भारतीय राजनीति के इतिहास में आजादी के बाद विपक्ष की राजनीति को धारदार और असरदार बनाने में राम मनोहर लोहिया की भूमिका महत्वपूर्ण रही है. यही नहीं उनकी मौजूदगी के बिना नब्बे के दशक की कम से कम हिंदी पट्टी की राजनीति कमोबेश उस दिशा में ही आगे बढ़ी, जिसके बीज ‘गैर कांग्रेसवाद‘ की रणनीति के तहत लोहिया ने रोपा था. हांलाकि उनके आलोचक आज की भाजपा और उनके समय के जनसंघ को फलने-फूलने में इसे एक ‘रणनीतिक चूक ‘ के रूप में रेखांकित करते हैं हम उसी लोहिया की बात कर रहे हैं जिसके नाम से आप राह चलते जिधर नजर घुमाओ एक न एक बिल्डिंग मिल ही जाती कभी कॉलेज के रूप में कभी अस्पताल रूप में तो कभी किसी ट्रस्ट के नाम पर.ये वही नेता हैं जिनका नब्बे के दसक में अपना सिक्का चलता था.
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इनको लेकर भारत के जाने माने मार्क्सवादी आलोचक रामविलास वर्मा कहते हैं कि नब्बे के दशक की राजनीति पर जितना असर राम मनोहर लोहिया का पड़ा उतना गांधी और अम्बेडकर दोनों का नहीं. उनके मुताबिक लोहिया का ‘गैर-कांग्रेसवाद’ (तब) सोवियत संघ, कम्युनिस्ट पार्टी, जवाहरलाल नेहरू और कांग्रेस के विरोध के धरातल पर खड़ा था. आज लगभग वही स्थिति विपक्ष की भाजपा और मोदी सरकार के विरोध की है.
‘जिसको क्रान्ति चाहिए उसके अन्दर शक्ति नहीं’
एक फर्क और लक्षित किया जा सकता है कि आज का विपक्ष सत्ताधारी दल के विरुद्ध बिना किसी ठोस कार्यक्रम और बेहतर वैकल्पिक योजना के यह मानकर चल रहा है कि जैसा ये दल सोच रहे हैं और जो कुछ भी कर रहे हैं, वैसा ही मिजाज मौजूदा सरकार के बारे ही जनता का भी है. वक्त आने पर जनता विपक्षी दलों के साथ लामबंद होगी और मौजूदा सरकार को बेदखल कर देगी. पर इस खामख्याली के बावजूद जब चुनावी नतीजे कई बार उनके उम्मीदों के मुताबिक नहीं आते तो जाहिर है कि विपक्ष के लिए और कई सत्ता के करीब रहने वाले बौद्धिक अभिजनों के लिए भी ऐसे दौर घोर निराशा के ही होते हैं.
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ऐसी राजनीतिक स्थिति अपने देश में तीसरे लोकसभा के चुनावी नतीजे आने के बाद भी पैदा हुई थी. नेहरू की राजनीतिक आभा के आसपास विपक्षी राजनीति कहीं खड़ा नहीं हो पा रहा था. समाजवादी राजनीति ढलान पर थी और निराशा के दौर से गुजर रही थी. तमाम विपक्षी दलों की हैसियत हाशिए पर सिमट गयी थी. समाजवादी कार्यक्रमों के धुंआधार प्रचार के बावजूद लोकसभा चुनाव में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को-12, सोशलिस्ट पार्टी को-6, स्वतंत्र पार्टी -18 जनसंघ-14और कम्युनिस्ट-29 सीटें मिली. मतलब किसी भी दल को मान्यता प्राप्त विपक्षी दल होने का दर्जा भी हासिल नहीं हुआ.
निराशा के ऐसे ही दौर में 23 जून 1962 में नैनीताल में एक बैठक को सम्बोधित करते हुए राम मनोहर लोहिया ने कहा-
अजीब हालत है, जिसको क्रांति चाहिए उसके अन्दर शक्ति नहीं है, जिसे क्रांति कर लेने की शक्ति है, उसे क्रांति चाहिए नहीं या तबियत नहीं. वे आगे चेतावनी देते हुए आगाह करते है कि कोई भी राजनीतिक दल जब तक ‘आमजन के हकों के लिए लड़ता और कीमत नहीं चुकता है, निराशा उसका पीछा नहीं छोड़ती.
‘जब जब लोहिया बोलता है, दिल्ली का तख्ता डोलता है’
स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी राजनेता राम मनोहर लोहिया उन लीडर्स में शामिल रहे जिन्होंने खुलकर विचार रखे. समर्थकों के साथ विरोधियों से भी सम्मान पाया. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के 25 हजार रुपये प्रतिदिन खर्च करने की बात पर सवाल उठाए और इंदिरा गांधी को ‘गूंगी गुड़िया’ कहने से भी चूके नहीं.
