से पारदर्शी और वैध स्रोतों से आती है। आइए जानते हैं कि चंद्रशेखर और उनकी पार्टी पर किस तरह के आरोप लगे हैं।

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2020 में स्थापित की गई थी पार्टी

आज़ाद समाज पार्टी (ASP), जिसे भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद द्वारा 2020 में स्थापित किया गया था, एक दलित-आधारित राजनीतिक पार्टी है, जो सामाजिक न्याय, दलितों, पिछड़ों, और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए काम करती है। वहीं, फंडिंग को लेकर भी यह पार्टी अक्सर सवालों से घिरी रहती है।

1. अज्ञात स्रोतों से धन प्राप्त करने के आरोप:

चंद्रशेखर आज़ाद और उनकी पार्टी पर कुछ अज्ञात और अवैध स्रोतों से धन प्राप्त करने का आरोप लगाया गया है। आलोचकों का कहना है कि एएसपी जैसी नई पार्टी के पास चुनाव लड़ने और बड़े आयोजन करने के लिए पर्याप्त धन नहीं हो सकता है जब तक कि उसे कुछ छिपे स्रोतों से वित्तीय सहायता न मिल रही हो।

Chandrashekhar Azad funding allegations
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पार्टी ने किया खंडन

चंद्रशेखर आज़ाद ने इन आरोपों का बार-बार खंडन किया है और कहा है कि उनकी पार्टी की फंडिंग पूरी तरह पारदर्शी है और जनता के चंदे पर आधारित है। वे अक्सर कहते हैं कि दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग छोटे-छोटे योगदान के रूप में पार्टी की मदद करते हैं और यही उनकी पार्टी की असली ताकत है।

2. पार्टी के वित्तीय रिकॉर्ड में पारदर्शिता की कमी:

कुछ लोगों का आरोप है कि आज़ाद समाज पार्टी के वित्तीय अभिलेखों में पारदर्शिता का अभाव है और यह नहीं पता चलता कि पार्टी को धन कहां से मिलता है और उसे कैसे खर्च किया जाता है।

पार्टी ने किया खंडन

चंद्रशेखर आज़ाद और उनकी पार्टी का कहना है कि वे भारत के चुनाव आयोग के सभी नियमों का पालन करते हैं और सभी वित्तीय जानकारी समय-समय पर दर्ज और ऑडिट की जाती है। पार्टी का दावा है कि उनके सभी फंडिंग स्रोत कानूनी और वैध हैं।

3. भीम आर्मी और ASP के बीच फंड ट्रांसफर के आरोप:

आरोप यह भी है कि चंद्रशेखर आज़ाद के सामाजिक संगठन भीम आर्मी और उनकी राजनीतिक पार्टी एएसपी के बीच पैसों का गलत लेन-देन हुआ है। आलोचकों का दावा है कि भीम आर्मी के नाम पर जुटाए गए फंड का इस्तेमाल एएसपी की राजनीतिक गतिविधियों के लिए किया जा रहा है।

Chandrashekhar Azad funding allegations
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पार्टी ने किया खंडन

चंद्रशेखर आज़ाद ने इस आरोप का खंडन करते हुए कहा है कि भीम आर्मी और आज़ाद समाज पार्टी दो अलग-अलग संगठन हैं और उनके फंडिंग स्रोत भी अलग-अलग हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि भीम आर्मी का उद्देश्य सामाजिक सुधार और शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करना है, जबकि एएसपी एक राजनीतिक संगठन है।

राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों का फंडिंग को लेकर आरोप

चंद्रशेखर आज़ाद की बढ़ती लोकप्रियता और दलित समुदाय के बीच उनके समर्थन ने उन्हें कई राजनीतिक विरोधियों के निशाने पर ला दिया है। कई बार राजनीतिक विरोधियों ने उन पर और उनकी पार्टी पर फंडिंग का आरोप भी लगाया है ताकि उनकी छवि खराब की जा सके।

चंद्रशेखर आज़ाद रावण ने पार्टी फंडिंग के आरोपों को बार-बार नकारा है और अपने समर्थकों को भरोसा दिलाया है कि उनकी पार्टी जनता के योगदान पर आधारित है। आज़ाद समाज पार्टी का कहना है कि वे भारत के चुनाव आयोग के सभी वित्तीय नियमों का पालन करते हैं और उनकी फंडिंग प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी है।

