Harishankar Tiwari stories – पूर्वांचल के ‘क्राइम माफिया’ से ‘बेदाग’ बनने वाले हरिशंकर तिवारी 90 साल की उम्र में मंगलवार को दुनिया से अलविदा कह गए. वही दबंग सफेदपोश माफिया डॉन हरिशंकर तिवारी जिनके बारे में 1980-1990 के दशक में पूर्वांचल से लेकर बिहार तक के, थाने-चौकी, चौपाल-कोर्ट कचहरी तक में यही कहा जाता था कि “ज़ुर्म-ए-संगीन का काफ़िया है यूपी में क्राइम का माफिया है”.
क्राइम की दुनिया से उत्तरप्रदेश की सत्ता के किंगमेकर बनने तक की दास्तां के अगर काले-सफेद पन्ने पढ़ना शुरू करिए तो, एक हरिशंकर तिवारी के भीतर अलग-अलग सोच के कई-कई हरिशंकर तिवारी (Harishankar Tiwari stories) देखने को मिलेंगे. कहा जाता है कि हरिशंकर तिवारी जहाँ अपना पैर रखते थे वो जमीन उनकी हो जाती थी इनके कार्यकाल के बीच न जाने कितने अतीक अहमद, धनञ्जय सिंह, सुरेश ठाकुर जैसे कितने डॉन माफिया निपट गए. यह कहानी है उन्हीं हरिशंकर तिवारी की जो माफिया डॉन पहले बने और बाद में “सफेदपोश” का चोला ओढ़ लिया.
ताकि कोर्ट कचहरी थाने चौकी के चक्करों से महफूज रह सकें. कानून के शिकंजे से गर्दन महफूज रखने को पुलिस की नस कब कहां कौन सी और कैसे दबाकर रखनी है? हरिशंकर तिवारी इसके समझिए ‘हेडमास्टर’ हो चुके थे. अब जब 90 साल की उम्र में ऐसे हरिशंकर तिवारी इस इंसानी दुनिया में नहीं रहे हैं तो ऐसे मौके पर, याद आना लाजिमी है 1980 के दशक में उनकी जिन्दगी से जुड़े कुछ खास विवादों के बारे में…
जब जेल में रहते हुए जीता था चिल्लूपार का चुनाव
1985 में बतौर निर्दलीय उम्मीदवार वे गोरखपुर की चिल्लूपार विधानसभा सीट से पहली बार विधायक बने थे. इस जीत की सबसे खास वजह थी की ये चुनाव हरिशंकर ने जेल में रहते हुए जीता था. ये चुनाव उन्होंने जेल में रहते हुए जीता था. इसके बाद तीन बार कांग्रेस की टिकट पर यहां से जीते और उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री भी बने. हरिशंकर तिवारी चिल्लूपार विधानसभा सीट से अलग-अलग राजनीतिक दलों से लगातार 22 वर्षों तक (1985 से 2007) तक विधायक रहे. अपने लंबे सियासी सफ़र में वो कल्याण सिंह, मायावती और मुलायम सिंह यादव की सरकारों में मंत्री रहे.
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यही कारण है कि जब उनके निधन की ख़बर आई तो इन सभी राजनीतिक दलों की तरफ़ से शोक संदेश व्यक्त किया गया. गोरखपुर स्थित उनके घर ‘हाता’ पर बीजेपी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रमापति राम त्रिपाठी, राज्यसभा सदस्य डॉक्टर राधा मोहन दास अग्रवाल, गोरखपुर की पूर्व मेयर डॉक्टर सत्या पांडेय सहित विभिन्न दलों के कई नेता अपनी शोक संवेदना व्यक्त करने पहुंचे.
