हजरत मियां मीर एक प्रसिद्ध मुस्लिम सूफ़ी संत थे. जिनका आज भी सिख बहुत सम्मान करते है. मिंया जी एक ऐसे इंसान थे, जिनके मन में किसी भी धर्म के लिए कोई बैर नहीं था. उन्हें गुरु नानक जी की संस्था से गहरा प्रेम था. वह गुरु अर्जुन देव जी से मिलने अकसर अमृतसर आते रहते थे. और जब भी गुरु जी लाहौर जाते थे, तो वह संत मियां मीर से मिलते थे. मियां मीर जी ने बड़ी संख्या में गुरुओं के श्लोक लिखे है. माना जाता है कि मियां मीर जी को वह लोग बहुत पसंद थे जो भगवान और लोगें के भलाई के बारे में सोचते थे. यह ही गुण सिखों के पांचवे गुरु, गुरु अर्जुन देव जी में थे.
आईये आज हम आपको बतायेंगे कि एक मुस्लिन सूफ़ी संत मियां मीर और सिखों के पांचवे गुरु, गुरु अर्जुन देव जी कैसे मित्र बने और उनकी मित्रता इतनी गहरी कैसे हो गयी ? एक मुस्लिम संत सिखों के गुरु का मित्र होना, उनकी विचारधारा से प्रभावित होना अपने आप में बड़ी बात है. इन दोनों की दोस्ती दोनों धर्मो को एक करने का काम करती थी.
हजरत मियां मीर और गुरु अर्जुन देव जी कैसे बने मित्र ?
क्या आप जानते है कि सिखों के पांचवे गुरु, गुरु अर्जुन देव अपने रिश्तेदारों से मिलने अपने पिता सिखों के चौथे गुरु, गुरु रामदास जी के जन्मस्थल लाहौर जाया करते थे. ऐसे ही गुरु जी एक बार लाहौर कि यात्रा कर रहे थे, जिस यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात संत मियां मीर जी से हुई और वह मुलाकात मित्रता में बदल गयी. ऐसा कह सकते ही की ईश्वर के दो व्यक्ति मिले और जीवन भर की मित्रता हो गयी. मियां मीर जी, गुरु जी से बड़े थे फिर भी उनके बीच वैचारिक मेल देखा जा सकता था.
सिखों के पांचवे गुरु, गुरु अर्जुन देव जी ने अपने जीवन में बहुत सी इमारतों का निर्माण करवाया है. 1588 में, गुरु जी ने ‘अमृत के तालाब’ नामक पवित्र तालाब के बीच में एक मंदिर बनाने की योजना बनाई. और यह मंदिर सभी जातियों, पंथों और समुदायों के लोगों के लिए बनाया जा रहा था तो उन्होंने मुस्लिम संत मियां मीर जी को श्री हरमंदिर साहिब की आधारशिला को रखने के लिए बुलाया था. मियां मीर जी बुलाने के पीछे दो कारण थे एक तो यह कि वह दोनों गहरे मित्र थे दूसरा कारण यह था कि गुरु जी सबको संदेश देना चाहते थे कि यह मदिर सभी जातियो और धर्मो के लोगों के लिए है. इसी उदेश्य को जानकर मियां मीर जी आए थे.
हजरत मियां मीर जी अमृतसर आए, तब उन्होंने मोटे ऊन के टुकड़े से बने एक धार्मिक भिक्षुक का लम्बा लबादा और एक शंकु के आकार की टोपी पहनकर, जिसके ऊपर गुलाब का फूल था. उनका बहुत शानदार तरीके से स्वागत किया गया, जिसके लिए गुरु अर्जुन देव जी प्रसिद्ध थे. दोंनो ईश्वर के बंदो ने प्रेम से एक दूसरे को गले से लगाया. जिसके बाद श्री हरमंदिर साहिब का शिलान्यास किया गया. ईश्वर के लिए भजन गाये गए और भगतो में मिठाई बांटी गयी.
गुरु अर्जुन देव जी की मृत्यु पर प्रतिक्रिया
1606 में, मुग़ल बादशाह जहांगीर ने गुरु अर्जुन दे जी पर, मुग़ल सिहासन के संघर्ष में अपने बेटे ख़ुसरो का साथ देने का आरोप लगाया गया था. जिसके चलते जहांगीर ने गुरु अर्जुन देव जी को लाहौर के किले में कैद कर दिया था, गुरु जी को बहुत सारी शारीरिक यातनाएं दी गयी. जब मियां मीर जी इसके बारे में पता चला, तो वह कैद में गुरु जी से मिलने आए. उन्होंने गुरु जी को शांत पाया, जिन्होंने खुद को पूरी तरह भगवान कि इच्छा के अधीन कर दिया था.
मियां मीर जी ने गुरु जी से सुझाव लिया कि, क्या उसे बादशाह जहांगीर के फैसले में हस्तक्षेप करना चाहिए, लेकिन गुरु जी ने उसे मना कर दिया और कहा कि ईश्वर की इच्छा का मार्ग अनियंत्रित होना चाहिए, ईश्वर के कामों में हस्तक्षेप करना उचित नहीं है. गुरु जी ने केवल अपने बेटे के लिए आशीर्वाद माँगा और खुद को मृत्यु के हवाले कर दिया.
मुस्लिम संत मियां मीर जी और गुरु अर्जुन देव जी की मित्रता दो धर्मो को जोड़ने का काम करती है दोनों की मित्रता की बातें अब तक की जाती है. दोनों ही ईश्वर के इंसान थे, जिन्होंने पूरा जीवन लोगो की भलाई में लगा दिया.
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