किसी ने मजाक में नहीं कहा है कि यूं ही नहीं कोई मांझी बनता, परिस्थितियां बनाती हैं. बिहार के दशरथ मांझी के बारे में आप जानते ही होंगे. जिन्होंने पत्नी के वियोग में उन्होंने छेनी-हथौड़ी उठाई थी. फावड़े से रोड बना डाली थी. अब कुछ इसी प्रकार का मांझी-सा प्रयास उत्तराखंड के प्रकाश गोस्वामी ने किया है. कहानी में अंतर इतना है कि उन्हें अपने गांव तक सड़क से पहुंच का रास्ता बनाना था. रास्ता नहीं होने से परेशानी हुई तो सरकार के पास गुहार लगाई. नेताओं तक पहुंचे. भरोसा मिला, सड़क नहीं बनी. फिर, खुद ही छेनी-हथौड़ी उठाई. पहाड़ काटना शुरू किया. नौ महीने का प्रकाश गोस्वामी का प्रयास आखिरकार रंग लाया. 500 मीटर लंबी सड़क बनाने में प्रकाश गोस्वामी कामयाब हो गए. अब गांव तक पहुंचने का रास्ता हो गया है. हर कोई उनके इस प्रयास की तारीफ कर रहा है.
सड़क बनाने की ये थी असल वजह
प्रकश गोश्वामी की उम्र अभी करीब 45 साल है. यहाँ आने के कुछ साल पहले प्रकश मुंबई में बातौर केयरटेकर का काम करते थे. लेकिन कुछ समय बाद जब वो शहर से अपने गाँव वापस लौटे तो तो रास्ते में आई दिक्कतों ने उन्हें अन्दर से झकझोर दिया.उन्होंने देखगा कि गाँव से प्राथमिक स्कूल और मंदिर जाने के लिए सड़क नहीं है. जिसकी वजह से लगों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. फिर एक दिन खुद ही छेनी-हथौड़ी फावड़ा लेकर चल दिए. शुरुआत में लोगों ने उनकी हंसी उड़ाई. अब हर कोई उनकी तारीफ करता है. प्रकाश मजदूर के रूप में प्रति दिन लगभग 600 रुपये कमाते हैं. उनकी पत्नी गांव में छोटे-मोटे काम करती हैं.
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साल भर के भीतर बना डाली 1km सड़क
सड़क कि इस समस्या को देखते हुए प्रकाश ने शासन प्रशासन हर किसी से गुहार लगायी सब सिर्फ वादे करते रहे लेकिन काम किसी ने नहीं किया. जिससे हारकर बिना रुके प[रक्ष ने खुद ही सड़क बनानी शुरू कर दी. और देखते ही देखते प्रकाश ने साल भर के अन्दर 1 किलोमीटर की सड़क बना डाली. उनके इस काम को पूरे गाँव से खूब सराहना मिली. और लोगों को भी अब सड़क से आने जाने में कोई समस्या नहीं हो रही है.
लोगों के तानों का नहीं पड़ा फर्क
जून 2022 में उन्होंने सड़क बनाने का काम शुरू किया तो लोगों ने ताना मारा. उनके ही रोड की जरूरत की बात कही. लेकिन, प्रकाश गोस्वामी नहीं रुके. हर दिन सुबह 5 बजे काम पर पहुंच जाते और रात नौ बजे तक पहाड़ को काटते रहते थे. आखिरकार उन्होंने सड़क को आकार दे ही दिया. अब गांव की मुख्य सड़क से कनेक्टिविटी हो गई है. प्रकाश कहते हैं कि कुछ हिस्सों को अभी भी चौड़ा करने की आवश्यकता है, लेकिन सड़क बनकर लगभग तैयार है. अब, चार पहिया वाहन भी मेरे घर तक पहुंच सकते हैं. इस सड़क से करीब 300 लोगों को लाभ होगा. लेकिन, काम के दौरान मुझे अधिकारियों या ग्रामीणों से भी कोई मदद नहीं मिली. वे दोहराते हैं कि हां, अक्सर लोगों ने मुझे ताने मारे.
