अपना अस्तित्व बचाने और पढ़ाई के लिए डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर का संघर्ष, दलितों के उत्थान के लिए उनके प्रयास और आज़ाद भारत के संविधान के निर्माण में उनका योगदान बहुत से लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत रहा है.
लेकिन ये सफ़र आज के नज़रिए से देखने जितना आसान नहीं रहा था. पूरे सफ़र के दौरान, समानता की लड़ाई के साथ साथ बाबासाहेब कई बीमारियों से से भी जंग लड़ रहे थे. वो डायबिटीज़, ब्लडप्रेशर, न्यूराइटिस और आर्थराइटिस जैसी लाइलाज़ बीमारियों से पीड़ित थे.
और डाइबिटीज़ उनमे से एक थी जिसके चलते उनका शरीर बेहद कमज़ोर हो गया था. गठिया की बीमारी के चलते वो कई कई रातों तक बिस्तर पर दर्द से परेशान रहते थे. जब हम बाबासाहेब आंबेडकर की ज़िंदगी के आख़िरी कुछ घंटों के बारे में बात करते हैं तो पता चलता है कि उनकी सेहत किस क़दर बिगड़ी हुई थी.
बाबा साहब ने 6 दिसम्बर 1956 को सुबह के वक़्त सोते हुए अपनी जिन्दगी की आखिरी सांस ली थी. और आज के इस लेख में हम आपसे ये बात करेंगे की आखिर मौत से एक दिन पहले यानि 5 दिसम्बर को बाबा साहब ने क्या क्या किया? लेकिन उन सब से पहले हम उनके आखिरी कार्यक्रम के बारे में बात करेंगे जिसमे उन्होंने शिरकत की थी.
राज्यसभा का वो आखिरी दिन
एक आम नेता की ही तरह बाबा साहेब का भी आखिरी सार्वजानिक आयोजन राज्यसभा में कार्यवाही में शिरकत करने का था. जिसमे बाबा साहब नवम्बर के आखिरी तीन हफ्ते देश से बाहर ही थे. 12 नवम्बर को वो पटना होते हुए काठमांडू को रवाना हुए थे. जहाँ 14 नवंबर को काठमांडू में विश्व धर्म संसद का आयोजन हुआ था.
ALSO READ: अंबेडकर ने भारत की आजादी का श्रेय सिर्फ सुभाष चंद्र बोस और आजाद हिंद फौज को क्यों दिया?
इस सम्मेलन का उद्घाटन नेपाल के राजा महेंद्र ने किया था. दरअसल नेपाल के राजा ने आंबेडकर को अपने साथ मंच पर बैठने के लिए खा था जोकि इतिहास में इससे पहले कभी नहीं हुआ था. इस वाकये से ही आप बौद्ध धर्म में बाबा साहब के कद का अंदाज़ लगा सकते हैं.
भीमराव आंबेडकर की पत्नी सविता आंबेडकर जिन्हें माईसाहेब आंबेडकर के नाम से भी जाना जाता है, उन्होंने अपनी जीवनी ‘डॉ. आंबेडकरांच्या सहवासात’ में इस बारे में बहुत विस्तार से लिखा है. माईसाहेब के अनुसार, “भारत लौटते वक़्त बाबासाहेब ने बौद्ध धर्म के तीर्थस्थलों का दौरा किया. वो नेपाल में महात्मा बुद्ध के जन्मस्थल लुंबिनी गए. उन्होंने पटना में अशोक की मशहूर लाट भी देखी और बोध गया का दौरा भी किया.
दिल्ली में संसद का शीतकालीन सत्र शुरू हो चुका था. हालांकि, अपनी ख़राब सेहत के कारण बाबासाहेब इस सत्र में हिस्सा नहीं ले पा रहे थे. इसके बाद भी 4 दिसंबर को बाबासाहेब ने राज्यसभा की कार्यवाही में शामिल होने की ज़िद की. बाबासाहेब के साथ डॉक्टर मालवंकर भी थे. उन्होंने बाबासाहेब की सेहत जांची और कहा कि अगर बाबासाहेब, संसद की कार्यवाही में शामिल होने चाहते हैं, तो उन्हें कोई एतराज़ नहीं. 4 दिसंबर को बाबासाहेब संसद गए. राज्यसभा की कार्यवाही में हिस्सा लिया और दोपहर बाद लौट आए. लंच के बाद वो सो गए. ये बाबासाहेब का संसद का आख़िरी दौरा था.
