वर्तमान के नेता देते है पापीमार राक्षस को बढ़ावा
राजा सिद्धार्थ को तो सभी जानते होंगे, अगर नहीं जानते तो ये वही राजा हैं जिन्होंने पापीमार को हरा कर खुद को बुद्ध बनाया था। आप अगर पापीमार को नहीं जानते तो ये वही दैत्य है जो पूरे संसार को, पूरी दुनिया को इस जनम-मृत्यु के जाल में बांधे रखता है। ये वही पापीमार है जो वर्तमान में इंसानों को जाती वर्ण के नाम पर आपस में घृणा करना सिखाता है। सरल भाषा में आप इस पापीमार को समझे तो ये इंसानों के अंदर का ही एक राक्षस है जो इंसानों को ही दुःख, घृणा, लालच, भेद-भाव और अन्य जंजीरों में बांध कर रखे हुए है। तथागत बुद्ध ने अपने अंदर के इसी राक्षस को हराकर बुद्धत्व प्राप्त किया था। वर्तमान में अगर देश की स्थिति को देखे तो भारत में पापीमार नाम का ये राक्षस बहुत तेज़ी से लोगों को अपने जंजीरों में बाँध रहा है और आज-कल के हमारे नेता इस पापीमार राक्षस को बढ़ावा देते दीखते हैं। हमारे नेता इस पापीमार को कभी हिन्दू और मुस्लिम के बीच उपद्रव फ़ैलाने भेज देते है तो कभी दलितों और सवर्णों के बीच आग लगाने।
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बाबा साहब डॉ. भीम राव आंबेडकर ने 1950 में ‘बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य’ नामक एक लेख में कहा था कि ‘यदि नई दुनिया पुरानी दुनिया से भिन्न है तो नई दुनिया को पुरानी दुनिया से अधिक धर्म की जरूरत है.’ इसी धर्म को और गहराई से अपनाने के लिए 14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धर्म अपना लिया था। आज हम बात करेंगे की सिद्धार्थ आखिर क्यों बुद्धत्व प्राप्ति के पीछे भाग रहे थे ? आखिर बाबा साहब को बुद्ध धर्म में ऐसा क्या दिखा जो उन्होंने बुद्ध को अपना लिया? जबकि अंत में एक सवाल ये भी उठता है की क्या बाबा अंबेडकर और सिद्धार्थ के विचारों में कोई सामानता थी?
पढ़ने-लिखने के बाद भी हिन्दू धर्म में मिला अपमान
बाबा साहब डॉ. भीम राव अंबेडकर ने कहा था कि वो उस धर्म में अपना प्राण नहीं त्यागेंगे जिस धर्म में उन्होंने अपनी पहली सांस ली है। भाई आखिर बाबा साहब ने अपने ही धर्म के प्रति ऐसा क्यों कहा? आप अगर इसके अंदर के किस्से को जाने तो आपको ये पता चलेगा की बाबा साहब हिन्दू धर्म के जाती-वर्ण व्यवस्था से काफी दुखी थे। बाबा साहब को अपने जाति को लेकर हमेशा से अपमान सहने को मिला है। वैसे तो इस महान वक्ता को बचपन से ही अपने जाति को लेकर अपमान का जहर पीना पड़ा है, पर जब विदेश से पढ़ाई करके आने के बाद भी उन्हें इस हिन्दू जाति-वर्ण व्यवस्था में इज्जत नहीं मिली, यहां तक की बड़ोदरा में अंबेडकर को उनके जाति के कारण रहने का कोई स्थान नहीं मिला था । जिसके बाद उन्होंने इस जाति व्यवस्था के खिलाफ लड़ने का संकल्प लिया था। बाबा साहब का कहना था कि, ‘मैं ऐसे धर्म को अपनाता हूं जो स्वतंत्रता, समानता, और भाईचारा सिखाये। इसी वजह से अंबेडकर ने 1956 में बुद्ध धर्म को अपना लिया था। जब अंग्रेजों से भारत की आजादी की लड़ाई लड़ी जा रही थी तो यह बात महसूस की गई थी कि भारत को अपनी अंदरूनी दुनिया में समतापूर्ण और न्यायपूर्ण होना पड़ेगा। अगर भारत एक आजाद मुल्क बनेगा तो उसे सबको समान रूप से समानता देनी होगी। केवल सामाजिक समानता और सदिच्छा से काम नहीं चलने वाला है। सबको इस देश के शासन में भागीदार बनना होगा।
