क्रांतिकारी सिर्फ क्रांतिकारी होता है, वह दलित या आदिवासी नही होता. लेकिन देश के कई ऐसे क्रांतिकारी रहे, जिन्हें दलित या आदिवासी होने के कारण भुला दिया गया और उनका नाम इतिहास के पन्नो दबा दिया गया. हमारा यह लेख उन शहीदों के ऊपर हैं, जिनके देशप्रेम और बलिदान से इतर उनकी जाति को ऊपर रखा गया और उन्हें वो सम्मान नहीं दिया गया, जिसके वो हकदार थे. भारत को आज़ादी दिलाने में कई लोगों का खून-पसीना लगा था और उन लोगों की कुर्बानियों की वजह से आज हम स्वत्रंत भारत में रह रहे हैं.
बिरसा मुंडा (Birsa Munda)
बिरसा मुंडा का जन्म 5 नवंबर 1875 को झारखंड के एक आदिवासी दम्पति सुगना और करमी के घर हुआ था. बिरसा मुंडा को आदिवासियों का महानायक कहा जाता है. उन्होंने आदिवासियों को शोषण के जाल से निकालने के लिए सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर काम किया. उन्होंने ‘बेगारी प्रथा’ के विरुद्ध एक बड़ा आंदोलन शुरू किया जिसकी वजह से भारतीय जमींदारों, जागीरदारों और ब्रिटिश शासन के शोषण जाल में फंसे आदिवासी बाहर निकल पड़े. वहीं, ब्रिटिश हुकूमत ने इसे खतरे का संकेत समझकर बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया. वहां अंग्रेजों ने उन्हें धीमा जहर दिया और जिस कारण वे 9 जून 1900 को शहीद हो गए. लेकिन इस महान क्रांतिकारी को झारखंड तक ही सिमटा दिया गया.
और पढ़ें: न पढ़ाई, न लिखाई…फिर भी हैं 22 भाषाओं के ज्ञानी, यहां पढ़िए जगद्गुरु रामभद्राचार्य की कहानी
तिलका मांझी (Tilka Manjhi)
बिहार में11 फरवरी, 1750 को तिलका मांझी का जन्म हुआ था. उन्होंने अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध एक बड़ी जंग का आगाज किया. तिलका मांझी ने ‘संथाल विद्रोह’ का नेतृत्त्व किया जिसकी वजह से उनका नाम देश के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और शहीद के रूप में लिया जाता है. अंग्रेज़ी शासन द्वारा किये गए शोषण का उन्होने मुंहतोड़ जवाब दिया, जिसकी वजह से तिलका मांझी को 1785 में गिरफ़्तार कर लिया गया और फिर उन्हें फ़ाँसी दे दी गई. तिलका मांझी को प्रथम स्वतंत्रता सेनानी कहा जाता हैं लेकिन दरबारी इतिहासकारों ने इस शूरवीर स्वतंत्रता सेनानी को हमारे इतिहास के एक कोने में सिमटा दिया.
गंगाराम धानुक (Ganga ram Dhanuk)
गंगाराम धानुक एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने देश के लिए मार्च किया, नारे लगाए, जेल गए और यहां तक कि अंग्रेजों द्वारा उन्हें प्रताड़ित भी किया गया। महात्मा गांधी ने जब हरिजन उत्थान आंदोलन शुरू किया था, उसमें उन्होंने 21 दिनों तक उपवास किया था. उन्होंने लोगों से अस्पृश्यता की बुरी प्रथा को समाप्त करने और भूल जाने का अनुरोध किया. वर्ष 1932 में गंगाराम, बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर से मिले और उनकी सहायता से उत्तर प्रदेश के इटावा जैसे कुछ क्षेत्रों में आन्दोलन खड़ा किया. इसके बाद उन्होंने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में भी भाग लिया। गंगाराम धानुक को दलित समुदाय में उनके योगदान के लिए अन्य स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा भी सराहा जाता है। लेकिन वक़्त के साथ-साथ इस स्वतंत्रता सेनानी का नाम भी गुमनाम हो गया.
और पढ़ें: महापुरुष नारायण गुरु, जिन्होंने समाज में जातिवाद के फैले जहर को कम करने में निभाई अहम भूमिका
मदारी पासी (Madari Pasi)
इस नायक का जन्म दलित वर्ग के पासी समाज में एक साधारण किसान के यहां हुआ था. उन्हें किसानों का मसीहा कहा जाता है. वर्ष 1860 में उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले में जन्मे मदारी पासी ने ‘एका आंदोलन’ का नेतृत्व किया. इस आंदोलन में हर एक जाति एवं धर्म के लोग सम्मिलित हुए थे. इस आंदोलन की वजह से ब्रिटिश शासन एवं अत्याचारी जमींदार और तालुकदारों ने घुटने टेक दिए और मदारी पासी के शर्तों को मानने पर विवश हुए थे. इस आन्दोलन की वजह से गरीब किसानों को बेदखली, लगान और अनेक गैर कानूनी करों से मुक्ति मिली. मदारी पासी की कोई भी तस्वीर कहीं भी उपलब्ध नहीं है. वहीं, इतिहास की किताबों में इनका जिक्र भी नहीं किया गया है.
मातादीन भंगी (Matadin Bhangi)
1857 की क्रांति को शुरू करने का श्रेय मंगल पांडेय को दिया जाता है लेकिन इस क्रांति की शुरुआत मातादीन भंगी नाम के एक दलित ने की थी. दरअसल, अंग्रेजों की कारतूस फैक्ट्री में कारतूस बनाने वाले मजदूर मुसहर जाति के थे. एक दिन उस फैक्ट्री से एक मुसहर मजदूर छावनी आया। उस मजदूर का नाम मातादीन भंगी था। मातादीन को प्यास लगी, तब उसने मंगल पांडेय नाम के सैनिक से पानी मांगा। मंगल पांडे ने ऊंची जाति से होने के कारण उसे पानी पिलाने से इंकार कर दिया।
कहा जाता है कि इस पर मातादीन भंगी बौखला गया और उसने कहा कि कैसा है तुम्हारा धर्म, जो एक प्यासे को पानी पिलाने की इजाजत नहीं देता और गाय जिसे तुम लोग मां मानते हो, सूअर जिससे मुसलमान नफरत करते हैं, लेकिन उसी के चमड़े से बने कारतूस को मुंह से खोलते हो। इसके बाद मंगल पांडेय ने विद्रोह कर दिया। मंगल पांडे द्वारा लगायी गयी विद्रोह की यह चिन्गारी ने ज्वाला का रूप ले लिया। एक महीने बाद ही 10 मई सन् 1857 को मेरठ की छावनी में सैनिकों ने बगावत कर दिया। बाद में क्रांति की ज्वाला पूरे उत्तरी भारत में फैल गई बाद में अंग्रेजों ने जो चार्जशीट बनाई उसमें पहले नाम मातादीन भंगी का ही था।
ये थी देश की आजादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व अर्पण करने वाली हमारी दलित महानायकों की सूची, जिन्हें इतिहास में या तो जगह नहीं दी गई और जगह दी भी गई तो उन्हें एक कोने में सिमटा दिया गया.
और पढ़ें: जानिए क्या है भारतीय संविधान निर्माता भीमराव अम्बेडकर के एकमात्र बेटे यशवंत राव के जीवन की सच्चाई