धन्ना सेठ – धन्ना जाट एक उच्च कोटि के कृष्ण भक्त और कवि हुए, इन्हें धन्ना भगत और धन्ना सेठ के नाम से भी जाना जाता है. इनकी भक्ति का प्रताप ऐसा था की स्वयं भगवान कृष्ण इनकी गायें चराने आते थे और इनके साथ भोजन पाते थे. इनके गाँव धुंआकला में सिक्ख समुदाय के लोगों ने धन्ना जी के नाम से एक भव्य गुरूद्वारे का निर्माण करवाया है. धन्ना जी के द्वारा गाए हुए कई पदों को गुरुग्रंथ साहिब की गुरुवाणी में भी स्थान दिया गया है.
घरवालों ने शालिग्राम के नाम पर दिया था आम पत्थर
धन्ना सेठ का जन्म राजस्थान के एक जाट परिवार में 20 अप्रैल 1415 को हुआ था. जिनके पिता खासतौर से खेती और माता गौ पालन करती थी. कहानी की शुरुआत उस वक़्त से होती है जब एक दिन धन्ना जी के परिवार के कुलगुरु जिनका नाम पंडित त्रिलोचन था, तीर्थयात्रा करके लौटे और कुछ दिनों के लिए धन्नाजी के घर पर ठहरे. पंडित त्रिलोचन शालिग्राम भगवान की सेवा किया करते थे, वे बड़े भाव से शालिग्राम शिला की सेवा करते, फूल अर्पित करते और उन्हें भोग लगाने के बाद ही भोजन ग्रहण किया करते थे. बालक धन्ना पंडित जी को यह सब करते हुए देखता था, उसे भगवान की सेवा बहुत पसंद आयी.
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कुछ दिन बाद जब पंडित जी उनके घर से जाने लागे तो धन्ना पादित जी से शालिग्राम पत्थर लेने की जिद करने लगा और कहने लगा कि मझे ठाकुर जी चाहिए लेकिन पंडित जी ऐसे ठाकुर जी को कैसे दे सकते थे. धन्ना जी को उनके माता पिता ने बहुत समझाया लेकिन वो नहीं माने. आखिर में यही हुआ कि ये तो छोटा सा बच्चा है इसे क्या ही पता चलेगा कि आम पत्थर और शालिग्राम पत्थर में क्या अंतर होता है और अगले दिन जब वो नहाने तो वहां से एक काला पत्थर ले आए और धन्ना जी से बोले कि मैं दो ठाकुर जी लाया हूं एक बड़े वाले और दूसरा छोटे वाले आप को कौन सा चाहिए. तब उन्होंने ने बड़ा वाला ठाकुर जी माँग लिया. वही पत्थर जो वो नहाते वक़्त लेकर आए थे उसे धन्ना जी को शालीग्राम ठाकुर जी बताकर दे दिया.
गाय चराने अपने साथ खेतों में ले जाते
ठाकुर जी को पाकर धन्ना जी बहुत खुस हुए और अपने साथ ही गाय चराने खेतों में लेकर जाने लगे.धन्ना जी की माँ अक्सर उन्हें बाजरे की रोटी और गुड़ दिया करती थी. ऐसे में धन्ना जी ने ये निर्णय किया कि अब वो भी पंडित जी की ही तरह ठाकुर जी को भोग लगाकर ही खाना खायेंगे. उन्होंने ने जोर से आवाज़ लगाकर ठाकुर जी को भोग लगाया लेकिन ठाकुर जी ने उनका भोग नहीं लिया. तभी धन्ना जी ने ये फैसला लिया कि जब तक तक ठाकुर जी प्रकट होकाr उनका भोग नहीं लेते वो भी खाना नहीं खाएंगे. जब ठाकुरजी ने भोग नहीं लगाया तो धन्ना जी ने शाम को वह रोटी गाय को खिला दी. तीन दिनों तक ऐसा ही चलता रहा न ठाकुरजी भोग लगते और ना धन्नाजी भोजन ग्रहण करते.
