5000 साल पुराना है पंजाब का ये कस्बा, यहां समझिए पूरी कहानी…

HISTORY OF SANGHOL
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पंजाब राज्य में चंडीगढ़ के पास संघोल नाम का एक ऐसा गाँव है जहाँ हड़प्पा और मोहन्जोदारो जैसी प्राचीन सभ्यताओं के साक्ष्य मिले हैं. इसके प्रमाण के लिए आप वहां मौजूद पुराने अवशेष से लगा सकते हैं. ये गाँव नेशनल हाईवे -5 पर चंडीगढ़ से करीब 42 किलोमीटर दूर बसा हुआ है. ये गांव अपने आप में ही अनेक जनश्रुतियों और एतिहासिक धरोहरों को समेटे हुए है. सोमनाथ मंदिर की ही तरह कई बार उजड़ने और बनने के साथ ये गाँव अपने गर्भ में 5000 सालों का इतिहास संजोए बैठा हुआ है. पंजाबी किस्सों के नायक भाइयों की जोड़ी रूप बसंत से लेकर यवन और मुग़लों तक का इतिहास सब कुछ इस संघोल की धरती में समाया हुआ है. और इतना ही नहीं भगवान बुद्ध का भी इस गाँव से काफी गहरा संबंध रहा है. इतिहासकारों की माने तो संघोल को महानगर का दर्जा हासिल था. जिससे ये बात साफ़ तौर पर जाहिर होत्ती है कि संघोल उत्तर भारत की प्राचीन सभ्यता एक एक अभिन्न अंग रहा है.

इस जगह के ऐतिहासिक महत्व को पुरातत्व विभाग के तत्कालीन निदेशक आर के विष्ट ने पहचाना. उन्होंने इस गांव को ऐतिहासिक दृष्टि से चार भागों में बांट कर 1964 से 1969 तक विभिन्न चरणों में खुदाई करवाई. इसके बाद यहां से हड़प्पा युग से मौर्योत्तर काल तक के महत्वपूर्ण साक्ष्य मिले.

कई शासकों के मुद्राओं का साक्ष्य

इस गाँव से हिंद, पहलो, गोंदों कंफिसियस, कुषाण व अर्ध जनजातीय लोगों से जुड़ी मुद्राएं भी मिलीं. इन साक्ष्यों के आधार पर कहा जाता है कि यहां पर टकसाल भी रही होगी. हूण शासक तोरामान और मिहिरकुल के काल की मुहरें एवं सिक्के भी यहां मिले हैं.

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साल 1968 में एक बौद्ध स्तूप भी यहां खोजा गया था. वहीँ 1985 में पहली और दूसरी शताब्दी ईस्वी की लगभग 117 पत्थर की संरचनाएं खुदाई में मिलीं. ये मथुरा कला की मूर्तियां हैं. संघोल संग्रहालय में हड़प्पा सभ्यता के अवशेष बड़ी संख्या में देखे जा सकते हैं. इस संग्रहालय में 15,000 से भी अधिक कलाकृतियां हैं.

अशोक ने बनवाए थे बौद्ध स्तूप

भगवान बुद्ध के जीवन से जुड़े लुंबिनी, राजगीर, बोधगया, सारनाथ, वैशाली, श्रावस्ती, कौशांबी, नालंदा, चंपा, पाटलीपुत्र व कुशीनगर बौद्ध धर्म में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. इनसे अलग एक बौद्ध स्थल और भी है. वह है संघोल का बौद्ध विहार.वैसे तो भगवान बुद्ध से जुड़े कई सारे शहर है जो बौद्ध धर्म में काफी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. जैसे बोधगया, सारनाथ, वैशाली, कौशाम् आदि लेकिन इन साब से अलग एक और बौद्ध स्थान भी है जो बाकि स्थलों की तरह ही सामान महत्व रखता है और वो है ‘संघोल का बुद्ध विहार.

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भगवान बुद्ध की मृत्यु के करीब सौ साल बाद मौर्य सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए उनकी चिता भस्म पर स्तूप बनवाए थे. ये स्तूप उन्ही सारे स्थलों पर बनवाये जिनका हमने ऊपर  जिक्र किया है. इसके साथ ही विदेशों में भी जैसे अफगानिस्तान और ईरान में भी इनके स्तूप बनवाए. कुछ जानकारों के मुताबिक स्तूपों में से पांच स्तूप संघल यानि संघोल नगर में बने थे.

