पंजाब में खालिस्तान की सबसे पहले मांग कब और किसने उठाई?

पंजाब में खालिस्तान की सबसे पहले मांग कब और किसने उठाई?

खालिस्तान ये नाम जब भी हम सुनते हैं तब हमें उन सरदारों का ध्यान आता है जो पगड़ी बांधकर और हाथ में एक पीले रंग का झंडा लेकर खालिस्तान की मांग कर रहे होते हैं. खालिस्तान (Khalistan) की मांग कर रहे ये लोग देश में कई सारे विरोध-प्रदर्शन कर चुके हैं. ये विरोध-प्रदर्शन कई बार इतना हिंसक हो चुका है कि इस दौरान कई लोगों की जान भी जा चुकी है. वहीं हाल ही में खालिस्तान की मांग कर रहे अमृतपाल पर पंजाब पुलिस (Punjab Police action on Amritpal Singh) ने कार्रवाई की लेकिन क्या आपको पता है कि पंजाब में खालिस्तान की सबसे पहले मांग कब और किसने उठाई. वहीं इस पोस्ट के जरिए हम आपको इसी बात की जानकारी देने जा आ रहे हैं. 

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जानिए कब हुई खालिस्तान आंदोलन की शुरूआत

खालिस्तान आंदोलन के शुरू करने का श्रेय मास्टर तारा सिंह को दिया जाता है जिन्होंने 93 साल पहले यानि की 1929 में खालिस्तान आंदोलन की शुरुआत करी. साल 1929 में कांग्रेस के लाहौर सेशन में मोतीलाल नेहरू ने पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा. इस दौरान तीन तरह के समूहों मुस्लिम, दलित और तीसरा समूह शिरोमणि अकाली दल की अगुवाई कर रहे मास्टर तारा सिंह ने इस प्रस्ताव का विरोध किया. इस दौरान ही पहली बार तारा सिंह ने सिखों के लिए अलग राज्य की मांग रखी. 1947 में यह मांग आंदोलन में बदल गई और इस आंदोलन को नाम पंजाबी सूबा आंदोलन हो गया. 

2 हिस्सों में बंटा पंजाब (Partition of Punjab)

आजादी के समय पंजाब 2 हिस्सों में बांट गया और इस दौरान शिरोमणि अकाली दल बना जो भारत में ही भाषाई आधार पर एक अलग सिख सूबा यानी सिख प्रदेश मांग रहा था. तो वहीं स्वतंत्र भारत में बने राज्य पुनर्गठन आयोग ने यह मांग मानने से इनकार कर दिया। 19 साल तक अलग सिख सूबे के लिए आंदोलन और प्रदर्शन होते रहे. इस दौरान हिंसा की घटनाएं भी हुई और 1966 में इंदिरा गांधी सरकार ने पंजाब को तीन हिस्सों में बांटने का फैसला किया. पहला  सिखों की बहुलता वाला पंजाब, हिंदी भाषा बोलने वालों के लिए हरियाणा और तीसरा हिस्सा चंडीगढ़ था.

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, अकाली आंदोलन के संस्थापक सदस्य मास्टर तारा सिंह ही खालिस्तान आंदोलन के अगुवा थे और तारा सिंह सिखों को राजनीतिक हिस्सेदारी देने के हिमायती रहे. आजादी से पहले उन्हें उस वक्त मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान की मांग का समर्थन करने के लिए कहा था. बदले में जिन्ना उन्हें उप-प्रधानमंत्री बना देने का वादा किया था, लेकिन तारा सिंह ने इस मांग को ठुकरा दिया. इसके बाद भारत आजाद हुआ है खालिस्तान की मांग जोर पकड़ ली. इसकी बड़ी वजह पंजाब का विभाजन माना गया. पाकिस्तान के अलग होने के बाद पंजाब दो भागों में बंट गया, सिखों के कई प्रमुख गुरुद्वारे पाकिस्तान शासित पंजाब में चले गए, जिसका मास्टर तारा सिंह ने विरोध किया.

