भारत में देशप्रेमियों की कभी कमी नहीं हुई है. फिर चाहे वो आजादी के पहले हो या आजादी के बाद. लेकिन समय के हिसाब से दोनों की ही विचारधाराओं में काफी अंतर था. आजादी के पहले हमारे क्रांतिकारी नेता सिर्फ देश कि सोंचते थे. तब जाति- धर्म को लेकर किसी भी नेता, राजनेता या संगठन का कोई व्यक्तिगत झुकाव नहीं था. सिर्फ मकसद हुआ करता था देश की आजादी. लेकिन आजादी के ठीक बाद कई ऐसे नेता उभरकर आए जो देशहित के साथ-साथ जाती और समाज में हो रहे गलत रवैये के खिलाफ थे. जिसमे कुछ बड़े नाम सामने निकल कर आते हैं एक आंबेडकर और दूसरा वीर सावरकर. काफी हद तक दोनों ने सामाजिक कुरीतियों को बदलने पर जोर दिया लेकिन दोनों के विचारों में जमीन-आसमान का अंतर रहता था. और धीरे-धीरे यही अंतर अज्नीतिक रूप ले लेता है. कईयों ने आंबेडकर को अपना गुरु मान लिया और उनकी पूजा करने लगे इस परिपेक्ष्य में की सिर्फ आंबेडकर ही दलितों और बहुजनों का भला सोचते है. और दूसरी तरफ उनके लिए वीर सावरकर आज एक विलेन बन चुके है. ऐसा क्यों ? क्या उन्हें इतिहास कि जानकारी नहीं है या फिर वो जानकारी रखने में इच्छुक नहीं है? मानों बिना दूसरा पहले देखे उसको बुरा बना देना और पहले वाले को मसीहा. खैर सामुदायिक विचारों से हटकर आंबेडकर और सावरकर में काफी अंतर था आंबेडकर उनके राष्ट्रवादी विचारों के विरोधी थे तो सावरकर उनके धर्मपरिवर्तन के और अनायास कुतर्कों के खिलाफ.
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देश के मौजूदा सत्ताधारी जब कभी मौका पाते हैं, स्वतंत्रता आंदोलन के खास कालखंड के एक विवादास्पद चरित्र-विनायक दामोदर सावरकर के महिमा-मंडन के लिए कोई न कोई नयी कथा रचते नजर आते हैं. ऐसे ही संविधान निर्माता और भारत के पहले कानून मंत्री डॉ भीमराव अंबेडकर की पूरी राजनीति हिंदू दक्षिणपंथ के खिलाफ थी. वह हिंदू धर्म की कुरीतियों के कड़े विरोधी थे. जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव के दंश से विक्षोभित अम्बेडकर ने स्पष्ट कहा था कि ‘मैं हिंदू धर्म में पैदा ज़रूर हुआ, लेकिन हिंदू रहते हुए मरूंगा नहीं’ बाद में वह धर्म बदलकर बौद्ध हो गए. अपनी प्रतिज्ञाओं में उन्होंने हिंदू धर्म के लिए कठोर शब्दों का इस्तेमाल किया. बावजूद इसके मौजूदा हिंदू दक्षिणपंथी दल अम्बेडकर के प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं. लेकिन स्थिति हमेशा ऐसी नहीं थी. हिंदू दक्षिणपंथ के पुराने अगुआ विनायक दामोदर सावरकर खुलेआम डॉ अम्बेडकर की आलोचना करते थे.
सावरकर की हिंदूवादी विचारधारा को आंबेडकर ने बताया राष्ट्र विरोधी
डॉ अम्बेडकर ने वीडी सावरकर के हिन्दुत्व, कथित राष्ट्रवाद और उनकी राजनीतिक वैचारिकी को भारतीय राष्ट्रराज्य की अवधारणा और समाज का विरोधी बताया. यही नहीं, उनका कहना था कि सावरकर का यह चिंतन भारत की सुरक्षा के लिए खतरनाक है. स्वयं बाबा साहेब के शब्दों में ही पढ़ियेः ‘यदि श्री सावरकर की एकमात्र त्रुटि उनकी असंगति होती तो यह कोई बहुत चिंता का विषय नहीं होता. परन्तु अपनी योजना का समर्थन करके वह भारत की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा पैदा कर रहे हैं.
वे चाहते हैं कि हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र के बीच शत्रुता के बीज बो देने के बाद वे एक साथ, एक ही विधान के अंतर्गत, एक ही देश में रहें. सावरकर यह क्यों चाहते हैं; इसकी व्याख्या करना कठिन नहीं है. श्री सावरकर को यह श्रेय नहीं दिया जा सकता कि उन्होंने कोई नया सूत्र ढूंढ निकाला है. श्री सावरकर के इस विश्वास को समझना कठिन है कि उनका सूत्र ठीक है. उन्होंने स्वराज की अपनी योजना को पुराने आस्ट्रिया और पुराने तुर्की के नमूने और ढांचे पर आधारित किया है. उन्होंने देखा कि आष्ट्रिया और तुर्की में एक बड़े राष्ट्र की छाया में अन्य छोटे राज्य(राष्ट्र) रहते थे, जो एक विधान से बंधे हुए थे और उस बड़े राष्ट्र का छोटे राष्ट्रों पर प्रभुत्व रहता था.
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हिन्दू-मुस्लिम एकता के गांधीवादी-परिप्रेक्ष्य के आलोचक थे आंबेडकर
डॉ. अम्बेडकर की नजर में सावरकर की वैचारिकी भारतीय-राष्ट्र के हितों के सर्वथा विरुद्ध है और उन्होंने यह बात साफ शब्दों में कही है. सावरकर ने शुरुआती दौर में एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में जो काम किया, उसके कुछ चमकदार पहलू भी रहे. वह और उऩके कई साथी जेल गये. लेकिन जेल-प्रवास में वह टूटते नजर आये. भगत सिंह या असंख्य स्वाधीनता सेनानियों जैसा उनमें आत्मबल नहीं दिखा. अंततः उऩके संघर्ष का समापन माफीनामे से हुआ. बाद के दिनों में उन्होंने रत्नागिरी में कुछ सामाजिक कार्य करने शुरू किये. पतित-पावन मंदिर उसी दौर में बनवाया.
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आंबेडकर किस झाड़ की पत्ती हैं : वीर सावरकर
सावरकर समग्र के खंड सात में सावरकर के एक लेख का शीर्षक है, ‘बौद्ध धर्म स्वीकार कर तुम असहाय हो जाओगे’. इसी लेख में सावरकर ने लिखा है, ”अत: डॉ. अंबेडकर नामक व्यक्ति भिक्षु अंबेडकर हो जाए तो भी किसी हिंदू को किसी तरह का सूतक नहीं लगने वाला है. न हर्ष, न विमर्श, जहां स्वयं बुद्ध हार गए वहां अम्बेडकर किस झाड़ की पत्ती हैं?” साल 1956 में डॉ. अंबेडकर द्वारा अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपना लेने के बाद सावरकर ने 30 अक्टूबर 1956 को ‘केरसी’ में लिखा था, ”डॉ. अम्बेडकर ने अपने कुछ लाख अनुयायियों के साथ जो सम्प्रदाय बदल किया था या उसे वे चाहें तो धर्मान्तरण कहें, बौद्ध धर्म के लिए उनके मन में कोई प्रगाढ़ भक्ति उत्पन्न हुई, इसलिए नहीं किया. उनके मन के अंधियारे कूप में एक हिंदू राष्ट्रघाती महत्वाकांक्षा छिपी बैठी है.”