जाने कैसे सिद्धार्थ बने बुद्ध
अब बात करते है बुद्ध धर्म की जिसके प्रति बाबा साहब इतना झुकाव रखते थे। आपको ये तो पता चल ही गया होगा की अंबेडकर ने आखिर बुद्ध धर्म को ही क्यों अपनाया। क्यूंकि गौतम बुद्ध ने इस धर्म की स्थापना ही स्वतंत्रता, समानता, और भाईचारा के नींव पर की थी। सिद्धार्थ राजा शुद्दोधन के पुत्र थे और एक क्षत्रिय थे। सिद्धार्थ मनुष्यों के दुःख और आपसी घृणा से बहुत ही दुखी थी। बचपन से ही क्षत्रिय ज्ञान लेने के बावजूद भी सिद्धार्थ के मन में करुणा और एक दूसरे के प्रति समानता की भावना थी। जब वो अपनी शिक्षा के बाद वापस महल में लौटते है तो उन्हें चारों तरफ अच्छाई से ज्यादा दुःख, घृणा और लालच नजर आई। तब इंसानों के अंदर के इस पापमारी राक्षस के काट को ढूंढने के लिए वो सिद्धार्थ से बुद्ध के रास्ते पर निकल गए।
इसके बाद जब तथागत ने अपने अंदर के उस पापमारी राक्षस पर काबू कर लिया तब उन्होंने एक स्वतंत्रता, समानता, और भाईचारा में लिप्त एक समाज बनाने का फैसला किया। समाज बनाने का फैसला किया बुद्ध की दृष्टिकोण से गलत हो सकता है क्यूंकि तथागत कभी भी अपने पीछे या अपने नाम पर एक समाज की स्थापना के खिलाफ थे। उन्हें लगता था की उनके मृत्यु के बाद चालक लोग इसीको हथियार बनाकर धर्म के ठेकेदार बन जायेंगे। इसलिए उन्होंने कभी ये नहीं बोला की आओ बुद्ध समाज में शामिल हो बल्कि उन्होंने हमेशा ये कहा है कि बुद्धत्व के मार्ग को अपनाओ। बुद्ध के समय में भी ये जो जाति धर्म का कीड़ा है वो समाज को अंदर-हीं-अंदर खा रहा था। बुद्ध के समय में भी उस समय के चालक इंसानों ने काफी षड्यंत्र रचा था लेकिन बुद्ध का मार्ग आज भी लोगों के कल्याण में लगा हुआ है।
अंबेडकर और बुद्ध के बीच की समानता
ठीक इस सोच को देखते हुए 1956 में बाबा साहब भी लाखों की संख्यां में दलितों के साथ बुद्ध के मार्ग पर निकल पड़े थे। अंबेडकर को ये हमेशा से लगता रहा है की अगर भारत को एक विकसित देश बनाना है तो इस जाती-धर्म से ऊपर उठ कर सभी को देश के शासन में भागीदार बनना होगा। अगर बुद्ध और अंबेडकर की विचारों में समानता ढूंढे तो आपको बहुत सारी चीजे एक जैसी मिलेगी। जैसे बुद्ध खुद से ज्यादा इंसानों के दुःख, दर्द को समझते थे वैसे ही अंबेडकर भी खुद से अधिक अन्य दलितों के पीड़ा के बारे में सोचते थे। अम्बेडकर एक ऐसा देश चाहते थे जो स्वतंत्रता, समानता, और भाईचारा के रास्ता को महत्व देता हो,वहीं दूसरी तरफ बुद्ध ने एक ऐसे समाज के निर्माण में अपना पूरा जीवन लगा दिया जिसमे स्वतंत्रता, समानता, और भाईचारा एक अहम भूमिका निभाती है।
महान इंसान समाज का नौकर बनने को हमेशा तैयार
बुद्ध और अंबेडकर ने अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा समाज को दिया है और यही चीज एक महान इंसान को एक आम इंसान से अलग बनाती है। अंबेडकर ने इस बारे में कहा था कि एक महान और प्रतिष्ठित व्यक्ति में मात्र इतना सा फर्क है की एक महान इंसान हमेशा समाज का नौकर बनने को तैयार रहता है और इस बात का साबुत आपको तथागत बुद्ध के जीवन को पढ़ कर या देख कर मिल जायेगा।