एक तरफ बाबा साहब दलितों और निम्न वर्गों के लोगों के लिए पूरी जिंदगी लड़ाई लड़ते रहे थे। वो दलितों को हिंदू समाज में एक इज्जत की पहचान दिलाना चाहते थे, और ये सपना पूरा भी हो जाता, लेकिन महात्मा गांधी की एक जिद के कारण दलितों का उत्थान नहीं हो पाया और दलित हमेशा से शोषित होते रहे। क्या थी गांधी की वो जिद, जिसके कारण अंबेडकर को न चाहते हुए एक ऐसे संधि पर हस्ताक्षर किया, जो उन्हें बिल्कुल मंजूर नहीं था। ये संधि कहलाई थी पूना पैक्ट… क्या था पूना पैक्ट, जिसके कारण दलित कभी छुआछूत की बेड़ियों से बाहर नहीं आ सकें?
तारीख थी 24 सितंबर 1932…. जगह थी पूना की यरवडा जेल। देश के दो बड़े और प्रतिष्ठित व्यक्ति आमने-सामने थे। एक की आंखों में आंसू थे और दूसरे की आंखों में जिद… और यहां साइन हुआ भारत में दलितों के उत्थान को हमेशा के लिए दबाने की संधि। वो संधि जो पूना पैक्ट कहलाई।
ये व्यक्ति जिसकी आंखो में आंसू थे वो थे भारत रत्न बाबा साहब भीमराव अंबेडकर और जिसकी आंखों में जिद थी वो थे भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी। पूना पैक्ट क्यों साइन किया गया, ये जानेंगे.. लेकिन उससे पहले इसकी नींव कहां से पड़ी इसका इतिहास जानना जरूरी है।
क्या से हुई थी इसकी शुरूआत?
दलितों के उत्थान के लिए ब्रिटिश हुकुमत ने 1908 में ही शुरुआत कर दी थी। लेकिन उससे पहले 1882 में हंटर आयोग की नियुक्ति की गई थी, जिसमें महात्मा ज्योतिबा फूले ने दलितों और निम्न जाति वालों के लिए निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा और दलितों के लिए सरकारी नौकरियों में पर्याप्त आरक्षण देने की मांग की थी, जिसका मांग 1891 में भी सामंती रियासत ने भी की थी। जिसके बाद अंग्रेजी हूकूमत ने दलितों के साथ हो रहे छुआछूत और भेदभाव को देखा और समझा। इसके तहत 1909 में भारत सरकार अधिनियम 1909 में आरक्षण का प्रावधान लाया गया। साथ ही अलग अलग जाति और धर्मों के आधार पर कम्यूनल अवॉर्ड की भी शुरुआत की।
1918 में मान्तेग्यु चैमस्फोर्ड रिपोर्ट के बाद 1924 में मद्दीमान कमेटी रिपोर्ट में बताया गया कि किस तरह से पिछड़े वर्ग में अल्प प्रतिनिधित्व और उसे बढ़ाने के उपाय बताए गए। 1928 में जब साइमन कमीशन लाया गया तब उसमें भी ये माना गया कि भारत में दलितों के साथ अन्नाय होता है, उन्हें समाज में बराबरी का हक नहीं है… और उन्हें पर्याप्त और मजबूत प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। इसका नतीजा ये हुआ कि 17 अगस्त 1932 में कम्युनल अवॉर्ड में दलितों को अलग से निर्वाचन का स्वतंत्र अधिकार दिया गया। उन्हें 2 वोट का अधिकार दिया गया, जिसके अनुसार वो एक वोट दलित समाज में अपना प्रतिनीधि चुनने के लिए इस्तेमाल कर सकते है और दूसरा हिंदू समाज में सवर्णों के बीच से प्रतिनिधि चुन सकते थे।
गांधी ने किया इसका विरोध और…
लेकिन सारी समस्या यहीं से शुरु हुई। गांधी जी उस वक्त पूना के यरवडा जेल में थे और उन्हें दलितों को दिए गए ये विशेष अधिकार मंजूर नहीं थे। उन्होंने करीब 4 चिट्ठी लिखी ताकि इस कानून को रोका जा सकें। उनका मानना था कि दलित हिंदू समाज का हिस्सा बना रहना चाहिए, अगर ये कानून बन जाएगा तो दलित हिंदुओं से अलग हो जाएगा। हिंदू बंट जाएंगें। जब चिट्ठियों से गांधी जी की बात नहीं सुनी गई तो वो जेल में ही आमरण अनशन पर बैठ गए। मगर अंबेडकर भी जिद्दी थे। वो किसी भी हाल में इस कानून को खत्म के विचार में नहीं थे। उनके लिए ये कानून दलितो को मजबूत करने वाला था।
गांधी जी के अनशन पर बैठने के बाद भी बाबा साहब ने साफ तौर पर कहा था कि गांधी जी को अगर आत्महत्या करनी है तो करें, लेकिन वो इस कानून को खत्म नहीं होने देंगे। मगर गांधी जी की तबियत बिगड़ने लगी और थक हार कर कस्तूरबा गांधी और उनके बेटे देवदास बाबा साहब के घर पहुंचे और उनके प्रार्थना की कि वो कुछ करें।
अंबेडकर को जबरदस्ती करना पड़ा साइन
24 सिंतबर 1932 को बाबा साहब यरवडा जेल पहुंचे, जहां पर गांधी जी की जिद के कारण दलितों को दिए गए दो वोट के हक को खत्म कर दिया गया, लेकिन बाबा साहब ने इसके बदले दलितों के लिए आरक्षित सीटों को प्रांतीय विधानमंडलों में 71 से बढ़ाकर 147 सीटें और केंद्रीय विधायिका में कुल सीटों की संख्या 18 फीसदी कर दी गई थी। इस संधि को नाम दिया गया पूना पैक्ट।
इस संधि को साइन करने के लिए बाबा साहब को हमेशा अफसोस रहा था। पूना पैक्ट के बारे में कहा जाता है कि ये गांधी जी द्वारा दलितों के हनन का एक कानून था, जिसे उन्होंने हिंदुओ के एक साथ रहने का हवाला देकर जबरन साइन करवाया था।