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कांग्रेस की नीतियों से नाराज लोहिया ने पार्टी को सत्ता से उखाड़ फेंकने का ऐलान करते हुए कहा था, ‘जिंदा कौमें पांच तक तक इंतजार नहीं करतीं.’ उस दौर में भारतीय राजनीति में बदलाव लाने वाले लोहिया के लिए एक नारा दिया गया था. कहा जाता था, ‘जब जब लोहिया बोलता है, दिल्ली का तख्ता डोलता है’.
‘बीमार देश के बीमार प्रधानमंत्री को दे देना चाहिए इस्तीफा’
जवाहर लाल नेहरू से मतभेदों के कारण वो पहले ही कांग्रेस से अलग हो चुके थे. प्रधानमंत्री बनने के बाद लगातार नेहरू का कद बढ़ रहा था, लेकिन लोहिया को उनकी नीतियां पसंद नहीं आ रही थीं. इसलिए उन्होंने लगातार उन्हें घेरा और यहां तक कह डाला कि बीमार देश के बीमार प्रधानमंत्री को इस्तीफा दे चाहिए. बात 1962 की है, लोहिया ने नेहरू के खिलाफ फूलपुर में चुनाव लड़ने का फैसला लिया.
बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक, उन्होंने अपनी प्रचार टीम के सदस्य से कहा था कि मुझे मालूम है कि मैं पहाड़ से टकराने आया हूं, पहाड़ से पार पा पाना इतना भी आसान नहीं, लेकिन मैं उसने में एक दरार भी डाल पाया तो खुद को सफल मानूंगा.
अपने चुनाव प्रचार में उन्होंने देश के हालात बताएं न की इस बात का रोना रोया मेरे साथ क्या हुआ. आम जनमानस के मुद्दे उठाते हुए नेहरू की आलोचना की. कहा, आम इंसान को रोजाना दो आने नसीब नहीं हो पाते, लेकिन नेहरू रोजाना 25 हजार रुपय खर्च करते हैं. अगर नेहरू चाहते तो गोवा काफी पहले ही आजाद हो जाता. चुनाव में नेहरू को 1.18 लाख से अधिक वोट मिले वहीं लोहिया को 54 हजार. हालांकि 1963 में फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश) सीट पर हुए उपचुनाव में उनको जीत मिली और संसद पहुंचे. संसद पहुंचकर उन्होंने सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया.
राजनीति में नहीं सोचा नफा-नुकसान
कांग्रेस सरकार को सवालों के कटघरे में खड़ा करके उनकी नीतियों का मुखर होकर विरोध करने के कारण उन्हें लोगों का समर्थन मिल. जनता के बीच उनकी ऐसी छवि बनी जो हमेशा निडर होकर अपनी बात रखता है. बिना किसी झिझक के एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसके ऊपर भ्रष्टाचार जैसे शब्द भी शोभा नहीं देते.और राजनीति में नफा-नुकसान के बारे में नहीं सोचता. जनता से मिलने वाले समर्थन से केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार विचलित हो जाती थी.
लोहिया के जीवन का एक दिलचस्प पहलू यह भी था कि वो किसी का दखल बर्दाश्त नहीं करते थे. एक बार महात्मा गांधी ने उनसे सिगरेट छोड़ने की बात कही तो उन्होंने राष्ट्रपिता से कहा कि सोचकर बताता हूं, हालांकि उन्होंने फिर तीन माह के अंदर सिगरेट छोड़कर उन्हें चौंका दिया था.
जीत लाजिमी तौर पर सफलता नहीं है, और न हार असफलता
यह भी एक विचारणीय प्रश्न है कि आजादी के आंदोलन और उसके बाद के दौर में भी सबसे प्रतिभाशाली राजनीतिक फौज समाजवादियों की थी. पर जल्दबाजों की यह बेलगाम फौज किसी निर्णायक मुकाम पर पहुंचकर भी हमेशा छोटे स्वार्थों की वजह से टूटती-बिखरती रही.
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बावजूद इन विसंगतियों के आज के राजनीतिक दौर में लोहिया की यह राजनीतिक सीख कम महत्वपूर्ण नहीं कि हार के बाद हार केवल वही झेलते हैं जो तकदीर के फेर- पलट से डरते नहीं या निःसाहस नहीं होते हैं. जीत लाजिमी तौर पर सफलता नहीं है, और न हार असफलता. राजनीतिक दौड़ -धूप में सफलता का मतलब आदमी में उन महान गुणों का उभार होना चाहिए जो अन्याय और अत्याचार से लड़ाई की प्रेरणा दें और जिससे भलाई और शान्ति की स्थापना हो सके. इस लिए दुनिया को भी एक नहीं कई पराजयों से सीखने की जरूरत है.