1956  में हुआ समझौता 

1956 में पंडित नेहरू और मास्टर तारा सिंह के बीच एक समझौता भी हुआ. इसमें सिखों के आर्थिक, शैक्षणिक और धार्मिक हितों की रक्षा की बात कही गई. यह समझौता 5 साल तक ही चला और फिर टूट गया. मास्टर तारा सिंह ने 1961 में अलग पंजाबी सूबे की मांग को लेकर आमरण अनशन शुरू कर दिया. तारा सिंह के समर्थन में हजारों सिख एकजुट हो गए. सिखों का कहना था कि भाषा के आधार पर अलग पंजाब राज्य का गठन हो और गुरुमुखी को भी भाषाओं की सूची में शामिल किया जाए. इस आंदोलन को उनकी बेटी राजेंद्र कौर ने खत्म करवाया और 1966 में भाषा के आधार पर पंजाब को अलग राज्य बना दिया गया. हालांकि, चंडीगढ़ को अलग करते हुए केंद्रशासित प्रदेश ही रहा.  इसके बाद 1967 में अकाली दल ने पंजाब में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई. गुरनाम सिंह को अकाली दल का नेता चुना गया और वे मुख्यमंत्री बनाए गए, लेकिन 250 दिन बाद ही उनकी सरकार में बगावत हो गई. लक्ष्मण सिंह गिल के नेतृत्व में 16 विधायकों ने अलग गुट बना लिया. इस गुट ने कांग्रेस ने समर्थन दे दिया. पंजाब में 1971 तक राजनीतिक उथल-पुथल का दौर जारी रहा.

1971 में फिर शुरू हुई खालिस्तान की मांग 


1971 में बांग्लादेश विभाजन के बाद पंजाब में इंदिरा गांधी को जबरदस्त सर्मथन मिला. इसके बाद फिर से शुरू खालिस्तान की मांग शुरू हो गयी. 1973 में अकाली दल ने आनंदपुर साहिब में एक प्रस्ताव पास किया. 1978 में भी इस प्रस्ताव को दोहराया गया. प्रस्ताव में 3 मुख्य बातें कही गई थी.  पहल पंजाब को जम्मू-कश्मीर की तरह स्वायत्ता मिले. सिर्फ रक्षा, विदेश, संचार और मुद्रा पर केंद्र का दखल रहे. दूसरा केंद्रशासित प्रदेश चंडीगढ़ को पूरी तरह से पंजाब को सौंप दिया जाए. और तीसरा पूरे देश में गुरुद्वारा समिति का निर्माण हो और सिखों को सेना में अधिक जगह मिले.इसी के साथ मास्टर तारा सिंह खालिस्तान की मांग को लेकर अहिंसक आंदोलन करते रहे लेकिन 1967 में उनकी मृत्यु के बाद खालिस्तान का आंदोलन हिंसा में तब्दील हो गया. 1978 में अमृतसर में निरंकार संप्रदाय के साथ अकाली दलों का विवाद हो गया और इस विवाद में 13 अकाली कार्यकर्ताओं की मौत हो गई. इसमें जरनैल सिंह भिंडरावाले के करीबी फौजा सिंह भी शामिल था. इसके बाद कोर्ट में यह केस चला और निरंकारी संप्रदाय के प्रमुख गुरुबचन सिंह केस में बरी हो गए. इसके बाद पंजाब में शुरू हुआ भिंडरावाले के आतंक का दौर शुरू हुआ.