सदस्यों और समर्थकों के योगदान

आज़ाद समाज पार्टी के लिए धन का एक प्रमुख स्रोत इसके सदस्य और समर्थक हैं। दलित समुदाय और अन्य पिछड़े वर्गों के बीच चंद्रशेखर आज़ाद की लोकप्रियता को देखते हुए, समर्थक अक्सर दान के रूप में पार्टी को योगदान देते हैं। यह योगदान छोटे व्यक्तिगत दान के रूप में हो सकता है, जिसका उपयोग पार्टी संचालन और चुनाव अभियानों में किया जाता है।

खबरों की मानें तो, आज़ाद समाज पार्टी के लिए धन का मुख्य स्रोत पार्टी के समर्थक, सदस्यों का योगदान और क्राउडफंडिंग है। जबकि एएसपी जैसी छोटी पार्टी के लिए बड़े कॉर्पोरेट दान या सरकारी अनुदान महत्वपूर्ण नहीं हैं, पार्टी को अपने आदर्शों और चंद्रशेखर आज़ाद की लोकप्रियता के कारण आम लोगों से वित्तीय सहायता मिलती है।

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जानें थंगलान के बाद अब बिरसा मुंडा, भीमा कोरेगांव और नांगेली पर भी फिल्म क्यों बननी चाहिए?

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Birsa Munda, Bhima Koregaon and Nangeli
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हाल ही में रिलीज हुई तमिल फिल्म ‘थंगालन’ ने दर्शकों को एक अलग तरह की कहानी से जोड़ा है, जिसमें स्थानीय जनजातियों और उनके संघर्षों को प्रमुखता से दिखाया गया है। इस फिल्म ने न केवल ऐतिहासिक संदर्भों को सामने रखा बल्कि भारतीय सिनेमा को एक नया नजरिया भी दिया। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर थंगालन जैसी फिल्में बन सकती हैं तो बिरसा मुंडा, भीमा कोरेगांव और नांगेली जैसी ऐतिहासिक शख्सियतों और घटनाओं पर फिल्में क्यों नहीं बनाई जा सकतीं? आइए हम आपको बताते हैं कि इन विषयों पर फिल्में बनाना क्यों जरूरी है।

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बिरसा मुंडा: आदिवासी समाज के महानायक

बिरसा मुंडा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महानायक थे, जिन्होंने अपने समुदाय के अधिकारों के लिए अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया। उनका संघर्ष केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक भी था। बिरसा मुंडा का प्रभाव इतना गहरा था कि उन्हें ‘धरती आबा’ यानी पृथ्वी के पिता के रूप में पूजा जाता है।

birsa munda
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फिल्म बनाना क्यों जरूरी?

बिरसा मुंडा की कहानी आज के संदर्भ में न केवल महत्वपूर्ण है, बल्कि समाज को उनके योगदान से प्रेरणा लेने की जरूरत है। बिरसा मुंडा पर फिल्म बनाना आदिवासी समुदाय की संघर्ष यात्रा और उनके अनदेखे बलिदानों को सिनेमा के माध्यम से सामने लाने का एक बेहतरीन तरीका हो सकता है। साथ ही यह फिल्म हमारे युवाओं को शोषण के खिलाफ आवाज उठाने वाले नायक से भी परिचित कराएगी।

भीमा कोरेगांव: दलित संघर्ष की प्रतीकात्मक जीत

भीमा कोरेगांव की लड़ाई भारतीय इतिहास की उन घटनाओं में से एक है, जिसे दलित समुदाय के संघर्ष की प्रतीकात्मक जीत के तौर पर देखा जाता है। इस लड़ाई में ब्रिटिश सेना में शामिल महार सैनिकों ने पेशवा सेना को हराया था। इस जीत को दलित समुदाय ने अपने स्वाभिमान और अस्तित्व की जीत के तौर पर स्वीकार किया था।

Bhima Koregaon
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फिल्म बनाना क्यों जरूरी?