जब यूपी में पहली बार आया था ‘गैंगवार’ शब्द
उन्हीं हरिशंकर तिवारी (Harishankar Tiwari stories) की जिंदगी के काले-स्याह पन्ने पढ़ने की जरूरत, 1980 के दशक के मध्य में जिनके हस्तक्षेप की पूर्वांचल में सरकारी परियोजनाओं की शुरुआत होने के साथ ही बोलने लगी थी तूती. इन्हीं हरिशंकर तिवारी के खौफ का आलम सरकारी महकमों पर इस कदर था कि हरिशंकर तिवारी को किसी सरकारी विभाग के अफसर से ठेके वगैरह मांगने जाने की जरूरत तो मानो ‘जीरो’ हो चुकी थी. कौन से ठेके का टेंडर कब और कैसे किस रेट पर खुलना है? यह सब तक हरिशंकर तिवारी ही तय कर देते थे. परदे के पीछे रहकर. तो फिर भला अब ऐसे हरिशंकर तिवारी के जबड़े में पहले से ही फंसे करोड़ों के किसी सरकारी टेंडर पर, भला किसी और की नजर पड़ पाने का सवाल ही कहां बाकी रह जाता था!
कह सकते हैं कि सराकारी टेंडर्स के काले कारोबार ने ही हरिशंकर तिवारी को माफिया डॉन बना डाला था. सरकारी ठेकों में वर्चस्व की खूनी लड़ाई शुरू हुई तो, इटली में जन्मा ‘गैंगवार’ सा खूंखार नाम पूर्वांचल में भी आ धमका. कहने को भले ही यूपी की आपराधिक दुनिया में “गैंगवार” शब्द का खुलकर इस्तेमाल गाजीपुर और वाराणसी में भी हो चुका था. मगर असल में ‘गैंगवार’ का डराने वाला असली रूप तो गोरखपुर में ही देखने को मिला था. वो गैंगवार जिसमें पहली बार इन्हीं हरिशंकर तिवारी का नाम सुर्खियों में आया था.
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जब हरिशंकर तिवारी ने ताड़ लिया कि अब, पूर्वांचल के अपराध जगत में उन्हें ललकारने वाला कोई नहीं है. तो उन्होंने एहतियातन खुद को सुरक्षित करने के लिए, सफेदपोश बनने की जुगत तलाश ली. लिहाजा वे कभी इस पार्टी और कभी उस पार्टी की नाव पर सवार होने लगे. धीरे-धीरे वो भी दिन आ गया कि जो हरिशंकर तिवारी सत्ता के सहारे खुद की गर्दन जरायम की दुनिया में सुरक्षित करने की जुगाड़ तलाशा करते थे. हालात पलटे तो अब वही सत्ता हरिशंकर को अपने काम का समझकर उनकी तलाश में उनके पीछे पीछे घूमने लगी. इसलिए क्योंकि तब के जमाने के राजनीति के मठाधीश जान-समझ चुके थे कि, जहां हरिशंकर तिवारी होंगे वहां उस राजनीतिक दल की हार का तो कोई चांस बाकी रहेगा ही नहीं.
पॉवर के जरिए क्राइम पॉलिटिक्स
कह सकते हैं कि पावर एंड क्राइम पॉलिटिक्स का जितना बेजा ‘कॉकटेल’ बनाकर, हरिशंकर तिवारी ने उसका जीवन पर्यन्त सेवन किया. उतना शायद ही पूर्वांचल का कोई माफिया डॉन ‘सफेदपोश’ बनकर कर पाया होगा. 1990 का दशक आते-आते हरिशंकर तिवारी के जरायम और राजनीति की चौपाल इस कदर मजबूती से जम चुकी थी कि उन्हें अब किसी की जरूरत नहीं बची थी. नेता हो या फिर कोई बड़ा माफिया. सब खुद ही अपने पांवों पर बिना बुलाए हुए ही चलकर हरिशंकर तिवारी की चौपाल तक आने-जाने लगे थे.
कहते तो यह भी थे कि राजनीति के अपराधीकरण होने का श्रेय भी इन्हीं हरिशंकर तिवारी को जाता रहा है. हरिशंकर तिवारी की हनक का अनुमान, अपराध जगत और राजनीति से जुड़े लोगों को साल 1985 में तभी लग गया था जब, जेल के भीतर बंद रहते हुए भी वे चुनाव जीत गए. बताते हैं कि हरिशंकर तिवारी उस जमाने में देश के ऐसे पहले माफिया डॉन सिद्ध हो चुके थे, जिसने जेल के भीतर रहकर चुनाव जीत लिया था.
