Guru Hargobind Singh Ji – गुरु अरजन साहिब के लाहौर में बलिदान के बाद गुरुगद्दी पर छठें गुरु के रूप में आसीन होने के बाद गुरु हरगोबिंद जी धर्म व मानवीय मूल्यों के सशक्त पक्षधर बन कर उभरे. सिख समुदाय को वो पहले ऐसे गुरु थे जिन्होंने दो तलवारें धारण की जिसमे ये जरूरी नहीं की वो हमेशा युद्ध के लिए इस्तेमाल हो, दरअसल इन दोनों तलवारों को सिखधर्म में एक प्रतीक के रूप में जाना जाता है जिसमे धर्मसत्ता व दूसरी राजशक्ति का प्रतीक थी. गुरु हरगोबिन्द सिखों के वो पहले गुरु थे जिन्होंने बलिष्ठ व वीर युवकों को सम्मिलित कर सिखों की पहली सेना का गठन किया.
अमृतसर में श्री हरिमंदिर साहिब के ठीक सामने श्री अकाल तख्त साहिब का निर्माण करा कर उन्होंने संदेश दिया कि संसार में वास्तविक राज्य परमात्मा का है. समस्त सांसारिक शक्तियों का धर्म की मर्यादा में रहना ही श्रेयस्कर है. उनसे जब इन परिवर्तनों पर प्रश्न किए गये, तो गुरु साहिब ने कहा कि उनका सोच व आचार, त्याग एवं अध्यात्म आधारित ही है, भले ही प्रकट रूप राजसी है. ये शस्त्र निर्बल की रक्षा व अन्यायी के नाश के लिए हैं. उन्होंने भविष्य में इसे सिद्ध भी किया.
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11 साल की उम्र में मिल गई थी गुरु की उपाधि
सिखों के छठे गुरु, गुरु हरगोविंद देव जी का जन्मा माता गंगा और सिखों के 5वें गुरु, गुरु अर्जुन देव के यहां विक्रम संवत 1652 में हुआ था. साल 1606 में ही मात्र 11 साल की उम्र में ही उन्हें गुरु की उपाधि मिल गई थी. और ये उपाधि उन्हें किसी और ने नहीं बल्कि उनके पिता और सिखों के 5वें गुरु अर्जुन सिंह ने ही दी थी.
गुरु हरगोबिन्द जी (Guru Hargobind Singh Ji) को सिखों में वीरता की नई कहानी नई मिसाल के कायम करने के लिए जाना जाता है. जो अपने साथ हमेशा मीरी और पीरी नाम की दो तलवार अपने साथ रखते थे. जिसमे से एक तलवार धर्म और दूसरी तलवार धर्म की रक्षा के लिए थी. जब मुग़ल शासक जहांगीर के आदेश पर गुरु अर्जुन देव सिंह को फांसी दी गयी तो उसके बाद इन्होने ही 6ठे गुरु के रूप में सिखों का नेत्रत्व संभाला था.
सिख समाज में जोड़ा नया आदर्श
सन् 1627 में हुई जहांगीर की मौत के बाद मुगलों के नए बादशाह शाहजहां ने सिखों पर और अपना जुल्म ढहाना शुरू कर दिया. जिसके चलते अब सिख धर्म की रक्षा के लिए हरगोबिंद सिंह जी को आगे आना पड़ा था.
सिखों के पहले से स्थापित आदर्शों में से स्थापित आदर्शों में हरगोविंद सिंह जी ने ही यह आदर्श जोड़ा था कि सिखों को यह अधिकार है जो तलवारे वो अपने साथ में अपने धर्म के प्रतीक के रूप में लेकर चलते हैं उसका इस्तेमाल अगर जरूरत पड़े तो धर्म की रक्षा के लिए भी कर सकते हैं जिसके लिए किसी से इजाज़त की जरूरत नहीं पड़ती.
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जहांगीर को सपने में मिला रिहाई का आदेश
सिखों के ऊपर बढ़ते जुल्म को लेकर जब सिख समुदाय ने रजा के खिलाफ बगावत की तो मुग़ल बादशाह जहांगीर ने गुरु हरगोबिं को जेल में दाल दिया था. गुरु हरगोबिंद सिंहजी 52 राजाओं समेत ग्वालियर के किले में बंदी बनाए गए थे. इन्हें बंदी बनाने के बाद से जहांगीर मानसिक रूप से परेशान रहने लगा.