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कुछ इलाकों में अभी भी है सड़क का अभाव
इस बात से तो आप सभी शायद वाकिफ होंगे की उत्तराखंड पहाड़ी इलाका है इसलिए यहाँ सड़के बनाना इतना आसान काम नहीं उसके लिए सही तरीके के इन्तेज़ामात कि बहुत जरूरत होती है क्यों वहां आए दिन पहाड़ टूटते रहते हैं, दरअसल, उत्तराखंड के कई दूर-दराज इलाकों में अभी भी गांवों को मुख्य सड़कों से जोड़ा जाना संभव नहीं हो सका है.
आपात स्थिति के दौरान कोई भी कार या बाइक पहाड़ी की चोटी पर बने घरों तक नहीं जा सकती है. इससे लोगों को परेशानी होती है. इसी बीच बागेश्वर के कांडा इलाके में करीब 10 महिलाओं के एक समूह ने खुद सड़क बनाने का काम शुरू किया है. ये लोग 10 सालों से सड़क की मांग कर रहे हैं. सड़क बना रही एक महिला पुष्पा देवी कहती हैं कि गर्भवती महिलाओं और बुजुर्गों को अस्पताल ले जाना मुश्किल हो जाता है. पुष्पा बताती हैं कि भंडारी गांव में एक असिस्टेंट नर्स और मिडवाइफ (एएनएम) केंद्र है. वहां तक पहुंचने के लिए महिला मरीजों को लंबा सफर तय करना पड़ता है.
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इसलिए देते हैं दशरथ मांझी की मिसाल
दशरथ मांझी बिहार में गया के करीब गहलौर गांव के एक गरीब मज़दूर थे. वे काफी कम उम्र में ही धनबाद की कोयले की खान में काम करने लगे. बड़े होने पर फाल्गुनी देवी नामक लड़की से शादी कर ली. अपने पति के लिए खाना ले जाते समय उनकी पत्नी फाल्गुनी पहाड़ के दर्रे में गिर गयी. पहाड़ के दूसरी और अस्पताल था, जो करीब 55 किलोमीटर की दूरी पर था. दूरी होने के कारण उचित समय पर उनको उपचार नही मिल पाया जिसके कारण उनका निधन हो गया. यह बात उनके दिल को लग गई.
इसके बाद दशरथ मांझी ने संकल्प लिया कि वह अकेले अपने दम पर पहाड़ के बीचोंबीच से रास्ता निकालेंगे और केवल एक हथौड़ा और छेनी लेकर खुद अकेले ही 25 फुट ऊंचे पहाड़ को काटकर 360 फुट लंबी 30 फुट चौड़ी और एक सड़क बना डाली. 22 वर्षों के अथक परिश्रम के बाद दशरथ की बनाई सड़क ने अतरी और वजीरगंज ब्लॉक की दूरी को 55 किलोमीटर से 15 किलोमीटर कर दिया. इसके बाद उन्हें माउंटेन मैन के नाम से जाना गया.
शुरुआत में लोग उन्हें देखकर पागल कहा करते थे, लेकिन इस बात ने इनके निश्चय को और भी मजबूत किया. उन्होंने अपने काम को 22 वर्षों में पूरा किया. पहले गांव वालों ने उन पर ताने कसे लेकिन उनमें से कुछ ने उन्हें खाना दिया और औज़ार खरीदने में उनकी सहायता भी की.एक इंसान जिसके पास नहीं पैसा था, न ही ताकत थी,उसने एक पहाड़ खोद दिया.
17 अगस्त 2007 को 73 साल की उम्र में उनका कैंसर की वजह से निधन हो गया. लेकिन जाते जाते वे लोगों के बीच अपने जज्बे और जुनून से ऐसी मिसाल पेश कर गए जो वर्षों तक तमाम लोगों के मन में आशा की किरण जगाएगी. हम सब का दशरथ मांझी से ये सीख लेनी चाहिए कि यदि व्यक्ति वाकई कुछ करने की ठान लें तो जीवन में कुछ भी असंभव नहीं है. लेकिन लक्ष्य के लिए जोश, जुनून और निरंतरता की जरूरत होती है.