जब साक्षात प्रकट हुए भगवान कृष्ण
चौथे दिन धन्नाजी की माताजी फिर से रोटी लेकर आयी. तो धन्ना जी खेतों में जोर-जोर से रोने लगे और ठाकुर जी से गुहार लगाने लगे, वे बोले आप तो बड़े वाले ठाकुरजी है, आपको तो लोग रोज ही छप्पन भोग चढ़ाते होंगे, लेकिन मैं बालक तीन दिन से भूखा और परेशान हूँ, आपको मुझ पर दया नहीं आती है क्या, मुझ पर दया करके ही थोड़ा भोग लगा लो जिससे मैं भी कुछ खा सकूँ, क्योकि पंडितजी ने कहा है की आपको खिलाये बिना कुछ नहीं खाना. इसलिए पहले आप खा लो उसके बाद ही मैं खा सकूंगा. धन्नाजी की भोलेपन से की गयी प्रार्थना को सुनकर भगवान श्री कृष्ण साक्षात् प्रकट हो गए. अपने ठाकुरजी को देखकर धन्ना जी बहुत प्रसन्न हो गए.
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उन्होंने ठाकुर जी को माँ की दी हुई बाजरे के रोटी साग और गुड़ खाने को दिया. ठाकुरजी बड़े चाव रोटी खाने लगे. चार रोटियों में से दो रोटी ठाकुर जी ने खा ली, जब ठाकुरजी तीसरी रोटी को खाने लगे तब धन्ना जी जी उनका हाथ पकड़ लिया और कहा सारी रोटियाँ आप ही खा जायेगें क्या, मुझे भी तो भूख लगी है, मैंने तो चार दिनों से कुछ भी नहीं खाया. दो रोटी आपने खा ली अब दो रोटी मेरे लिए छोड़ दो. इसके बाद ठाकुर जी मुस्कुराने लगे और बची हुई दो रोटियाँ धन्ना जी ने खाई.
जब श्री कृष्ण बोले- ‘किसी गुरु की शरण लो’
भोग लगाकर खाना अब उनका रोज का नियम हो गया था धन्नाजी जब गायें चराने जाते तो भोजन खेतों में जाकर ठाकुरजी के साथ ही करते. एक दिन ठाकुरजी ने धन्नाजी से कहा तुम रोज मुझे रोटी खिलाते हो, मैं मुफ्त में रोटी नहीं खाना चाहता इसलिए मैं तुम्हारा कोई काम कर दिया करूँगा. धन्ना जी ने कहा मैं तो बालक हूँ केवल गायें ही चराता हूँ, मैं आपको क्या काम बता सकता हूँ. तब ठाकुर जी ने कहा मैं तुम्हारी गायें ही चरा दिया करूँगा. उस दिन के बाद से ठाकुर जी धन्ना जी की गायें चराने लगे.
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एक दिन धन्नाजी ने ठाकुरजी से पूछा आप मुझे अपने ह्रदय से क्यों नहीं लगाते हैं, तब ठाकुर जी ने कहा मैं तुम्हारे सामने प्रत्यक्ष प्रकट हो गया हूं. लेकिन पूरी तरह से मैं तब मिलता हूँ जब कोई सदगुरु जीव को अपना लेते है, अभी तक तुमने किसी गुरु की शरणागति ग्रहण नहीं की है, इसलिए मैं तुम्हे अपने हृदय से नहीं लगा सकता. तब धन्नाजी बोले मैं तो जानता नहीं की गुरु किसे कहते है, फिर मैं किसे अपना गुरु बनाऊं. ठाकुर जी बोले काशी में जगद्गुरु श्री रामानंदाचार्य मेरे ही स्वरूप में विराजमान है, तुम जाकर उनकी शरण ग्रहण करो. ठाकुर जी के कहे अनुसार धन्ना जी ने काशी जाकर श्री रामानंदाचार्य जी की शरणागति ग्रहण कर ली, उस समय धन्ना जी की आयु पंद्रह-सोलह वर्ष के आसपास थी.
ठाकुर जी ने जब धन्ना सेठ को गले से लगाया
श्री रामानंदाचार्य जी ने धन्ना जी को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया और उन्हें आदेश दिया की अब तुम अपने घर चले जाओ. धन्नाजी बोले गुरूजी अब मैं घर नहीं जाना चाहता तो आप मुझे घर जाने का आदेश क्यों दे रहें है. गुरूजी बोले अगर तुम यहाँ रहकर भजन करोगे तो केवल तुम्हारा ही कल्याण होगा, लेकिन अगर तुम अपने घर जाकर खेती किसानी करते हुए अपने माता-पिता की सेवा करते हुए भजन करोगे तो तुम्हारे साथ कई जीवों का उद्धार हो जायेगा. गुरूजी के आदेश पर धन्नाजी घर लौट आये, इसके बाद जैसे ही धन्नाजी घर पहुंचे ठाकुर जी ने उन्हें अपने ह्रदय से लगा लिया.