हाल के वर्षों में भीमा कोरेगांव की घटना पर सामाजिक और राजनीतिक चर्चा बढ़ी है और इसे दलितों के संघर्ष और उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष के प्रतीक के रूप में देखा जा रहा है। भीमा कोरेगांव पर एक फिल्म न केवल ऐतिहासिक घटनाओं को उजागर करेगी बल्कि भारतीय समाज में जातिगत भेदभाव के खिलाफ जागरूकता बढ़ाने में भी मददगार साबित हो सकती है।

नांगेली: नारी सशक्तिकरण की अनसुनी कहानी

नांगेली का नाम शायद बहुत कम लोगों ने सुना होगा, लेकिन केरल की इस महिला ने जिस तरह अपने अधिकारों और सम्मान के लिए लड़ाई लड़ी, वह महिला सशक्तिकरण का एक अनूठा उदाहरण है। नांगेली ने त्रावणकोर राज्य में महिलाओं पर लगाए जाने वाले ‘स्तन कर’ के खिलाफ विद्रोह किया और अपनी गरिमा की रक्षा के लिए अपने स्तन काटकर राज्य के अधिकारियों को भेंट कर दिए। उनके इस साहसी और आत्म-बलिदान भरे कदम ने पूरे समाज को हिलाकर रख दिया और अंततः उस अन्यायपूर्ण कर को हटाने के लिए मजबूर होना पड़ा।

महिलाओं के अधिकार की कहानी 

नांगेली की कहानी आज के समय में बहुत प्रासंगिक है, जहां महिलाओं के अधिकारों और उनके स्वाभिमान की बात की जा रही है। इस पर फिल्म बनाकर भारतीय सिनेमा एक अनसुनी और साहसी कहानी सामने ला सकता है, जो समाज में महिलाओं के संघर्ष और उनके अदम्य साहस को पहचान दिलाएगी।

भारतीय सिनेमा की जिम्मेदारी

भारतीय सिनेमा की ताकत सिर्फ़ मनोरंजन तक सीमित नहीं है। यह समाज के अनकहे और अनसुने पहलुओं को उजागर करने का एक अहम माध्यम है। थंगल्लान जैसी फ़िल्में हमें एहसास कराती हैं कि हमारे देश में ऐसी कई कहानियाँ हैं जिन्हें सिनेमा के ज़रिए बताया जाना चाहिए। बिरसा मुंडा, भीमा कोरेगांव और नांगेली जैसी ऐतिहासिक घटनाओं और व्यक्तित्वों पर फ़िल्म बनाने से न सिर्फ़ हमारे इतिहास को समझने में मदद मिलेगी बल्कि समाज के दबे-कुचले तबकों के संघर्षों को भी पहचान मिलेगी। इन पर फ़िल्म बनाने से भारतीय सिनेमा के विभिन्न पहलुओं का और विस्तार होगा।

इन्हें भी मिलना चाहिए मंच 

आज जब भारतीय सिनेमा वैश्विक पटल पर अपनी पहचान बना रहा है, तो समय आ गया है कि हम अपने देश के उन वीरों की कहानियों को भी दुनिया के सामने लाएँ जिन्होंने अपने संघर्ष और बलिदान से इतिहास रच दिया। सिनेमा के इस दौर में जहाँ दर्शक ऐतिहासिक कहानियों को बड़े चाव से देख रहे हैं, वहीं बिरसा मुंडा, भीमा कोरेगांव और नंगेली पर फ़िल्म बनाना न केवल सिनेमा की सामाजिक ज़िम्मेदारी है, बल्कि यह उन अनकही कहानियों को सामने लाने का एक सशक्त माध्यम भी है।

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सपने में मृत माता को देखने का क्या होता है मतलब? जानिए स्वप्न शास्त्र में इसे शुभ माना जाता है या अशुभ