हालांकि इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है. यह मात्र जनश्रुतियां हैं. कहा जाता है कि इन पांच स्तूपों में से तीन स्तूपों को गांववालों ने अनजाने में नष्ट कर दिया. अब भी यहां दो बौद्ध स्तूपों या मठों के अवशेष देखे जा सकते हैं.

व्हेन त्सांग ने भी अपनी यात्रा में किया उल्लेख

संघोल जैसे एतिहासिक शहर के बारे में सिर्फ भारतीय इतिहासकारों ने ही जानकारी नहीं जुटाई है. जो भी यहाँ आया वो सब भौक्चाके रह गए थे और अपने साथ कुछ न कुछ एतिहासिक सुराग ले गए. इसी लिस्ट में चीनी यात्री व्हेन त्सांग ने भी अपने उल्लेख में इसका जिक्र किया है.

व्हेन त्सांग के अनुसार संघोल में मिले बौद्ध स्तूप के अवशेषों का संबंध ईसा पूर्व सातवीं सदी से हो सकता है. पुरातत्वविदों के मुताबिक उस समय पंजाब में विशिष्ट कला शैली का विकास हुआ था. तब ये क्षेत्र बौद्ध धर्म का सबसे प्रमुख केंद्र भी था. इस बात का प्रमाण संघोल गांव से मिली पुरातात्विक महत्व की वस्तुओं से लिया जा सकता है.

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संघोल की खुदाई से जुड़े डॉ. विष्णु शर्मा व डॉ. मनमोहन शर्मा के अनुसार कई चरणों में हुई संघोल के पुरातात्विक स्थलों की खुदाई से जो बात सामने आई है उसके मुताबिक जहांगीर के शासनकाल में जैसलमेर से राजपूतों को लाकर यहां बसाया गया था. हूणों के हमलों के बाद बेशक बौद्ध स्तूप जमींदोज हो गए व बौद्ध विहार और नगर उजड़ गए लेकिन बाद में यह नगर फिर आबाद हो गया. अब इस ऐतिहासिक महत्व के बौद्ध स्थल को पर्यटन के नक्शे पर लाने पर जोर दिया जा रहा है ताकि चीन, जापान श्रीलंका सहित अन्य देशों के बौद्ध अनुयायी आसानी से इस स्थल तक पहुंच सकें.

राजा हर्षवर्धन के काल में हुआ स्तूपों का निर्माण

इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि संघोल गाँव की खुदाई से मिली चीजों के आधार पर इस बात की पुष्टि की जा सकती है कि इस स्तूप का निर्माण संभवत: हर्षवर्धन के काल में बौद्ध भिक्षु भद्रक ने करवाया. लेकिन वहीँ कुछ इतिहासकारों का ये भी मानना है कि हड़प्पाकालीन संस्कृति से जुड़े इस गांव का पुराना नाम संगल था, जिसका नाम बाद में बदलकर संघोल हो गया.  डॉ. सुभाष परिहार के अनुसार बौद्ध स्तूप, बौद्ध विहार व यहां पर विकसित नगर सभ्यता के बर्बाद होने की सबसे बड़ी वजह यहां पर हूणों द्वारा हुए को बताया जाता है.

 

कुछ प्राचीन दंतकथाओं के अनुसार संघोल का नाम संग्लादीप था  जिस पर राजा भरतरी का राज था राजा भरतरी ने अपनी पहली पत्नी की मौत के बाद दूसरी शादी कर ली. राजा की दूसरी पत्नी रूप और बसंत के साथ सौतेला व्यवहार करती है.

सौतेली मां षड्यंत्र के तहत दोनों बेटों को राज्य से बाहर करा देती है. जिससे दोनों भाई बिछड़ जाते हैं. रूप को एक राजा का राज्य मिल जाता है और बसंत को एक गरीब की झोपड़ी. दोनों भाइयों के संघर्ष और प्रेम की कहानी पंजाब के लोक किस्सों का अहम अंग है.

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