धर्म परिवर्तन समारोह की योजना
माईसाहब ने अपनी किताब में लिखा हुआ है कि, ‘राज्यसभा से लौटने के बाद बाबा साहेब ने कुछ देर आराम किया. और दोपहर में उठकर सविता आंबेडकर ने उन्हें कॉफ़ी पिलाई. और वो दोनों अलीपुर रोड के अपने बंगले वाले लॉन में बैठकर एक दूसरे से बातें कर रहे थेतभी वहां नानकचंद रत्तू आ गए.
दरअसल 16 दिसंबर 1956 को मुंबई (उस वक़्त बंबई) में धर्म परिवर्तन के एक समारोह का आयोजन होना था. मुंबई के सारे नेता चाहते थे कि बाबासाहेब मुंबई में भी नागपुर जैसा ही धर्म परिवर्तन कार्यक्रम आयोजित करें. इस कार्यक्रम में बाबासाहेब और माईसाहेब, दोनों को शामिल होना था.
कौन थे नानक चंद रत्तू?
नानकचंद रत्तू, पंजाब के होशियारपुर ज़िले के रहने वाले थे. वो काम की तलाश में दिल्ली आए थे और यहां वो डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर से मिले. बाद में वो हमेशा बाबासाहेब के साये की तरह उनके साथ रहे. 1940 में नानकचंद ने बाबासाहेब के सचिव के तौर पर काम करना शुरू किया.
बाबासाहेब की ज़िंदगी के आख़िरी दिन यानी 6 दिसंबर 1956 तक नानकचंद उनके सचिव रहे थे. नानकचंद ने बाबासाहेब के लेखों को टाइप करने में भी मदद की थी. बाद में नानकचंद ने बाबासाहेब की याद में दो किताबें भी लिखी थीं.
वो आखिरी 24 घंटे
निधन से एक दिन पहले यानी 5 दिसंबर को बाबासाहेब सुबह करीब 8.30 बजे सोकर उठ गए थे. रोज की तरह ही माईसाहब चाय की ट्रे लेकर उनके कमरे में गईं और उन्हें जगाया. दोनों ने साथ ही चाय पी. इसी बीच नानकचंद रत्तू जो दफ़्तर जाने वाले थे, उनके पास आए. नानकचंद ने भी चाय पी और वो चले गए. माईसाहेब ने बाबासाहेब को सुबह के रोज़मर्रा के काम निपटाने में मदद की.
उसके बाद वो उन्हें नाश्ते की टेबल पर ले आईं. उसके बाद तीनों लोगों यानी, बाबासाहेब, माईसाहेब और डॉक्टर मालवनकर ने साथ में नाश्ता किया और बंगले के बरामदे में बैठकर कुछ बातें कीं. उसके बाद तीनों लोगों यानी, बाबासाहेब, माईसाहेब और बाबा साहेब के डॉक्टर मालवनकर ने साथ में नाश्ता किया और बंगले के बरामदे में बैठकर कुछ बातें कीं. माईसाहब ने उन्हें दवाएं और इंजेक्शन दिए और फिर काम निपटाने रसोई में चली गईं. बाबासाहेब और डॉक्टर मालवनकर बरामदे में बैठकर बातें करते रहे.
कौन थे डॉ मालवनकर?
डॉक्टर माधव मालवनकर, मुंबई के एक मशहूर डॉक्टर थे. उनका क्लीनिक गिरगांव में था. वो फ़िज़ियोथेरेपी के माहिर डॉक्टर थे. डॉक्टर मालवनकर पूरी मुंबई में एक प्रतिष्ठित और विशेषज्ञ फ़िज़ियोथेरेपिस्ट के तौर पर मशहूर थे. वो डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर के डॉक्टर और दोस्त थे.
अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के बाद माईसाहेब, डॉक्टर मालवनकर की सहायक और जूनियर डॉक्टर बन गई थीं. वहीं उनकी मुलाक़ात बाबासाहेब से हुई थी. पांच दिसंबर 1956 के दिन क़रीब साढ़े बारह बजे माईसाहेब ने बाबासाहेब को लंच करने के लिए बुलाया. उस वक़्त बाबासाहेब लाइब्रेरी में बैठकर पढ़-लिख रहे थे. वो उस वक़्त अपनी किताब ‘द बुद्धा ऐंड हिज़ धम्मा’ की प्रस्तावना लिख रहे थे.
