करीब 24 साल की उम्र में 23 मार्च 1931 को ब्रिटिश हुकूमत ने भगत सिंह को फांसी पर लटका दिया था. उनके साथ सुखदेव और राजगुरु को भी फांसी दी गई. ईवी रामासामी ‘पेरियार’ और डॉ. अंबेडकर ने अपने- अपने समाचार पत्रों में इस फांसी पर अपनी राय रखी.
भगत सिंह की फांसी के करीब 5 दिन बाद 29 मार्च 1931 को पेरियार ने अपने समाचार पत्र ‘कुदी-अरासु’ में इस विषय पर ‘भगत सिंह’ शीर्षक से सम्पादकीय लेख लिखा.डॉ अंबेडकर ने अपने अख़बार ‘जनता’ में 13 अप्रैल 1931 को इन तीन युवाओं की शहादत पर ‘तीन बलिदान’ शीर्षक शीर्षक से एक सम्पादकीय लिखा. पेरियार के लेख की मूल भाषा तमिल थी जबकि अंबेडकर का संपादक निकालने वाला एक मराठी भाषी था.
भगत सिंह के प्रति पेरियार का सम्मान
इन दोनों महान विभूतियों के लेख इस बात की गवाही देते हैं कि देश और समाज के लिए जीने और मरने वाले भगत सिंह जैसे महान लोगों के प्रति पेरियार और अंबेडकर क्या सोच रखते थे. हम सबसे पहले पेरियार के सम्पादकीय को लेते हैं, जिसकी पहली ही लाइन इस शब्द से शुरू होती है कि ‘शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसने भगत सिंह के फांसी दिए जाने पर दुःख न प्रकट किया हो. और न ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जिसने उन्हें फांसी के तख्ते तक तक पहुंचाने के लिए सरकार की निंदा न की हो’.
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इस लाइन के जरिए अपना दुःख प्रकट करने के बाद पेरियार भगत सिंह की फांसी से जुड़े गांधी और ब्रिटिश शासन के बीच खुले और गुप्त संवाद की चर्चा करते हुए, इस पूरे संदर्भ में भारतीय जनता की प्रतिक्रिया का जिक्र करते हैं और बताते हैं कि कैसे जनता का एक हिस्सा इस फांसी के लिए गांधी को भी जिम्मेदार मानते हुए उनके खिलाफ नारे लगा रहा है.
‘भारत को भगत सिंह के आदर्शों की जरूरत’: पेरियार
वो भगत सिंह के व्यक्तित्व की महानता और अपने उद्देश्यों के लेकर उनके समर्पण की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं कि ‘हम दावे के साथ कह सकते हैं कि वो एक ईमानदार शख्सियत थे. हम इस बात को पूरे समर्थन और विश्वास के साथ कहना चाहेंगे कि भारत को भगत सिंह के आदर्शों की ही आवश्यकता है. जहां तक हम जानते हैं, वे समधर्म (बहुआयामी समानता) और साम्यवाद के आदर्श में विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे.
पेरियार भगत सिंह का एक चाह्र्सित हवाला पेश करते हुए बताते हैं कि भगत सिंह का आदर्श सबके लिए समता और साम्यवाद के आदर्श की स्थापना था. भगत सिंह को कोट करते हुए वो कहते हैं कि – ‘हमारी लड़ाई उस समय तक जारी रहेगी, जब तक साम्यवादी दल सत्ता में नहीं आ जाते और लोगों के जीवन स्तर और समाज में जो असमानता है, पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाती. यह लड़ाई हमारी मौत के साथ समाप्त होने वाली नहीं है. यह प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से लगातार चलती रहेगी.’
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धर्म, जाति, ईश्वर, असमानता, और गरीबी पर भगत सिंह की चर्चा करते हुए उनके पक्षधर रहते थे. वो उनके द्वारा समता और साम्यवाद हासिल करने के तरीके से पूरी तरह सहमत न होते हुए भी उनके आदर्शों की प्रशंसा करते हैं. भगत सिंह के व्यक्तित्व का अपने शब्दों में चित्रण करते हुए पेरियार लिखते हैं कि- ‘भगत सिंह ने उत्कृष्ट, असाधारण और गौरवशाली मौत अपने लिए चुनी थी, जिसे साधारण इंसान आसानी से प्राप्त नहीं कर सकता. इसलिए हम हाथ उठाकर, अपने सभी शब्द-सामर्थ्य के साथ और मन की गहराइयों से उनकी प्रशंसा करते हैं.’