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सपने देखना आम बात है। लेकिन इन सपनों के पीछे के रहस्य को समझ पाना एक आम इंसान के लिए संभव नहीं है। कई बार आपने सपने में ऐसी चीजें देखी होंगी, जिन्हें देखने के बाद आपके मन में कई तरह के सवाल उठते होंगे कि इन सपनों का क्या मतलब है और ये सपने क्यों आए, तो आज हम आपको इस सवाल का जवाब बताएंगे। दरअसल कुछ लोगों को उनकी मां की मौत के बाद भी वे सपने में दिखाई देते हैं। हालांकि, कई बार ऐसा इसलिए भी हो सकता है क्योंकि उनके प्रति हमारा लगाव खत्म नहीं हुआ है। लेकिन कई बार उनका सपने में आना आपके लिए एक संकेत भी हो सकता है। स्वप्न शास्त्र में इस बारे में काफी कुछ कहा गया है। तो आइए जानते हैं सपने में मृत मां को देखने का क्या मतलब होता है। इस तरह सपने शुभ या अशुभ होते हैं।

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सपने में जीवित मां को मरा हुआ देखना

यदि कोई व्यक्ति सपने में अपने जीवित मां को मरा हुआ देखता है तो इसका मतलब है कि आपकी मां लंबे समय तक जीवित रहने वाले हैं। इसलिए जब आपको ऐसा सपना आए तो आपको बेवजह परेशान होने की जरूरत नहीं है। भगवान पर भरोसा रखें और अपने परिवार की खुशहाली की उम्मीद करें।

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सपने में मृत मां को देखना क्या संकेत देता है?

स्वप्न शास्त्र के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति अपने सपनों में अक्सर अपनी मृत मां को देखता है, तो इसका मतलब यह हो सकता है कि वह अपनी कुछ अधूरी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आपका इस्तेमाल करना चाहता है। जब आप इस तरह का सपना देखते हैं, तो आपको निश्चित रूप से इस बात पर विचार करना चाहिए कि आपकी मां अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए आपसे क्या चाहते हैं।

सपने में मां से बात करना

अगर आप सपने में अपनी मृत मां से बात करते हैं तो यह एक अच्छा सपना है। इस तरह के सपने बहुत अच्छे माने जाते हैं। इस तरह के सपने बताते हैं कि आप अपने जीवन में खुशियां प्राप्त करने वाले हैं। यह दर्शाता है कि आप अपने जीवन में प्रगति कर रहे हैं। ये सपने परिवार में किसी उत्सव की योजना बनाने का भी संकेत देते हैं। यह दर्शाता है कि आपका परिवार आपको अटूट समर्थन प्रदान करेगा।

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सपने में माता-पिता को रोते हुए देखना

अगर आपने सपने में अपने मृत माता-पिता को रोते हुए देखा है तो यह अच्छा सपना नहीं माना जाता है। इसका मतलब है कि वे किसी बात से दुखी हैं। इसका मतलब यह भी हो सकता है कि उनकी कोई इच्छा अधूरी रह गई है। या भविष्य में आपके साथ कुछ अनहोनी होने वाली है, जिसका उन्हें आभास हो गया है। अगर आपको ऐसा सपना आता है तो आपको अपने माता-पिता का श्राद्ध करना चाहिए।

डिस्क्लेमर: इस लेख में दी गई जानकारियां और सूचनाएं सामान्य मान्यताओं पर आधारित हैं। नेड्रिक न्यूज़ इनकी पुष्टि नहीं करता है। इन पर अमल करने से पहले संबंधित विशेषज्ञ से संपर्क करें।

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पहली फिल्म से लगा Flop का ठप्पा, फिर ऐसी चमकी किस्मत कि बन गई 90s की सबसे महंगी हीरोइन

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बॉलीवुड की धक-धक गर्ल भले ही आज 57 साल की हो गई हों, लेकिन वो आज भी 35 की लगती हैं। बढ़ती उम्र के साथ उनकी खूबसूरती कम नहीं हुई है और अपनी एक्टिंग की वजह से वो आज भी बॉलीवुड में एक मशहूर हीरोइन के तौर पर जानी जाती हैं। लेकिन एक वक्त ऐसा भी था जब माधुरी ने अपने करियर की शुरुआत की थी, उन पर फ्लॉप का ठप्पा लगा था। दरअसल, माधुरी दीक्षित ने अपने करियर की शुरुआत साल 1984 में फिल्म ‘अबोध’ से की थी। इसमें उनकी एक्टिंग की काफी तारीफ हुई, लेकिन फिल्म बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप साबित हुई। इसके बाद माधुरी दीक्षित की ‘आवारा बाप’, ‘स्वाति’, ‘हिफाजत’, ‘उत्तर दक्षिण’ जैसी फिल्में भी बॉक्स ऑफिस पर कमाल नहीं दिखा पाईं। लेकिन फिर अचानक उनकी किस्मत बदल गई। आइए आपको बताते हैं कि कैसे उनकी किस्मत बदली।