इसी दौरान मुगल शहंशाहों के किसी करीबी फकीर ने उसे सलाह दी कि वह गुरु हरगोबिंद साहब को तत्काल रिहा कर दें. लेकिन गुरु हरगोविंद जी ने रिहाई के साथ शर्त रखी उन 52 राजाओं की भी रिहाई हो जो उनके साथ कैद हैं. जिसको लेकर ये भी कहा जाता है कि जहांगीर को सपने में किसी फकीर से गुरुजी को आजाद करने का आदेश मिला था.
अपनी कूटनीति में उलझ गया था जहांगीर
गुरु हरगोबिंद सिंह के कहने पर ही 52 राजाओं को जहांगीर की कैद से रिहाई मिली थी. लेकिन ये सब इतना आसान नहीं था क्योंकि जहांगीर एकसाथ 52 राजाओं को रिहा नहीं करना चाहता था. इसलिए उसने एक कूटनीति बनाई और हुक्म दिया कि जितने राजा गुरु हरगोबिंद साहब का दामन थाम कर बाहर आ सकेंगे, वो रिहा कर दिए जाएंगे.
इसके लिए एक युक्ति निकाली गई कि जेल से रिहा होने पर नया कपड़ा पहनने के नाम पर 52 कलियों का अंगरखा सिलवाया जाए. गुरु जी ने उस अंगरखे को पहना, और हर कली के छोर को 52 राजाओं ने थाम लिया और इस तरह सब राजा रिहा हो गए. हरगोबिंद जी की सूझ-बूझ की वजह से उन्हें ‘दाता बंदी छोड़’ के नाम से बुलाया गया.
अकाल ‘बुंगे’ की स्थापना – Guru Hargobind Singh Ji
हर गोविंद जी ने मुगलों के अत्याचारों से पीड़ित अनुयायियों में इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास पैदा किया. मुगलों के विरोध में गुरु हर गोविंद सिंह ने अपनी सेना संगठित की और अपने शहरों की किलेबंदी की. उन्होंने ‘अकाल बुंगे’ की स्थापना की. ‘बुंगे’ का अर्थ होता है एक बड़ा भवन जिसके ऊपर गुंबद हो. उन्होंने अमृतसर में अकाल तख्त (ईश्वर का सिंहासन, स्वर्ण मंदिर के सम्मुख) का निर्माण किया. इसी भवन में अकालियों की गुप्त बैठकें होने लगीं. इसके अन्दर जो फैसले होते थे उन्हें ‘गुरुमतां’ अर्थात् ‘गुरु का आदेश’ नाम दिया गया.
इस पूरे चक्र के दौरान उन्होंने अमृतसर के निकट एक किला बनवाया जिसका नाम लौहगढ़ रखा. दिनोंदिन सिखों की मजबूत होती स्थिति को खतरा मानकर मुगल बादशाह जहांगीर ने उनको ग्वालियर में कैद कर लिया. गुरु हर गोविंद 12 वर्षों तक कैद में रहे, इस दौरान उनके प्रति सिखों की आस्था और अधिक मजबूत होती गई.
वो लगातार मुगलों से लोहा लेते रहे. रिहाई के बाद फिर मुगलों के खिलाफ बगावत छेड़ते हुए उन्हें कश्मीर के पहाड़ों में जाकर रहना पड़ा. सन् 1644 में पंजाब के कीरतपुर में उनकी मृत्यु हो गई. अपनी मृत्यु से ठीक पहले गुरु हर गोविंद ने अपने पोते गुरु हरराय को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया.
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‘दाता बंदी छोड़ गुरुद्वारा’
बाद में गुरु हरगोविंद सिंह साहब के इस कारनामे को यादगार बनाए रखने के लिए जिस जगह उन्हें कैद किया गया था, वहां पर एक गुरुद्वारा बनाया गया. उनके नाम पर बना जिसे आज भी ‘गुरुद्वारा दाता बंदी छोड़’ के नाम से जाना जाता है.