भगत सिंह को लेकर अंबेडकर की सोंच
13 अप्रैल 1931 को लिखे पाने सम्पादकीय में अंबेडकर भगत सिंह, राजगुरु,और सुखदेव की फांसी को देश के लिए बलिदान के रूप में रेखांकित करते हैं. अपने इस सम्पादकीय के जरिए वो ये कहते हैं कि उनके साथ न्याय नहीं हुआ था बल्कि अन्याय हुआ था.
वो आगे लिखते हैं कि- अगर सरकार को यह उम्मीद हो कि इस घटना से ‘अंग्रेजी सरकार बिल्कुल न्यायप्रिय है या न्यायपालिका के आदेश पर हुबहू अमल करती है’ ऐसी समझदारी लोगों के बीच मजबूत होगी और लोग उसका समर्थन करेंगे तो यह सरकार की नादानी है, क्योंकि यह बलिदान ब्रिटिश न्याय देवता की शोहरत को अधिक धवल और पारदर्शी बनाने के इरादे से किया गया है, इस बात पर किसी को भी यकीन नहीं है.
खुद सरकार भी इस समझदारी के आधार पर अपने आप को सन्तुष्ट नहीं कर सकती है. फिर बाकियों को भी इसी न्यायप्रियता के आवरण में वह किस तरह सन्तुष्ट कर सकती है? न्याय देवता की भक्ति के तौर पर नहीं बल्कि विलायत के कन्जर्वेटिव / राजनीतिक रूढिवादी/पार्टी और जनमत के डर से इस बलिदान को अंजाम दिया गया है, इस बात को सरकार के साथ दुनिया भी जानती है.’
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‘गन्दी राजनीती का शिकार हुए भगत’
अपने सम्पादकीय की शुरुआत में डॉ अंबेडकर उन आरोपों का जिक्र करते हैं जिनके तहत इन तीनों को फांसी दी गयी थी. फिर अंबेडकर इन तीनों सपूतों की बहादुरी की चर्चा करते हुए लिखते हैं कि ‘हमारी जान बख्श दें’ इस तरह की दया की अपील तीनों में से किसी ने भी नहीं की थी. हां फांसी पर चढाने के बजाय हमें गोलियों से उड़ा दिया जाए ऐसी इच्छा भगत सिंह ने की थी. ऐसी खबरें जरूर आई हैं लेकिन उनकी इस आखिरी इच्छा का भी सम्मान नहीं किया गया.’
डॉ. अंबेडकर ने भगत सिंह की फांसी के संदर्भ में भारत और ब्रिटेन में हुई खुली और गुप्त राजनीति की चर्चा करते हैं और इसमें गांधी और उस समय के वायसराय लार्ड इर्विन की भूमिकाओं पर बात करते हैं. डॉ. अंबेडकर की राय में गांधी और इर्विन भगत सिंह की फांसी को आजीवन कारावास में बदलने के हिमायती थे. इर्विन से गांधी जी ने ये वादा भी लिया था.
लेकिन ब्रिटेन की आंतरिक राजनीति और ब्रिटेन की जनता को खुश करने लिए इन तीनों को फांसी दी गई. वे अपनी संपादकीय के अंत में लिखते हैं- ‘लुब्बोलुआब यही कि जनमत की परवाह किए बगैर, गांधी-इर्विन समझौते का क्या होगा, इसकी चिन्ता किए बिना विलायत के रूढ़िवादियों के गुस्से का शिकार होने से अपने आप को बचाने के लिए, भगत सिंह की बलि चढ़ायी गई. यह बात अब छिप नहीं सकेगी यह बात सरकार को पक्के तौर पर मान लेनी चाहिए.’