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राम लखन ने बनाई किस्मत

बैक-टू-बैक फ्लॉप फिल्मों के बाद माधुरी दीक्षित को एक ऐसी फिल्म मिली जिसने उन्हें रातों-रात सुपरस्टार बना दिया। उस फिल्म का नाम है ‘राम लखन’। सुभाष घई के निर्देशन में बनी इस फिल्म में माधुरी दीक्षित ने अनिल कपूर, जैकी श्रॉफ और अनुपम खेर जैसे सितारों के साथ काम किया था। 1989 में रिलीज हुई माधुरी दीक्षित की ‘राम लखन’ बॉक्स ऑफिस पर ब्लॉकबस्टर साबित हुई थी। इस फिल्म की सफलता ने माधुरी दीक्षित के करियर को उफान से अर्श तक पहुंचा दिया।

माधुरी दीक्षित बनी सुपरस्टार

उसके बाद 90 का दशक माधुरी दीक्षित के लिए सबसे बेहतरीन साल साबित हुआ। उनकी बॉक्स ऑफिस हिट फिल्मों में “बेटा”, “दिल”, “हम आपके हैं कौन” और “दिल तो पागल है” शामिल हैं। माधुरी दीक्षित बहुत जल्दी मशहूर हो गईं, यही वजह है कि उन्हें “हम आपके हैं कौन” में सलमान खान और “साजन” में संजय दत्त से ज़्यादा मेहनताना मिला। फिर भी, बहुत कम समय में इतना बड़ा मुकाम हासिल करने के बाद माधुरी दीक्षित ने एक्टिंग को अलविदा कह दिया।

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करियर के पीक पर की शादी

अपने करियर के चरम पर माधुरी ने 1999 में लॉस एंजेलिस के डॉक्टर श्रीराम माधव नेने से शादी की और फिर फिल्मों से दूरी बना ली। शादी के बाद माधुरी दीक्षित डेनवर (कोलोराडो) शिफ्ट हो गईं। उस समय उनकी आखिरी फिल्म ‘देवदास’ थी, जिसमें उन्होंने शाहरुख खान और ऐश्वर्या राय बच्चन के साथ काम किया था।

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माधुरी ने आजा नचले से किया कमबैक

शादी के बाद माधुरी दीक्षित ने दो बेटों को जन्म दिया, जिनके नाम अरिन और रयान हैं। जब दोनों बच्चे बड़े हो गए, तो एक्ट्रेस ने एक बार फिर बॉलीवुड में वापसी की। माधुरी ने ‘आजा नचले’ में नजर आईं जो उनकी कमबैक फिल्म कही जाती है। इसके बाद से माधुरी दीक्षित लगातार फिल्मों और टीवी शो में बतौर जज काम कर रही हैं।

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आखिर कैसे बसा कटिहार में मिनी पंजाब? गुरु तेग बहादुर से जुड़ा है इसका इतिहास

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Guru Tegh Bahadur
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बिहार में एक छोटा पंजाब है और यहां कई गुरुद्वारे हैं। कटिहार शहर से 35 किलोमीटर दूर जिले के बरारी प्रखंड में नौ गुरुद्वारे भी यहां की पंजाबी संस्कृति की गवाही देते हैं। लेकिन यह थोड़ा अजीब लग सकता है कि पंजाब से बाहर बिहार में सिखों की बड़ी आबादी कैसे बढ़ी? इन सभी सवालों का जवाब गुरु तेग बहादुर हैं। दरअसल, कटिहार में मिनी पंजाब की स्थापना में गुरु तेग बहादुर का बहुत बड़ा योगदान है। आइए आपको इसके बारे में विस्तार से बताते हैं।

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दैनिक जागरण के स्थानीय ब्यूरो प्रमुख रहे और स्वयं सिख धर्म के ज्ञानपाल सिंह कहते हैं, पूरे भारत में आपको शहरों में सिख आबादी मिल जाएगी, लेकिन किसी भी राज्य के अंदरूनी इलाकों में आपको इतनी आबादी शायद ही मिलेगी।”

