कुछ दिन पहले हमने आपको संविधान निर्माण से जुड़े एक ऐसी शख्सियत से रूबरू करवाया था जिसे संविधान के जनक ‘डॉ भीमराव अंबेडकर’ खुद से बेहतर बताते थे. और उनका नाम था स्वामी अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर. संविधान बनाने में इस शख्सियत के योगदान को हम कभी नहीं भुला सकते.
लेकिन हमने अभी सिर्फ संविधान निर्माण के लिए गठित ड्राफ्टिंग कमिटी में शामिल सिर्फ पुरुषों के योगदान के बारे में बताया है. दरअसल संविधान निर्माण के लिए गठित ड्राफ्टिंग कमिटी के कुल 389 सदस्यों में सिर्फ 15 महिलाएं शामिल थी. लेकिन क्या आपको पता है इन 15 महिलाओं में से दलित समुदाय से आनेवाली एकमात्र युवा महिला भी थी, जिनका नाम था दक्षिणायनी वेलायुदन.
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संविधान सभा में किसी महिला का सदस्य बनना अपने आप में बहुत बड़ी उपाधि थी. वो भी ऐसे वक़्त में जब भारतीय समाज में जातिवाद पूरी तरह से हावी थी ऊपर से महिलाओं की सामाजिक स्थिति का तो क्या ही कहना. जिन महिलाओं का घर से बाहर निकलना तक दूभर था उसके लिए उस वक़्त में संविधान सभा में शामिल होना नारी समाज के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी.
संविधान सभा की सबसे युवा सदस्य
साल 1912 में कोच्ची के एक छोटे से द्वीप मुलावुकड में जन्मी दक्षायिणी वेलायुदन का उनके निजी और राजनीतिक जीवन पर तत्कालीन केरल में मौजूद प्रचंड जाति व्यवस्था का गहरा प्रभाव रहा है. वेलायुदन ऐसे पुलाया समुदाय से संबंध रखती थी, जिन्हें केरल राज्य के शुरूआती समुदायों में से एक माना जाता था.
घोर छूआछूत का शिकार था पुलाया समुदाय
ऐश्ले मैथ्यू ने अपने शोधपत्र ‘लेबर पार्टीशिपेशन एंड सोशल मोबिलिटी अमंग द पुलाया वुमेन ऑफ रूरल केरला’ में इस बात का जिक्र किया है कि, “पुलाया समुदाय आजदी से पहले भारतीय समाज में व्याप्त घोर छुआछूत का शिकार था. सामाजिक पाबंदियों के चलते इस समुदाय से संबंध रखने वाले ज्यादातर लोग अपनी आजीविका के लिए मुख्यता खेतों में दिहाड़ी मजदूरी करते थे.”
परिवार के लिए ‘माँ दुर्गा’ से कम नहीं थी ‘दक्षायिणी’
जिस वक़्त दक्षायिणी का जन्म हुआ था उस वक़्त केरल समाज में व्याप्त इस गैर संवैधानिक जाती व्यवस्था और छुआछूत जैसी कुरीतियों का विरोध होना शुरू हो चुका था. अय्यनकाली जैसे समाज सुधारकों ने पुलाया जैसे पिछले समुदाय के उत्थान की दिशा में आवाज उठाना शुरू कर दिया था, हालांकि मंजिल इतनी भी आसान नहीं थी कि एक कदम रखा कि घर में घुस गए.
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लेकिन जिस समाज में बहुसंख्यकों का जीना हरम हो जाए उस समाजज में विद्रोह का विगुल फूंका जाना तो तय था. दक्षायिणी ने अपनी आत्मकथा में इस बात का जिक्र करते हुए लिखती हैं कि, ‘मैं किसी गरीब पुलाया परिवार में पैदा नहीं हुई थीं. मेरे पांच भाई-बहनों में से पिता मुझसे ही सबसे ज्यादा प्यार करते थे और मेरा समर्थन करते थे.’
उनके इसी प्यार और समर्थन का नतीजा था कि दक्षायिणी. जो अपने दौर की पहली दलित महिला बनीं, जिन्होंने ऊपरी अंगवस्त्र पहनना शुरू किया, जबकि उनसे पहले पुलाया समुदाय की महिलाएं अंगवस्त्र नहीं पहनती थीं. साथ वो भारत की पहली दलित महिला ग्रेजुएट भी हुईं.
उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि, “जहां अन्य दलित लड़कियों के अजाकी, पुमाला, चक्की, काली, कुरुंबा जैसे अजीबो-गरीब नाम हुआ करते थे, वही उनके माता-पिता ने उनका नाम दक्षिणायिणी रखा था, जिसका अर्थ होता है ‘दक्ष कन्या’ अर्थात ‘दुर्गा’. इस बात से येपता चलता है कि उनका परिवार समाज के दकियानूसी विचारधारा को नहीं मानता था. बल्कि एक ऐसी विचारधरा में विश्वास करता था जो सबको समान अधिकार और सम्मान दिलाने की बात करता है.
जब दलित अधिकारों के लिए उठाई थी आवाज़
साल 1942 में दक्षिणायिनी कोचीन विधानसभा सीट के लिए नॉमिनेट की गयीं और उसके 3 साल बाद यानि 1946 में उन्हें संविधान सभा की पहली और एकमात्र दलित महिला सदस्या के रूप में चुना गया. उनका मानना था कि ‘कोई भी संविधान सभा केवल संविधान का निर्माण ही नहीं करती, बल्कि यह समाज के नये दृष्टिकोण का निर्माण करती है.’
महात्मा गांधी की दृढ़ समर्थक रहीं दक्षिणायिनी छूआछूत और सामाजिक भेदभाव की कट्टर विरोधी थीं. उनका मानना था “कि जब इस तरह की मान्यताएं समाज में व्याप्त रहेंगी, तब तक गांधी जी के ‘हरिजन’ की अवधारणा के बारे में बात करना भी बेमानी है.” दक्षिणायिनी ने केवल अपने समुदाय में ही नहीं, बल्कि हर जाति और समुदाय में व्याप्त इस तरह की चीजों का खुल कर विरोध किया.
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उनके इस विरोध का परिणाम ही था कि संविधान में धारा-17 को जोड़ा गया, जिसके तहत अस्पृश्यता को दंडनीय अपराध माना गया. जाते जाते आपको बता दें कि दक्षिणायनी 1946-49 तक ‘डिप्रेस्ड क्लासेज यूथ्स फाइन आर्ट्स क्लब’ की अध्यक्ष और मद्रास में द कॉमन मैन की संपादक भी रही. इसके बाद वह महिला जागृति परिषद की संस्थापक अध्यक्ष बनीं. 66 साल की उम्र में साल 1978 में उन्होंने आखिरी सांस ली.