एक ऐसा मुख्यमंत्री जिसे लोग उसकी इमानदारी के लिए याद करते हैं. जिसके बारे में लोग अपने बच्चों को बताते हुए आज भी कहते हैं कि अगर सच में कुछ बनना है तो भोला पासवान की तरह बनो. लेकिन आज के समाज में अगर हम अपने घर में किसी राजनेता का नाम ले लेते हैं या फिर तारीफ कर देते हैं तो लोग कहते हैं कि क्या कह रहे हो? दरअसल आज हम जिस व्यक्ति के बारे में बताने जा रहे हैं वो तीन बार बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. एक ऐसा नेता जिसकी छबि आज के राजनेताओं से बिलकुल उलटी थी. सादगी ऐसी थी कि बड़ी–बड़ी ऑफिसियल मीटिंग्स भी एक पेड़ के नीचे कर लिया करते थे. मुख्यमंत्री ऐसा कि जब सोने की बात आती थी तो एक झोपड़ी में सो लेते थे. लेकिन अपने कर्तव्यों के साथ कभी समझौता नहीं करते थे. आज हम बात करने जा रहे हैं बिहार के तीन बार के मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री के व्यक्तित्व के बारे में ….
मुख्यमंत्री का सफ़र बैलगाड़ी से
देश को पहले दलित मुख्यमंत्री मिलने की तारीख थी 22 मार्च 1968. राज्य था बिहार और मुख्यमंत्री का नाम था भोला पासवान शास्त्री. राजनीतिक सियासत कि शुरुआत तो उन्होंने देश के सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस से की थी लेकिन साल 1967 में हुए विधानसभा चुनाव में हारने और फिर कांग्रेस का बाहर से समर्थन देकर वीपी मंडल को मुख्यमंत्री बनाने को लेकर जो सियासी ड्रामा हुआ, उससे कांग्रेस टूट गई. विनोदानंद झा के नेतृत्व में भोला पासवान शास्त्री समेत कुल विधायकों ने पार्टी तोड़कर नई पार्टी बनाई और नाम रखा लोकतांत्रिक कांग्रेस.
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संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, जन क्रांति दल, जनसंघ और निर्दलीय विधायकों के समर्थन से भोला पासवान शास्त्री 22 मार्च, 1968 को बिहार के मुख्यमंत्री और देश के पहले दलित मुख्यमंत्री बने. आज के दौर में मुख्यमंत्री का ओहदा कितना बड़ा होता है इसका अंदाजा आप टीवी चैनलों मुख्यमंत्री को देख कर लगा सकते हैं या फिर आप अगर कभी उनसे रूबरू हुए हों. लेकिन इन सब से अलग था ये मुख्यमंत्री जो मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उन्हें अपने गांव जाने के लिए बैलगाड़ी का ही सहारा लेता था. क्योंकि गांव में सड़क तक नहीं थी. उनका गांव पूर्णिया जिले में पड़ता था, जिसका नाम था बैरगाछी.
भोला पासवान शास्त्री की खुद की कोई औलाद नहीं थी तो उनके भतीजे विरंची पासवान ने उनसे कहा कि वो अपने गांव में एक सड़क बनवा दें ताकि लोगों को आने-जाने में सुविधा हो सके. भोला पासवान शास्त्री ने कहा था- अगर मैं अपने गांव में सड़क बनवा दूंगा तो मेरे ऊपर एक दाग लग जाएगा.
3 महीने तक चला पहला कार्यकाल
हालांकि भोला पासवान शास्त्री जब पहली बार मुख्यमंत्री बने तो महज तीन महीने तक ही अपना कार्यकाल संभाल सके. क्योंकि सिर्फ 17 विधायकों वाली पार्टी के एक नेता का लंबे समय तक मुख्यमंत्री पद पर बने रहना मुश्किल ही था और यही हुआ. जून महीना खत्म होते-होते उन्होंने इस्तीफा दे दिया और फिर 29 जून 1968 को बिहार में पहली बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया. फरवरी 1969 में बिहार में मिडिल-टर्म इलेक्शन हुए और बिहार के सियासी इतिहास में ये पहली बार था, मिडिल-टर्म इलेक्शन करवाए जा रहे थे.
इस मिडिल-टर्म इलेक्शन के बाद भी किसी दल को बहुमत नहीं मिला. कांग्रेस भले ही सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन बहुमत नहीं था तो उसने दूसरी पार्टियों और निर्दलियों के सहारे सरदार हरिहर सिंह को मुख्यमंत्री बना दिया. लेकिन सरकार नहीं ही चलनी थी तो नहीं चली. सरदार हरिहर सिंह के इस्तीफे के बाद फिर से भोला पासवान शास्त्री मुख्यमंत्री बने और फिर से 13 दिन के अंदर ही उन्हें फिर से इस्तीफ़ा देना पड़ गया.
