अमृतसर को सिक्ख धर्म का सबसे पवित्र शहर माना जाता है, जो भारत और पाकिस्तान के बॉर्डर पर स्थित है. टूरिज्म डिपार्टमेंट के आकड़ों की बात करें तो ताजमहल के बाद यहां का स्वर्ण मंदिर सबसे ज्यादा देखा वाला स्थान है. इसकी गुरुद्वारे की सुंदरता और मान्यता होने के कारण यहां लाखों लोग आते हैं.
पौराणिक कथाओं की बात हो या काल-खण्ड की, भगवान राम के पुत्र लव-कुश की बात की जाए या सिक्ख धर्म के गुरुओं की, धार्मिक स्थलों की बात की जाए या ऐतिहासिक स्थलों की या फिर आजादी के समय दी गई कुर्बानी की यहां सब मौजूद है.
त्रेतायुग से है अमृतसर का कनेक्शन
ऐसा बताया जाता है कि रामायण काल में अमृतसर के स्थान पर एक घना जंगल था. जहां एक सरोवर हुआ करता था. वही सरोवर भगवान श्री राम के दोनों पुत्र लव और कुश अपनी माँ सीता के साथ गुरु बाल्मीकि के आश्रम में ठहरे थे. आज भी इस तीर्थ स्थात को श्री राम तीर्थ के नाम से जाना जाता है.
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इसके अलावा सिखों के पहले गुरु ‘गुरु नानक देव’ ने भी इस शहर की सुन्दरता को देखने के लिए एक पेड़ के नीचे ठहरे थे. जो आज भी सरोवर वृक्ष के नाम से प्रसिद्ध है.
अमृतसर का इतिहास
अगर अमृतसर के इतिहास को देखा जाए तो तो शायद किताब के पन्ने कम पड़ जाएंगे लेकिन इसका इतिहास कभी ख़त्म होने का नाम नहीं लेगा. ये शहर करीब 400 से 500 साल पहले अस्तितिव में आया जब सिक्ख धर्म के चौथे गुरू श्री गुरू रामदास जी ने 1564 ईस्वी में इस शहर की नींव रखी, तब इस शहर का नाम अमृतसर नहीं बल्कि गुरु रामदास के नाम पर इसे रामदासपुर कहा जाने लगा. और फिर उसके बाद सन 1577 ईस्वी में गुरु रामदास जी ने गुरुद्वारा श्री हरिमंदर साहिब की नींव रखी गई.
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500 बीघे में तैयार इस गुरुद्वारे में एक सरोवर भी बनाया गया है. इसी तालाब के बीच में एक मंदिर बनाया गया है, जिसे हम स्वर्ण मंदिर के नाम से जानते हैं. इस गुरुद्वारे के बाद ही अमृतसर सिक्ख धर्म का केंद्र बना. इसके बाद धीरे धीरे इस शहर में व्यापर स्थापित होने लगा. फिर धीरे-धीरे इस शहर में व्यापार भी स्थापित हुआ और पूरी दुनिया में अमृतसर ने अपनी एक अलग पहचान बनाई. फिर साल 1849 का वो समय आया, जब अमृतसर को ब्रिटिश हुकूमत का हिस्सा बना दिया गया.
अमृतसर के इतिहास को वो दर्दनाक किस्सा
इतिहास में जब भी हम काले पन्नों और दर्दनाक हादसों में अमृतसर की बात करते हैं तो अंग्रेजों द्वारा अमृतसर के जलियांवाला बाग में किये गए हत्याकांड का नाम बिन बुलाए जुबान पर आ जाता है. वहां मौजूद उन हजारों लोगों में से किसको पता था कि आज का ये दिन उनका आखिरी दिन होगा. बात है 13 अप्रैल 1919 की जब इस बाग में सकदों निहत्थे मासूमों को अंग्रेजी हुकूमत के बादशाह जर्नल डायर ने गोलियों से चालली करवा दिया था.
जिनके निशान आज भी वहां की मौजूद दीवारों पर मौजूद हैं. सरकारी आकड़ों में तो ये संख्या भले ही सैकड़ों में थी लेकिन सच्चाई तो ये थी कि उसमे हजारों लोगों ने अपनी जानें गंवाई थी. जलियांवाला बाग काण्ड भारतीय इतिहास का वो कला दिन था जिसे आज भी कोई भारतीय अपने दिलों दिमाग से नहीं निकाल पाया है. जिसकी यादें आज भी रूह को कुरेद कर रख देती हैं.