साल 1985 के उन चुनावों में हरिशंकर तिवारी निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में पहली बार इलेक्शन जीते थे. उन्होंने कांग्रेस के मार्कंडेय नंद को तब 21 हजार 728 वोटों से हराया था. वो सीट थी चिल्लूपार विधानसभा सीट. जिससे पहली बार जीतकर हरिशंकर तिवारी यूपी विधानसभा के भीतर पहुंचे थे. 1970-1980 के दशक में एक वो दौर भी आया जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ जेपी और उनके समर्थकों ने मोर्चा खोल रखा था. मगर तब भी पूर्वांचल में सबकुछ एकदम अलग ही चल रहा था. वहां माफियाओं की खूनी लड़ाई शुरू हो चुकी थी.
Balvant Singh vs Harishankar Tiwari
कॉलेज और यूनिवर्सिटीज को पूर्वांचल के माफिया टारगेट करने लगे थे. पूर्वांचल में छात्र संघों की राजनीति में सबसे पहले माफिया को घुसाने का श्रेय भी इन्हीं हरिशंकर तिवारी को ही जाता है. इस सबके बाद दिलचस्प यह है कि ऐसे हरिशंकर तिवारी जो अपराध और राजनीति दोनों की नाव पर पांव रखकर जीवन पर्यन्त चलते रहे, कभी उनके ऊपर लगे तमाम संगीन आरोप सिद्ध नहीं हो सके. यह वो दौर था जिसमें हरिशंकर तिवारी के सामने गुंडई में उन्हें चुनौती देने के लिए सामने आ डटे बलवंत सिंह.
हरिशंकर अगर ब्राह्मण छात्रों को सपोर्ट करते तो, बलवंत सिंह ठाकुर छात्रों को आगे बढ़ाते. ऐसे बलवंत सिंह से जब कालांतर में वीरेंद्र प्रताप शाही ने हाथ मिलाया, तो उनकी ताकत दोगुनी हो गई. जबकि हरिशंकर तिवारी खुद को कुछ हद तक कमजोर महसूस करने लगे. साल 1975 आते-आते वो दौर भी पूर्वांचल में आ गया कि जब, गोरखपुर विश्वविद्यालय में माइक से ऐलान किया जाने लगा कि दोपहर 12 बजे से लेकर शाम 4-5 बजे तक लोग अपने-अपने घरों से बाहर न झांके. क्योंकि यूनिवर्सिटी कैंपस में या उसके आसपास कभी भी गोलियां चलनी शुरू हो सकती हैं.
25 मुक़दमे दर्ज लेकिन एक भी नहीं हुए साबित
हरिशंकर (Harishankar Tiwari stories) के खिलाफ गोरखपुर की हद के थानों में उस जमाने में 25 से ज्यादा मुकदमे दर्ज हो चुके थे. इन मुकदमों में थे हत्या, हत्या की कोशिश. हत्या के षड्यंत्र, अपहरण, जबरन वसूली, रंगदारी, सरकारी कामकाज में बाधा डालने आदि के. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इतने मुकदमों में से किसी में भी आरोप साबित नहीं हो सके.
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कहा तो यह भी जाता है कि जब हरिशंकर तिवारी के मुहंलगे गैंगस्टर शूटर श्रीप्रकाश शुक्ला ने वीरेंद्र शाही को ढेर किया. तब भी हरिशंकर तिवारी का नाम तो खूब उछला मगर उस हत्याकांड में भी उनका बाल-बांका कोई नहीं कर सका.
