निर्दोष को सजा दोषी को पैरोल, न्यायपालिका आम जनता को न्याय देने में असहाय

निर्दोष को सजा दोषी को पैरोल, न्यायपालिका आम जनता को न्याय देने में असहाय

न्यायपालिका आम जनता को न्याय देने में असहाय

भारत एक बहुत ही विशाल देश है लेकिन यहां की आप न्यायपालिका मतलब judiciary को देखे तो आपको ये महसूस होगा की ये देश के लोगों को पूरी तरह न्याय देने में थोड़ी बहुत असहाय है। आपको इस देश में ऐसे बहुत सारे मामले देखने को मिलेंगे। जहां निर्दोष सजा काट रहे हैं और न्याय के इंतजार में उनकी जिंदगी ही कट जा रही है। इस देश में आपको ऐसे भी केस देखने को मिलेंगे जहां दोषियों को सबूतों और गवाहों के अभाव में बरी कर दिया जाता है। 

इस बात का प्रमाण आपको इससे भी मिल जायेगा की सुप्रीम कोर्ट में 71,000 से अधिक मामले लंबित हैं, जिनमें से 10,000 से अधिक मामले एक दशक से अधिक समय से निबटारा की प्रतीक्षा कर रहे हैं, ये आकड़े हम आपको अपने मन से नहीं दे रहे हैं। ये नंबर 4 अगस्त को राज्यसभा में बताया गया हैं। 

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न्यायपालिका पर से हमारा विश्वास उठ गया है

आपको ये लग रहा होगा की आज हम न्यायपालिका, judiciary और सुप्रीम कोर्ट की बात कहां से करने लगे लेकिन आज ये बात करना जरुरी है। “न्यायपालिका पर से हमारा विश्वास उठ गया है,  हमारे अंदर से जीने की इच्छा भी खत्म हो गई है”, कुछ इस तरह के शब्द थे छावला गैंग रपे पीड़िता के माता पिता के।  जब सुप्रीम कोर्ट ने उनके बेटी के हत्यारों को आजाद कर दिया।   मीडिया की सुर्ख़ियों से आपको इस केस के बारे में सब कुछ पता चल ही गया होगा, लेकिन मीडिया की सुर्ख़ियों में इन दिनों एक सवाल गुम सा हो गया है। 

ये सवाल है कि अगर छावला रेप पीड़िता के आरोपी अगर सच में बेकसूर थे तो किस आधार पर निचली अदालतों ने उन्हें 10 साल से अधिक कैद में रखा ? सवाल ये भी है की क्या बलात्कार जैसे घिनौने अपराध के आरोपियों को देश की उच्च न्यायालय बस ये कहकर आजाद कर देती है की आरोपी को पूरी तरह अपनी बात रखने का मौका नहीं मिला। ऐसा है तो फिर उन तीनों आरोपियों को अदालत की तरफ से मुवावजा मिलना चाहिए। 

पेचीदा न्यायपालिका में पिस्ते आम जनता 

दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट को इस पर भी गौर करना चाहिए की इस मामले को तक़रीबन एक दशक से अधिक हो गया लेकिन आज भी पीड़िता के माता पिता अपनी बच्ची को न्याय दिलाने के लिए इधर-से-उधर भटक रहे हैं। देश के उच्च न्यायालय और देश की आम जनता को भी इस बारे में सोचना चाहिए की “भारत की आम और निर्दोष जनता कब तक इस पेचीदा न्यायपालिका में पिस्ते रहेंगे और दूसरी तरफ इसी पेचीदा न्यायपालिका के कारण दोषियों को आजाद कर दिया जाता है”

निर्दोष को सजा दोषी को पैरोल

इस बात का उदहारण सिर्फ छावला रेप मामला ही नहीं है।  आप अगर अपने आस-पास भी नजर घुमाये तो आपको ऐसे कई मामले दिख जायेंगे ।  इसका एक उदाहरण स्टेन स्वामी भी हैं जिनका नाम भीमा कोरेगांव केस से जुड़ा हुआ था। स्वामी को अदालत से बेल ना मिलने के कारण उनकी मृत्यु हो गई थी। वहीं दूसरी तरफ राम रहीम जैसे अपराधी आये दिन बाहर घूमते दीखते हैं। 

पेचीदा न्यायपालिका को आम जनता के लिए कैसा बनाएं सरल ?

अब वो वक्त आ चूका है जब देश को ये सोचने की जरूरत है की इस पेचीदा न्यायपालिका को आम जनता के लिए सरल कैसा बनाया जाये। सोचने की बात ये भी है की भारत जैसे विशाल देश में जहां इतने सारे मामले रोज़ आते हैं वहां हर जनता को जल्द-से-जल्द कैसे न्याय मिल सके।

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