Dalit Passport Struggle India – हम आपको बता दे कि 1967 में भारत की सर्वोच्च अदालत ने यह तय किया था कि भारत के प्रत्येक नागरिक को पासपोर्ट रखने और विदेश जाने का मूल अधिकार है. उस दौर का यह एक ऐतिहासिक फैसला था, क्यों कि साठ के दशक में पासपोर्ट एक ख़ास दस्तावेज़ होता था. भारत में उस समय पासपोर्ट उन लोगों को दिया जाता था, जो दूसरे देश में भारत की इज्ज़त बनाए रखे और भारत का प्रतिनिधित्व करने के काबिल हो.
BBC ने अपनी एक रिपोर्ट में इतिहासकार राधिका सिंघा के हवाले से लिखा है कि भारत में लंबे समय तक पासपोर्ट किसी नागरिक की प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता था, जो सिर्फ़ शिक्षित व्यक्तियों को ही दिया जाता था. इसलिए उस समय श्रीलंका, म्यांमार और मलाया रहने वाले मजदूरों को पासपोर्ट नहीं दिया जाता था. इन मजदूर वर्गों की संख्या 10 लाख से भी अधिक थी जो ब्रिटिश राज के दौरान मजदूरी करने ब्रितानी गए थे.
BBC की एक रिपोर्ट अनुसार इतिहासकार नटराजन का कहना है कि ‘भारत में पासपोर्ट रखने वालों को सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त और भारत का प्रतिनिधि माना जाता था. इसी मान्यता कि वजह से मजदूरी और कुली जैसे काम करने वाले लोगों को ‘अवांछनीय’ समझा जाना था, ओए 1947 के बाद भी भारतीय पासपोर्ट नीति में यह परम्परा बनीं रही.
और पढ़ें : बहुजनों के लिए लागू की गई ये 5 सरकारी स्कीम्स ‘वरदान’ के समान हैं
आजादी के बाद भी नहीं बदली कुछ नीतियां
भारत को, 1947 में आजादी तो मिल गयी थी, लेकिन कुछ नीतियां ब्रिटिशों ही चली आ रही थी जिनमे से एक नीति थी भारतीय पासपोर्ट नीति. आजादी के बाद, भारत की नई सरकार भी अपने ‘अवांछनीय नागरिकों’ के एक ‘निश्चित वर्ग’ के साथ ब्रिटिशों की तरह ही भेदभाव भरा व्यवहार करती रही.
डॉ. नटराजन के हिसाब से भेदभाव इस लिए किया जाता है कि विदेश यात्रा से भारत कि इज्ज़त और प्रतिष्ठा जुडी हुई है, इसलिए विदेश यात्रा बीएस उनके लिए है जिनमे भारत का प्रतिनिधितत्व करने का आत्मविश्वास है. इसी के चलते भारत सरकार ने अपने अधिकारियों को ऐसे नागरिकों की पहचान करने का आदेश दिया जो विदेश में भारत के प्रतिनिधि बन सके.
आजादी के बाद भी दलित मुख्यधारा में ना होने के कारण ?
- सामाजिक आधार पर देखें तो समानता और स्वतन्त्रता के लिए कानून बनाए जा सकते है, लेकिन भाईचारे के लिए नहीं.
- कानून बना कर उसे लागू करना बस एक प्रक्रिया है, इसकी जगह यह ‘आल राउंडर विकास’ होना चाहिए.
- सब बिरादरियों में ‘रोटी-बेटी का सम्बंध’ होना चाहिए, जिससे जातपात के कोई मायने ही नहीं रहेंगे.
दलितों को नहीं दिया जाता था ‘पासपोर्ट’
हम आपको बताना चाहते है कि कुछ शोधकर्ताओ के अनुसार भारत में सबसे वंचित तबका अनुसूचित जाति और दलित समाज को पासपोर्ट नहीं दिया जाता था. उस समय भारत में दलित छठें नंबर पर थे फिर भी राजीतिक अवांछितों जैसे कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया तक को पासपोर्ट नहीं दिया जाता था.
उस दौर में पासपोर्ट (Dalit Passport Struggle India) ना देने के ओर भी तरीके थे जैसे आवेदकों को लिटरेसी और अंग्रेजी भाषा का टेस्ट देना होता था, आवेदकों के पास पर्याप्त पैसे होना भी एक शर्त थी, इसके साथ ही सार्वजनिक स्वास्थ्य के नियम मानने होते थे. भारतीय लेखक दिलीप हीरो याद को 1957 में पासपोर्ट हासिल करने में 6 महीने लग गए थे, जबकि उनकी अकादमिक शिक्षा और आर्थिक हालात दोनों बहुत अच्छे थे, उस समय भारत में से हालात हो गए थे कि कुछ लोगों ने जाली पासपोर्ट भी बनवाये. करीब दो दशक तक पासपोर्ट प्रणाली भरता में समान रूप से कार्य नहीं कर रही थी.
2018 में भी इस नीति की झलक दिखी थी, जब मोदी ने इलान किया था कि अकुशल और सीमित शिक्षा वाले भारतीयों के ऑरेंज पासपोर्ट होगा, जिसका उदेश्य उनकी प्राथमिक सहायता करना था. भारतीय पासपोर्ट का रंग नीला होता है. इस योजना का विरोध किया गया, जिसके बाद सरकार ने यह प्रस्ताव वापिस ले लिया था.
इस तरह की नीति यह बताती है कि भारत एक लंबे समय से अंतरराष्ट्रीय दुनिया को एक ऐसी जगह के रूप में देखता है जो ऊंची जाति और वर्ग के लोगों के लिए उपयुक्त थी.
और पढ़ें : किसी को गाली देने पर कौन सी धारा लगती है? गाली देने पर क्या सजा मिलती है?