वीरेंद्र प्रताप शाही हत्याकांड
वीरेंद्र प्रताप शाही हत्याकांड के बाद पूर्वांचल की राजनीति में ब्रह्माण और ठाकुरों के बीच गैंगवार का श्रेय भी दिया तो इन्हीं हरिशंकर तिवारी को जाता रहा. मगर हरिशंकर तिवारी के ऊपर इन किस्से कहानियों का कभी कोई असर या फर्क नजर नहीं आया. माफिया से माननीय नेता और फिर मंत्री बने हरिशंकर तिवारी के जीवन में वो दिन भी आया जब उन्हें अपराध और राजनीति दोनों से अपने पांव पीछे खींचने पड़ गए. लिहाजा ऐसे में उन्होंने अपनी राजनीतिक विरासत हवाले कर दी अपने बेटे विनय शंकर तिवारी के हाथों में.
सराकारें बदलती रही पर मंत्री पद नहीं
कभी गोरखपुर में पढ़ने के वास्ते एक छोटे से कमरे में रहने वाले हरिशंकर तिवारी का अब जटाशंकर मोहल्ले में किलेनुमा घर है. जो गोरखपुर में “अहाता” के नाम से मशहूर है. 1996 में कल्याण सिंह की सरकार में वे साइंस एंड टेक्नोलॉजी मंत्री बने. साल 2000 में उन्हें स्टांप मिनिस्टर बना दिया गया था. 2001 में जब राजनाथ सिंह सूबे के मुख्यमंत्री बने तो उस सरकार में भी हरिशंकर तिवारी का मंत्रालय कायम रहा.
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साल 2002 में मायावती की सरकार बनी तब जब एक मंत्रालय हरिशंकर तिवारी के नाम आरक्षित रहा. 2003 में सूबे में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी तो पासा पलटकर हरिशंकर तिवारी उधर निकल गए और मंत्री पद पक्का कर लिया. मतलब, सूबे में सरकार भले ही किसी भी पार्टी की क्यों न आती जाती रही हो. हर सरकार में मंत्री का एक पद समझिए हरिशंकर तिवारी के लिए आरक्षित रहा.
Harishankar Tiwari stories – जब निकल पड़ा था हुजूम
पुलिस ने जब छापेमारी की कार्रवाई की थी तो बसपा से हरिशंकर तिवारी के पुत्र विनय शंकर तिवारी विधायक हो चुके थे. उन्होंने पुलिस से सर्च वारंट भी मांगा था, मगर पुलिस के पास कोई कागजात नहीं थे. यही वजह थी कि पुलिस को बैकफुट पर आना पड़ा था. पूर्व सभापति गणेश शंकर पांडेय भी वहीं रहते थे. इसे तिवारी परिवार ने मुद्दा बनाया. पूर्व मंत्री, पूर्व सभापति और वर्तमान विधायक के आवास पर बिना सर्च वारंट के छापे के विरोध में 24 अप्रैल 2017 को बुजुर्ग हो चुके हरिशंकर तिवारी सड़क पर निकल पड़े.
आज भी बोलने से कतराती है पुलिस
Harishankar Tiwari stories – उस समय गोरखपुर में आईपीएस हेमराज मीणा एसपी सिटी हुआ करते थे. खोराबार के जगदीशपुर में मार्च 2017 में रिलायंस पेट्रोल पंप के कर्मचारियों से 98 लाख रुपये की लूट हुई थी. एसपी सिटी ने इस मामले में बलिया के छोटू चौबे को रिमांड पर लिया था. पुलिस ने छोटू चौबे से पूछताछ की और बताया कि लूट में सोनू पाठक नाम का व्यक्ति भी शामिल है. पुलिस का कहना था कि उसकी लोकेशन पूर्व मंत्री हरिशंकर तिवारी के घर पर मिली थी.
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इसी आधार पर एसपी सिटी हेमराज मीणा की अगुवाई में पांच थानों की पुलिस ने बसपा सरकार के पूर्व मंत्री के घर छापा मारा था. करीब 30 मिनट तक छानबीन की और छह लोगों को हिरासत में लेकर निकल गए. इन सबसे थाने में पूछताछ हुई, मगर बाद में एक शख्स अशोक सिंह को ही अवैध असलहा रखने के आरोप में जेल भेजा गया..