घर आने के बाद शुरू की संत सेवा
इसके बाद धन्नाजी खूब संत सेवा करने लगे, जब भी उनके गाँव में कोई साधु संत आते धन्नाजी उन्हें अपने घर ले आते और बड़े प्रेम से उनकी सेवा करते उन्हें भोजन खिलते. संतो की सेवा करने के कारण अब उनके घर दूर-दूर से साधु-संत पधारने लगे. धन्नाजी उन सभी का बड़े प्रेम से सत्कार करते और उन सभी को भोजन खिलाते.
पिता ने साधुओं को घर आने से रोका
एक दिन धन्ना जी के पिताजी ने धन्ना जी से कहा, देखो भाई हम लोग गृहस्त लोग है, यदि महीने में एकआध बार कोई साधु आ जाये तो हम उनकी सेवा भी कर दें और उन्हें भोजन भी करा दें, लेकिन तुम्हारी इन साधुओं से ऐसी दोस्ती हो गयी है की हर दूसरे दिन कोई न कोई साधु चला आता है और अपने साथ एक दो को और ले आता है.
यह ठीक नहीं है, हम अपनी खेती-बाड़ी का काम करें या इन साधुओं की सेवा करें. तुम तो अभी बालक हो कुछ कमाते हो नहीं, तुम्हारा पालन पोषण भी हम ही करतें है और ऊपर से तुम साधुओं को बुला लाते हो. इस प्रकार इन निठल्ले साधुओं की सेवा करना ठीक नहीं है. इसलिए एक बात कान खोलकर सुन लो आज के बाद यदि तुम किसी साधु को घर लेकर आये तो मैं उन्हें घर में नहीं घुसने दूंगा. तुम्हे यदि साधु सेवा करनी है तो पहले कुछ कमाई करो फिर अपनी कमाई से साधु सेवा करना.
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पिताजी की बात सुनकर धन्नाजी उदास हो गए और चुपचाप खड़े हो गए, तब पिताजी ने धन्नाजी को डांटते हुए कहा आज के बाद किसी साधु को घर में लेकर मत आना और जाओ खेतों में गेहूं बो कर आओ. खेत तैयार है, बोरी में बीज का गेहूं रखा है, इसे बैलगाड़ी में ले जाओ और खेत में बो दो. धन्नाजी ने बैलगाड़ी में गेहूं रख लिया और खेत में बोने चल दिए.
धन्ना सेठ थोड़ी दूर ही चले थे उन्हें मार्ग में पांच- छः साधु-संतो की टोली आती दिखाई दी. धन्नाजी ने बैलगाड़ी से उतरकर उन्हें शाष्टांग प्रणाम किया. संतो ने धन्नाजी को आशीर्वाद दिया और पूछा बेटा इस गाँव में धन्नाजी का घर कौन सा है, सुना है वे जगद्गुरु श्री रामानंदाचार्य के शिष्य है, और बहुत छोटी उम्र में ही उन्होंने भगवान का दर्शन प्राप्त कर लिया है. हम भी उनका दर्शन करना चाहते है. यह सुन कर धन्नाजी संकोच में पड गए और वे हाथ जोड़कर बड़ी विनम्रता से बोले महाराज मुझे ही लोग धन्ना भगत कहते है.
संतो को कराया दाल बाटी चूरमा का भोजन
संत बोले भगवान ने बड़ी कृपा की, हम जिनसे मिलने आये थे वे यहीं मिल गए, निश्चित ही आप ऐसे ही भक्त है, जैसा आपके विषय में सुना था, कितनी विनम्रता है आपमें. चलिये आपके घर चलतें है, वहीं बैठ कर आपसे चर्चा करेंगे. धन्नाजी ने सोचा अभी पिताजी ने साधुओं को घर लाने के लिए मना किया है, यदि मैं खेतों में बीज बोने के बजाय इन साधु-संतो को घर ले गया तो पिताजी आसमान सिर पर उठा लेंगे और इन साधुओं को भी भगा देंगे. तब धन्नाजी कुछ विचार करके बोले महाराज अभी घर पर कोई नहीं है, मैं भी खेतों की तरफ जा रहा हूँ, आप मेरे साथ वहीं चलिए.