पंजाब में शुरू हुआ भिंडरावाले का दौर (Khalistan and Bhindranwale)


भिंडरावाले के समर्थकों ने 1980 में गुरुबचन सिंह की हत्या कर दी. कई जगहों पर हिंदुओं और निरंकारी समुदाय के लोग मारे जाने लगे. पंजाब में जहाँ लॉ एंड ऑर्डर खराब हो गया तो चरमपंथ के सहारे सिखों में पैठ बनाने के बाद भिंडरावाले ने अमृतसर के पवित्र स्वर्ण मंदिर को अपना ठिकाना बना लिया. अकाल तख्त से ही भिंडरावाले सिखों के लिए संदेश जारी करना शुरू कर दिया. इसके बाद 1982 में भिंडरावाले ने अकाली दल से हाथ मिला लिया और धर्मयुद्ध लॉन्च किया. पंजाब में खालिस्तान आंदोलन के विरोध में बोलने वाले लोगों को भिंडरावाले और उनके समर्थक मौत के घाट उतार रहे थे. तो वहीं 1983 में जालंधर के डीआईजी एएस अटवाल को स्वर्ण मंदिर के सीढ़ी पर गोली मार दी गयी जिसके बाद इंदिरा गांधी ने ऑपरेशन ब्लू स्टार शुरू करने का आदेश दे दिया. इस ऑपरेशन के दौरान दोनों ओर से भीषण गोलीबारी हुई. इस ऑपरेशन के बाद इंदिरा गांधी का जमकर विरोध हुआ. जहाँ भिंडरावाले की इस ऑपरेशन की वजह से मौत हो गयी तो वहीं इंदिरा गाँधी को उनके ही सिख बॉडीगार्ड ने इस ऑपरेशन का गुस्सा उनकी जान लेकर उतारा. 

खालिस्तान आंदोलन की मांग हुई शांत 

इस ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद बब्बर खालसा और अन्य आतंकी संगठन सक्रिय हो गया. जहाँ इस ऑपरेशन के बाद इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गयी तो वहीं पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या 1995 में कर दी गई साथ ही 1987 में भारत के पूर्व आर्मी चीफ जनरल एएस वैद्य को भी गोलियों से भून दिया गया. इसी के साथ कनाडा से लंदन होते हुए भारत आने वाली एयर इंडिया के विमान कनिष्क को 1986 में उग्रवादियों ने हवा में ही उड़ा दिया. इस हमले में 329 लोगों की मौत हो गई. हालांकि, केंद्र और राज्य के संयुक्त ऑपरेशन की वजह से खालिस्तान आंदोलन की मांग पंजाब में शांत हो गई लेकिन फिर से आंदोलन चर्चा में आया और ये चर्चा ‘वारिस पंजाब दे’ संगठन की वजह हुई. 

‘वारिस पंजाब दे’ संगठन की हुई शुरुआत 

दरअसल, पंजाबी अभिनेता संदीप सिंह उर्फ दीप सिद्धू ने ‘वारिस पंजाब दे’ संगठन को शुरू किया और इस संगठन की मंशा पंजाब को नशा मुक्त और पंजाब को युवा लोगों को प्रेरित करने की थी लेकिन जब दिल्ली में किसान आन्दोलन   हुआ तो उस दौरान 26 फरवरी 2021 को लाल किले पर उपद्रव मचाने और खालसा पंथ का झंडा फहराने जैसे हिंसक प्रदर्शन हुआ और इस दौरान इस ‘वारिस पंजाब दे’ संगठन का नाम सामने आया.  किसान आन्दोलन खत्म हुआ और एक दिन ऐक्सिडेंट में दीप सिधु की मौत की खबर आई. जिसके बाद अमृतपाल ने ‘वारिस पंजाब दे’ संगठन की बागडोर अपने हाथ में ली और पंजाब के लोगों को अलग देश खालिस्तान की मांग करने वाले को प्रेरित किया और इस दौरान अमृतपाल और उसके द्वारा किए गये प्रदर्शन भी सामने आए और पंजाब की सरकार परेशान हो गई.  जिसके बाद अब पंजाब पुलिस ने ‘वारिस पंजाब दे’ संगठन के खिलाफ करवाई शुरू करी. 

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