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और एक बार फिर वही हुआ जो साल 1968 में हुआ था. प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग गया. लेकिन बस फर्क इतना था कि इस बार विधानसभा भंग नहीं हुई थी तो चुनाव की नौबत नहीं आई थी. कांग्रेस ने जैसे-तैसे कोशिश करके दरोगा प्रसाद राय को मुख्यमंत्री बना दिया. उसके बाद भी सरकार नहीं चली तो फिर गैर कांग्रेसी दलों ने कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री बना दिया. ये सरकार भी नहीं चली और फिर से भोला पासवान शास्त्री के नेतृत्व में लोकतांत्रिक कांग्रेस की सरकार बनी क्योंकि तब तक लोकतांत्रिक कांग्रेस के संस्थापक विनोदानंद झा इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस के साथ लौट चुके थे और भोला पासवान शास्त्री लोकतांत्रिक कांग्रेस को लोकतांत्रिक दल के नाम से चला रहे थे. इंदिरा वाली कांग्रेस भोला पासवान शास्त्री को समर्थन दे ही रही थी.
इंदिरा के मंसूबों पर फेर दिया था पानी
देश में लोकतंत्र का वो दौर था जब राजनीति में पैसे या अपनी मर्ज़ी से दल बदल जैसा कोई कानून नहीं था. ऐसे में पार्टी बदलना और पार्टी का ही नाम बदलकर सत्ता में रहना काफी आसान था. इस बीच इंदिरा वाली कांग्रेस के नेताओं ने जिद्द कर दी कि भोला पासवान शास्त्री को अपनी पार्टी का कांग्रेस के साथ विलय कर देना चाहिए. लेकिन भोला पासवान शास्त्री नहीं माने और कांग्रेस ने राजनीतिक लालच का हथकंडा अपनाया जिसके बाद भोला पासवान की पार्टी में कांग्रेस कोटे से बने सारे मंत्रियों ने पार्टी से ही इस्तीफ़ा दे दिया. जिसका नतीजा ये हुआ कि सरकार फिर गिर गई और भोला पासवान शास्त्री ने विधानसभा को भी भंग करने की सिफारिश कर दी, जिसके बाद बिहार में फिर से विधानसभा के चुनाव हुए.
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हालांकि सरकार गिरने के बाद भोला पासवान शास्त्री ने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर लिया. इंदिरा गांधी ने उन्हें राज्यसभा में भेज दिया और वहां केंद्र में उन्हें शहरी विकास और आवास मंत्री बना दिया गया. साल 1978 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो संविधान के अनुच्छेद 338 के तहत अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग बनाया गया. तब कांग्रेस का नेता होने के बावजूद भोला पासवान शास्त्री को आयोग का पहला अध्यक्ष बनाया गया.
परिवार आज भी जी रहा मजदूरों की जिन्दगी
अब आप जरा उनके व्यक्तित्व पर गौर करिए, कि एक इंसान जो बिहार जैसे प्रदेश का तीन बार का मुख्यमंत्री, इंदिरा सरकार में केंद्रीय मंत्री और फिर एससी-एसटी आयोग का अध्यक्ष, लेकिन 9 सितंबर, 1984 को जब उनकी मृत्यु हुई तो परिवार के पास इतने भी पैसे नहीं थे कि पूरे रीति रिवाज़ के साथ उनका श्राद्ध किया जा सके. आज की तारीख में भी उनका परिवार झोपड़ी में रहता है और मनरेगा के तहत मजदूरी करता है और जब ऐसी दशा एक मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री के परिवार की है तो ऐसे में इस बात का अंदाजा बड़ी ही आसानी से लगाया जा सकता है कि आज के दौर में इतने दलित कानूनों के बावजूद भी दलितों की स्थिति और उनकी बदहाली का क्या ही आलम होगा.
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भोला पासवान शास्त्री का कार्यकाल भले ही छोटा रहा हो लेकिन एक दलित नेता के तौर पर उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए जिस तरह से अपने कार्यों का निर्वाहन किया है उससे आज पूरे देश में केवल दलित समाज ही नहीं बल्कि हर इंसान को ऐसे मुख्यमंत्री पर गर्व महसूस होता है. एक राजनेता के तौर आज के बड़े और छोटे नेताओं को इस बात की सीख लेनी चाहिए की आपका चुनाव जनता ने किया है ताकि आप जनता की भलाई कर सको ना कि अपनी खुद की कमाई मोटी करने में लगे रहो.