संत बोले ठीक है हमें तो आपसे मिलना था, अब आप जहाँ ले चलें हम वहीं चलेगें. फिर धन्नाजी उन सभी को अपने खेत ले गए, खेत में एक पेड़ के निचे बने चबूतरे पर साधुओं को बैठकर बोले महाराज आप यहीं पर कुछ देर विश्राम कीजिये तब तक मैं आपके भोजन की व्यवस्था करता हूँ. यह कहकर धन्नाजी वहाँ से बैलगाड़ी लेकर चले गए.
बैलगाड़ी लेकर धन्नाजी सीधे बनिये की दुकान पर पहुंचे, वहां पर उन्होंने बैलगाड़ी में जो बीज वाला गेहूं जो खेत में बोने के लिए रखा था, उसे बनिये को बेच दिया और उससे दाल बाटी और चूरमा बनाने का सारा सामान खरीद लिया. सामान लेकर धन्नाजी खेत पहुंचे. वहाँ पर उन्होंने संतो के साथ मिलकर बहुत बढ़िया दाल बाटी और चूरमे का प्रसाद बनाया. भगवान को प्रसाद का भोग लगाने के बाद बड़े प्रेम से उन्होंने संतो को भोजन करवाया, इसी बिच भगवत चर्चा भी होती रही. संतो को भोजन करवाने के बाद बड़े प्रेम से उन्हें विदा भी कर दिया.
धन्ना सेठ ने गेहूं की जगह खेत में बो दिया ‘रेत’
संतो के जाने के बाद धन्नाजी सोचने लगे की बीज वाले गेहूं को तो बेचकर संतों को भोजन करा दिया अब खेत में क्या बोया जाये. अगर पिताजी से फिर बीज माँगने गया तो पिताजी बहुत नाराज होंगे. यह सोचकर धन्नाजी ने बोरियों में रेत भर ली और आसपास के लोगों को दिखने के लिए उस रेत को ही खेतों में बोने लगे. धन्नाजी ने राम-राम का नाम लेते हुए शाम तक बोरियों की सारी रेत खेत में छिड़क दी.
आस पास के खेतों के किसान देख रहे थे की धन्ना सेठ खेतों में गेहूं बो रहे है परन्तु वे तो खेतों में रेत बो रहे थे. खेत बोने बाद धन्नाजी बड़े प्रसन्न मन से घर की ओर चल दिए, वे सोचने लगे खेत में तो कुछ उगना नहीं है, तो देखभाल भी नहीं करनी पड़ेगी. घर पर पिताजी ने पूछा खेत बो आये, धन्नाजी बोले, जी पिताजी बो आया.
कुछ दिन बाद धन्नाजी के पिताजी और गाँव के कुछ बड़े बूढ़े लोग धन्नाजी के पास आये और बोले की तुमने कैसा खेत बोया है ऐसी फसल तो हमने अपने जीवन में आज तक नहीं देखी. ऐसा लगता है जैसे गेहूं का एक एक दाना नाप-नाप कर एक समान दुरी पर बोया गया है, और सारे ही दाने उग आएं हो. इतनी सुंदर फसल तो हमने आजतक नहीं देखी, ये सब तुमने कैसे किया. धन्नाजी सोचने लगे ये सब उनको ताने मार रहें है, खेत में कुछ उगा ही नहीं होगा इसलिए ऐसी बातें बोल रहें है.
तब धन्ना जी ने स्वयं खेत पर जाकर देखा. वहाँ जाकर वे आश्चर्यचकित रह गए उन्होंने देखा जिस खेत में उन्होंने रेत बोई थी, वहाँ पर फसल उग आयी थी, और ऐसी सुन्दर फसल उन्होंने कभी नहीं देखी थी. फसल को देखकर धन्नाजी को भगवान की कृपा का अहसास हुआ और उनकी आँखों से आँसू निकल आये. धन्ना सेठ जोर-जोर से रोने लगे. जब धन्नाजी के पिताजी और अन्य गाँव वालों ने रोने का कारण पूछा. तब धन्नाजी ने रोते हुए सारी घटना कह सुनाई. धन्ना जी बोले पिताजी जब आपने संतो को घर लाने के लिए मना किया था और खेत बोने के लिए गेहूं दिया था, उसी दिन मुझे मार्ग में कुछ संत मिल गए. मैंने उन संतो को अपने खेत पर ठहराया और बीज वाला गेहूं बनिये को बेचकर संतों को भोजन करवाया. इसके बाद मैंने खेतों में रेत बो दी, रेत बोने के बाद यह फसल कैसे उग आयी मुझे नहीं मालूम.
