कांग्रेसियों ने भारत के शिल्पकारों के साथ न्याय नहीं किया…एक ओर 1915 में भारत आए मोहनदास करम चंद गांधी को राष्ट्रपिता बना दिया…तो दूसरी ओर भारत को संविधान देने वाले, दलितों की लड़ाई के लिए जमीन आसमान एक करने वाले, मूलनिवासियों के अधिकारों की वकालत करने वाले बाबा साहेब को हमेशा कांग्रेस ने दरकिनार किया…उन्हें वो सम्मान नहीं मिला, जिसके वो हकदार थे. सही मायनों में राष्ट्रपिता या इसके समानांतर कोई पदवी बाबा साहेब को मिलनी चाहिए थी. आज के लेख में हम आपको गांधी के उस घिनौने चरित्र के बारे में बताएंगे, जब गांधी ने बाबा साहेब पर डोरे डालने का प्रयास किया था.
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दरअसल, गांधी, बाबा साहेब को उच्च जाति का समझते थे. दलितों के लिए बाबा साहेब के प्रयासों से गांधी असहज होने लगे थे. क्योंकि गांधी भी स्वयं को दलितों का हितैषी मानते थे. उन्होंने दलितों को हरिजन नाम दिया था और हरिजन नामक पत्रिका भी निकाली थी. लेकिन दूसरी ओर दलितों के प्रति बाबा साहेब का समर्पण देखकर गांधी को डर सताने लगा था. इसी कड़ी में गांधी ने डॉ अंबेडकर से मिलने की इच्छा जताई…उन्हें लगा था कि बाबा साहेब से मिलकर अपने शब्दों के बाण से वह उन्हें परास्त कर देंगे और दलितों के मसीहा बन जाएंगे..लेकिन गांधी के अरमानों पर बाबा साहेब ने ऐसा पानी फेरा कि गांधी कुछ सालों के लिए दलित विरोधी तक बन गए थे…
यह बात है 1929 की यानी प्रथम गोलमेज सम्मेलन से ठीक पहले की. बाबा साहेब ने खुद बीबीसी को दिए इंटरव्यू में इस बात का खुलासा किया था. उन्होंने कहा था कि “मैं 1929 में पहली बार गांधी से मिला था. एक कॉमन दोस्त थे, जिन्होंने गांधी को मुझसे मिलने को कहा. गांधी ने मुझे खत लिखा कि वो मुझसे मिलना चाहते हैं, इसलिए मैं उनके पास गया और उनसे मिला. ये गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए जाने से ठीक पहले की बात है.”
दोनों जब पहली बार मिले तो गांधी ने डॉ अंबेडकर से कहा, मैं दलितों के बारे में बचपन से सोचता आ रहा हूं, उनकी चिंता मुझे स्कूल के समय से ही है, जब तो तुम पैदा भी नहीं हुए थे. इस पर बाबा साहेब ने जवाब देते हुए कहा था कि दलित होने की वजह से आज मेरे पास खुद का घर तक नहीं है, मुझे जीवन पर जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा है. एक ओर गांधी हिन्दू धर्म में वर्ण व्यवस्था का समर्थन करते थे, इसके विपरीत बाबा साहेब हिन्दू धर्म में वर्ण व्यवस्था के विरोधी थे, बाबा साहेब मानते थे कि हिन्दू धर्म मे वर्ण व्यवस्था ही जातिगत भेदभाव का कारण है.
बाबा साहेब की यह बात सुनकर गांधी को पहली बार पता चला कि बाबा साहेब ब्राह्मण नहीं दलित थे. अभी तक गांधी, बाबा साहेब को ब्राह्मण समझ रहे थे और उन्हें अपने रास्ते से हटाने का प्रयास कर रहे थे. जरा सोचिए, जब आत्ममुग्ध गांधी जो खुद को दलितों को मसीहा बनाने चले थे, उन्हें पता चला कि बाबा साहेब दलित हैं और वह दलितों का नेतृत्व कर रहे हैं, तो गांधी के ऊपर क्या बीती होगी.
अब बाबा साहेब के प्रति गांधी के बोलने का ट्यून बदल गया था…वह करीब करीब चिल्ला तो नहीं रहे थे लेकिन बातचीत में उनकी आवाज तेज जरुर हो गई थी..इनकी मुलाकात के कुछ साल बाद ही अंग्रेज शासन ने बाबा साहेब के सुझाव पर कमिनुअल अवॉर्ड की शुरुआत की थी.इसमें दलितों को अलग निर्वाचन का स्वतंत्र राजनीतिक अधिकार मिला. इसके साथ ही दलितों को दो वोट के साथ कई और अधिकार भी मिले. दो वोट के अधिकार के मुताबिक देश के दलित एक वोट से अपना प्रतिनिधि चुन सकते थे और दूसरे वोट से वो सामान्य वर्ग के किसी प्रतिनिधि को चुन सकते थे.बाबा साहब का मानना था कि दलितों को दो वोट का अधिकार उनके उत्थान में बहुत बड़ा कदम साबित होता.
लेकिन जैसे ही दलितों का मसीहा बनने का सपना देख रहे गांधी को यह बात पता चली, वह इसके विरोध में उतर आए. बाबा साहेब ने काफी मशक्कत करके इसे पास कराया था लेकिन गांधी के विरोध के कारण पूरे देश में चिंगारी भड़क उठी. इसके विरोध में पहले महात्मा गांधी ने अंग्रेज शासन को कई पत्र लिखे. लेकिन उससे भी बात नहीं बनी तो महात्मा गांधी ने पुणे की यरवदा जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया. इसी के बाद बाबा साहेब को बेमन से पुणे पैक्ट पर समझौता करना पड़ा था.
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