मिनी पंजाब का इतिहास

बरारी प्रखंड के मिनी पंजाब बनने की प्रक्रिया 1666 ई. से शुरू होती है जब उस समय सिखों के नौवें गुरु, गुरु तेग बहादुर बरारी के कांतनगर आए थे। कटिहार जिले की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, “गुरु तेग बहादुर असम से पटना लौटते समय यहीं रुके थे। गांव के लोग उनके अनुयायी बन गए और सिख धर्म अपना लिया।” इस यात्रा के दौरान गुरु तेग बहादुर ने कुछ शिष्यों को कांतनगर में रहने की अनुमति दी थी। जिसके बाद सिख धर्म के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ यहां एक गुरुद्वारा भी स्थापित किया गया। लेकिन गंगा के कटाव के कारण कांतनगर गुरुद्वारा नदी में डूब गया।

गुरू तेग बहादुर ऐतिहासिक गुरुद्वारा

बाद में 1857 में गुरु तेग बहादुर की याद में बरारी के लक्ष्मीपुर गांव में ऐतिहासिक गुरुद्वारा श्री गुरु तेग बहादुर का निर्माण कराया गया। ऐतिहासिक गुरुद्वारा श्री गुरु तेग बहादुर के पूर्व प्रमुख सनिंदर सिंह बताते हैं, गुरु नानक जी जब चीन दौरे पर थे, तब सबसे पहले यहां आए थे। उसके बाद गुरु तेग बहादुर। सिखों का इस गुरुद्वारे और गुरु गोविंद सिंह से भी सीधा जुड़ाव रहा है। गुरु गोविंद सिंह के आदेश और उनके जीवन के अंतिम दिनों का दस्तावेज इस गुरुद्वारे में ही है, जिसका जिक्र दरबार साहिब अमृतसर में मिलता है।”

Mini Punjab in Katihar
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लाहौर से पटना साहिब को मदद का हुक्मनामा

पुराने लक्ष्मीपुर गुरुद्वारे में गुरु ग्रंथ साहिब और गुरु गोविंद सिंह से जुड़े ऐतिहासिक हुक्मनामा लिखे हुए हैं। हुक्मनामा सिखों को प्रेमपूर्ण जीवन जीने की शिक्षा देता है। इसके अलावा, लक्ष्मीपुर गुरुद्वारे के पास शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, लाहौर का 1930 का हुक्मनामा है, जो लक्ष्मीपुर गुरुद्वारे को पटना साहिब गुरुद्वारे की सहायता करने का आदेश देता है। बरारी ब्लॉक के नौ गांवों में करीब 5,000 सिख रहते हैं, जिनमें लक्ष्मीपुर, हुसैना, भैंसदीरा, भवानीपुर, भंडारताल और उछाला शामिल हैं। बरारी में नौ गुरुद्वारे हैं, जिनमें प्राचीन भवानीपुर गुरुद्वारा, माता मुखो-संप्तो कौर ट्रस्ट गुरुद्वारा और हाल ही में निर्मित कांतनगर गुरुद्वारा के अलावा लक्ष्मीपुर गुरुद्वारा भी शामिल है, जो बिहार सरकार के सिख सर्किट का हिस्सा है।

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हमारी सुरक्षा सुनिश्चित करे सरकार

बरारी में बसा यह छोटा पंजाब कई समस्याओं से जूझ रहा है। अच्छे स्कूल, अस्पताल और सड़कें इनके लिए दूर की कौड़ी हैं। भंडारतल पंचायत के अवध किशोर सिंह कहते हैं, हमारा पहला स्वास्थ्य केंद्र काढ़ागोला में है जो छह किलोमीटर दूर है। वहां तक ​​पहुंचने का रास्ता ऐसा है कि मरीज की हालत और खराब हो जाएगी। 12वीं तक का स्कूल है लेकिन शिक्षक नहीं हैं। बच्चे बाहर पढ़ने जाते हैं। इसके अलावा हमारे लोगों की यहां हत्या भी हो जाती है। हम अल्पसंख्यक हैं। सरकार को हमें सुरक्षा देनी चाहिए।”

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