पूना पैक्ट पर साइन हो जाने के बाद 25 सितम्बर, 1932 को बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर (Baba Saheb Bhim Rao Ambedkar) ने एक भाषण (lecture) दिया। ये वो भाषण था जिसने अम्बेडकर की विचारधारा के मूल बिन्दुओं को पूरी तरह से साफ़ कर दिया था। बम्बई (Bombay) जिसे अब मुंबई (Mumbai) के नाम से जाना जाता है वहां एक हिन्दू कान्फ्रेंस (Hindu conference) का आयोजन हुआ जिसमें अम्बेडकर को भी जाना था, उसी कान्फ्रेंस के अन्तिम सभा में पूना पैक्ट (poona pact) पर बाबासाहेब ने बहुत कुछ बोला। बाबासाहेब ने कहा कि मैं कोशिश करूँगी की आपको ये पूरा भाषण जो का त्यों ही सुनाऊँ। ये वही भाषण था जिसमें अम्बेडकर ने महात्मा गाँधी (Mahatma Gandhi) को धन्यवाद (thank you to Gandhi) कहा था।
बाबासाहेब ने इस भाषण ने कहा था कि मैं विश्वास करता हूँ कि मेरे इस कथन में जरा भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि पिछले कुछ दिनों में जितने विकट धर्म-संकट में मैं रहा हूँ, उस प्रकार के धर्मसंकट में शायद कोई दूसरा न रहा होगा। मैं असामान्य कठिन परिस्थिति में से गुजरा हूँ, क्योंकि मुझे दो कठिन रास्तों में से एक चुन लेना था। मेरे सामने दो कठिन समस्याएँ थीं। एक ये कि मैं भारत के एक महानतम मनुष्य के जीवन को बचाऊँ, दूसरी ये कि जिस वर्ग के हितों और स्वार्थों के संरक्षण के लिए, मैं अपनी शक्तिभर गोलमेज सभा में प्रयत्न करता हूँ, उसके उन हितों और स्वार्थों की सुरक्षा को देखूँ। मुझे ये कहने में हर्ष होता है कि सबके सहयोग से हम लोग एक ऐसा हल निकाल सके हैं जिससे ‘महात्मा’ के प्राण भी बच गए और दलितवर्ग के हितों और स्वार्थों का भविष्य में किसी सीमा तक संरक्षण भी हो गया। मैं समझता हूँ कि इस सारे प्रकरण में इस हल का बहुत बड़ा श्रेय स्वयं ‘महात्मा’ गाँधी को है। मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि जब मैं उनसे मिला, तो बातचीत में मैंने पाया कि उनकी और मेरी भावनाओं में कितनी ही बातों में समता है। मुझे इससे बड़ा आश्चर्य हुआ ! वस्तुतः जब कोई गुत्थी उनके सामने पेश की गई, या सर तेज बहादुर ने उन्हें बताया कि उनके सामने बड़ी नाजुक परिस्थितियाँ आई हैं, तो मुझे यह देखकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि जिस आदमी ने गोलमेज कान्फ्रेंस के समय इतने विरोधी विचार व्यक्त किए थे, उसी आदमी ने दूसरे पक्ष का समर्थन न करके मेरे पक्ष का समर्थन किया। मैं महात्मा गाँधी का कृतज्ञ हूँ, क्योंकि उन्होंने मुझे बहुत ही कठिन परिस्थिति से निकाल लिया। मुझे केवल यही खेद है कि “महात्मा गाँधी ने गोलमेज सभा में यही रुख क्यों नहीं अपनाया?” यदि उन्होंने मेरे विचारों के साथ उस समय ऐसा ही उदारतापूर्ण व्यवहार दिखाया होता तो उन्हें इस प्रकार के संकट में पड़ने की आवश्यकता ही न होती। जो हो, ये तो अब बीते हुए समय की बातें हैं। मुझे खुशी है कि मैं आज यहाँ इस प्रस्ताव का समर्थन करने के लिए उपस्थित हूँ।
क्योंकि समाचार-पत्रों में ये सवाल उठाया गया है कि शायद इस समझौते के लिए समस्त दलितवर्ग का समर्थन न मिले, मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, और जहाँ तक उस पार्टी का सम्बन्ध है जो मेरे साथ है, और मुझे विश्वास है कि मेरे अन्य मित्र भी जो यहाँ मौजूद हैं, मैं उनकी ओर से बोल रहा हूँ कि हम सब लोग इस समझौते का पालन करेंगे। इस विषय में किसी के मन में कोई सन्देह नहीं रहना चाहिए।