धन्ना जी की यह बात सुनकर उनके पिताजी के भी आंसू निकल आये और वे बोले मेरा धन्य भाग जो मेरे घर में ऐसे पुत्र ने जन्म लिया. आज के बाद हम तुमने रोकेंगे नहीं खूब साधु बुलाओ खूब संत सेवा करो हम तुम्हे अब कभी मना नहीं करेंगें. आज से मैं भी भगवान की भक्ति किया करूँगा और तुम्हारे साथ संतो की सेवा किया करूँगा. इसके बाद धन्नाजी और उनके परिवार वाले खूब संत सेवा करने लगे. कुछ समय बाद धन्नाजी की उगाई हुई फसल को काटने का समय आ गया. उस फसल से उतने ही आकर की खेती से 50 गुना ज्यादा गेहूँ निकला, यह गेहूँ इतना ज्यादा था की उसे रखने तक की जगह नहीं बची थी. गाँव से सभी लोग धन्नाजी की फसल देखकर आश्चर्य करने लगे.
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जब भगवान ने खुद ली उनकी परीक्षा
एक बार ठाकुर जी ने खुद ही धन्ना जी की परीक्षा लेनी चाही. , धन्ना जी के गाँव में अकाल पद गया था और फिर भी धन्ना जी पूरे गाँव और साधु संतों को खाना खिला रहे थे और गरीबों में अनाज बाँट रहे थे. लेकिन धीरे धीरे उनका भी भी भण्डार समाप्त होने लगा., उस वक़्त भी धन्ना जी ने इस बात का निर्णय लिया कि जब तक वो सक्षम हैं तब तक उनसे जो हो सकेगा वो करेंगे.
उनकी सेवा से प्रसन्ना होकर ठाकुर जी खुद एक संत के रूप में उनके यहाँ आए और एक बीज दिया औ बोले कि इस बीज को जाकर खेत में लगा आओ और उससे जो भी मिलेगा उसे गाँव वालों में बाँट देना. उन्होंने ऐसा ही किया लेकिन गावीं वाले उन्हें पागल कह रहे थे कि इस सूखे में आखिर कौन सी फसल होगी. मगर फसल जब हुई तो लोगों के अस्चर्या का ठिकाना न रहा. कह्तों में फसल लहरा रही थी.
एक दिन ऐसा आया जब धन्नाजी खेतों में लगी फसल पक गयी, धन्ना सेठ के खेत में बड़े-बड़े तुम्बा के फल दिख रहे थे. धन्नाजी से सोचा अब दान करने को तो कुछ है नहीं, अब इन तुंबा से कमंडल बनाकर संतो को दिया करेंगे. धन्नाजी खेतों में लगे सभी तुंबा के फल तोड़कर घर ले आये. घर आकर जैसे ही उन्होंने एक तुंबा को कमंडल बनाने के लिए काटा उन्होंने देखा यह तुंबा हीरे मोती, जवाहरात और कीमती रत्नो से भरा हुआ था. तुंबा को कीमती रत्नो से भरा देखकर वे आश्चर्यचकित रह गए.
उनके पास तो तुंबा की पूरी फसल थी. उन्होंने देखा सभी तूम्बों में ऐसे ही कीमती रत्न भरे हुए थे. इस चमत्कार को देखने के बाद धन्ना जी को उन संत की याद आयी जिन्होंने उन्हें तुंबा के बीज दिए थे. अब धन्नाजी उस धन से लोगो की सेवा करने लगे, वे फिर से दोनों हाथो से लोगों की मदद करने लगे. उस समय वह अकाल कई वर्षो तक चला, उस समय धन्ना जी ने अपने घर में और आसपास के कई गांवों में लंगर शुरू करवा दिया. आसपास के सैंकड़ों गाँवो के लाखों लोग वर्षों तक धन्नाजी के लंगर में तीनों समय भोजन किया करते थे.
धन्ना सेठ ने अपने जीवनकाल में कई मंदिर, बावड़ियां, तालाब और धर्मशालाएं भी बनवाई और हर तरह से साधु-संतो और जरूरतमंद लोगों की मदद की. लोग धन्नाजी को धन्ना सेठ कहकर बुलाने लगे. धन्नाजी जैसा धनी आज तक कोई नहीं हुआ, वे धन और मन दोनों के धनी थे, आज भी उनके ही नाम पर धनी लोगों को धन्ना सेठ की उपमा दी जाती है.