मुझे अगर कोई चिन्ता है तो वो सिर्फ इस बात की है कि क्या हिन्दू-समाज भी इस समझौते का पालन करेगा? (‘हाँ, हम पालन करेंगे, हम पालन करेंगे’ की आवाजें पूरे हॉल में गूँजने लगी)। अम्बेडकर आगे कहते हैं क्योंकि ये अनुभव की बात है कि दुर्भाग्य से हिन्दू-जाति एक इकाई नहीं है, बल्कि, मुझे यह कहने दिया जाए कि वह छोटे-छोटे नाना वर्गों का एक संघ है। मैं आशा करता हूँ और मुझे विश्वास है कि हिन्दू लोग इस समझौते को एक पवित्र समझौता मानेंगे और इसका पालन करते समय अपनी इज्जत को बट्टा लगने नहीं देंगे ।
एक और छोटी-सी बात है जिसे मैं कहना चाहता हूँ। मैं सभी मित्रों का, जिन्होंने इस वार्तालाप में भाग लिया, बड़ा कृतज्ञ हूँ। इन सब में सर तेजबहादुर और श्री सी. राजगोपालाचारी के नाम मैं लेना चाहता हूँ, क्योंकि सर तेजबहादुर की सहायता के बिना शायद हमारी गाड़ी रास्ते में अटक जाती। गोलमेज सभा के दौरान दो वर्षों में उनके सम्बन्ध में जो अनुभव हुआ, उससे मुझे यह स्वीकार करना पड़ता है कि यदि भारत में कोई ऐसा व्यक्ति है जो साम्प्रदायिकता से ऊपर उठ चुका है, तो वो सर तेजबहादुर हैं। उनकी स्पष्टवादिता और न्यायप्रियता से ऐसे अल्पसंख्यकों को हमेशा सहारा मिला है जो भारत के नए विधान में अपने लिए संरक्षण खोजने में परेशान थे। मुझे अपने मित्र श्री सी. राजगोपालाचारी का नाम इसलिए अवश्य लेना चाहिए, क्योंकि इन्होंने बातचीत के बिलकुल टूटते समय हमारी सहायता की। यदि इनकी सूझबूझ का सहारा न मिलता, तो शायद यह समझौता न हो पाता। मुझे पण्डित मदनमोहन मालवीय का भी कृतज्ञ होना चाहिए क्योंकि उन्होंने इस समय अपनी सहनशीलता और उदारता को कायम रखा जबकि बातचीत में गर्मी आ गई और एक-दूसरे पर छींटाकशी होने लगी ।
“कम्यूनल अवार्ड” में परिवर्तन केवल इस जिद्द पर स्वीकार कर लिया गया क्योंकि कहा गया कि पृथक् प्रतिनिधित्व राष्ट्रीयता के हितों का विघाती है। मुझे साफ कह देना चाहिए कि मैं अब भी इस बात को नहीं मानता। मैं इस बात को साफ समझ सकता हूँ कि बहुजन-प्रतिनिधित्व के हित में पृथक् चुनाव हानिकारक हो सकता है किन्तु अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व के पक्ष में पृथक् चुनाव हानिकारक नहीं है।
मैं इस बात पर भी विश्वास नहीं करता कि संयुक्त चुनाव दलितवर्ग को हिन्दू-समाज को खपा देने की समस्या का अन्तिम और कामिल इलाज होगा। किसी प्रकार की चुनाव व्यवस्था, मेरा विश्वास है, किसी महान् सामाजिक समस्या का हल नहीं हो सकती। इसके लिए किसी राजनीतिक समझौते से कुछ अधिक की आवश्यकता है, और मैं आशा करता हूँ कि आपके लिए यह सम्भव है कि आप इस राजनीतिक समझौते के ऊपर उठकर कोई ऐसी बात कर दें जिससे दलितवर्ग को समाज से सम्मान के साथ सामाजिक समता का दर्जा प्राप्त हो जाए और उसे हिन्दू-समाज का एक हिस्सा बनकर रहना सम्भव हो जाए।
इसके आगे अम्बेडकर कोट करते हुए कहते है
* जब तक दलितवर्ग अज्ञान के अन्धकार में पड़ा था और उसमें आत्म-सम्मान की भावना जाग्रत नहीं हुई थी, तब तक उसके लिए यह सम्भव था कि हिन्दू व्यवस्था में उसके लिए समाज में जो स्थान निर्धारित कर दिया गया, उसे उसने स्वीकार कर लिया। किन्तु जैसे-जैसे उनमें शिक्षा बढ़ेगी, त्यों-त्यों वे इन विधानों को बर्दाश्त न करेंगे जो मानवता के विरुद्ध हैं और उनके हिन्दू-समाज से दूर चले जाने का खतरा बढ़ता चला जाएगा।
अतएव मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप इस बात में भूल न करें और इस सम्बन्ध में आपको जो करना आवश्यक प्रतीत हो उसे करें। उसमें विलम्ब न करें।
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