पांच दिसंबर को भी जब बाबासाहेब लंच लेकर सोने चले गए, तो माईसाहेब ख़रीदारी के लिए बाज़ार चली गईं. डॉक्टर मालवनकर, पांच दिसंबर की रात को ही विमान से मुंबई जा रहे थे. वो भी मुंबई जाने से पहले अपने लिए कुछ सामान ख़रीदना चाह रहे थे. तो डॉक्टर मालवनकर भी माईसाहेब के साथ ख़रीदारी के लिए बाज़ार चले गए.
चूंकि बाबासाहेब सो रहे थे, तो वो बिना बताए ही बाज़ार चले गए, जिससे उनकी नींद में ख़लल न पड़े. माईसाहेब और डॉक्टर मालवनकर, दोपहर को क़रीब ढाई बजे बाज़ार गए थे और वो दोनों शाम लगभग साढ़े पांच बजे बाज़ार से घर लौटे. उस वक़्त बाबासाहेब बेहद ग़ुस्से में थे.
बाबा साहेब का गुस्सा
माईसाहेब ने इस बात का ज़िक्र अपनी किताब, ‘डॉ. आंबेडकरांच्या सहवासात’ में किया है. उन्होंने लिखा है, “बाबासाहेब का ग़ुस्सा होना कोई नई बात नहीं थी. अगर उनकी कोई किताब अपनी जगह पर नहीं मिलती थी, या क़लम कहीं और होता था, तो बाबासाहेब ग़ुस्से से भड़क उठते थे.
अगर उनकी इच्छा के बग़ैर कोई छोटा सा काम भी हुआ, या उम्मीद के मुताबिक़ न हआ, तो उनका पारा सातवें आसमान पर पहुंच जाता था.” इसमें आगे लिखा गया है, “बाबासाहेब का ग़ुस्सा तूफ़ान की तरह था. लेकिन, वो बस वक़्ती तौर पर नाराज़ होते थे. जो किताब, नोटबुक या काग़ज़ वो तलाश रहे होते थे, वो मिल जाता था, तो अगले ही पल उनकी नाराज़गी काफ़ूर हो जाती थी.”
‘बुद्धम शरणम् गच्छामि’ का पाठ
जब बाबासाहेब जैन धर्म के नुमाइंदों के साथ बातचीत में मशगूल थे, तो डॉक्टर मालवनकर मुंबई के लिए रवाना हो गए. जैसा कि माईसाहेब ने अपनी किताब में लिखा है कि डॉक्टर मालवनकर ने मुंबई जाने के लिए बाबासाहेब से इजाज़त ले ली थी और वो हवाई अड्डे रवाना हो गए. हालांकि चंगदेव खैरमोड़े ने बाबासाहेब की जीवनी में लिखा है, ‘जब डॉक्टर मालवनकर मुंबई के लिए रवाना हो रहे थे, तो उन्होंने बाबासाहेब से एक लफ़्ज़ भी नहीं कहा.’
उसके बाद बाबासाहेब ने मन में ही ‘बुद्धम शरणम् गच्छामि’ का पाठ करना शुरू कर दिया. माईसाहेब लिखती हैं कि जब भी बाबासाहेब बेहद अच्छे मूड में हुआ करते थे, तो वो बुद्ध वंदना और कबीर के दोहे पढ़ा करते थे. कुछ देर के बाद जब माईसाहेब ने ड्रॉ इंग रूम में झांका, तो देखा कि बाबासाहेब, नानकचंद रत्तू को रेडियोग्राम पर बुद्ध वंदना का रिकॉर्ड बजाने को कह रहे थे. उसके बाद रात के खाने के वक़्त, बाबासाहेब ने थोड़ा सा खाना खाया.
उनके खाने के बाद माईसाहेब ने खाना खाया. बाबासाहेब, माईसाहेब के खाना ख़त्म करने का इंतज़ार करते रहे. उसके बाद उन्होंनेन्हों कबीर का दोहा, ‘चलो कबीर तेरा भवसागर डेरा’ बड़े सुर में गाया. बाद में छड़ी का सहारा लेकर वो बेडरूम की तरफ़ चल पड़े. उनके हाथ में कुछ किताबें भी थीं.थीं बेडरूम की तरफ़ बढ़ते हुए ही, बाबासाहेब ने अपनी किताब ‘द बुद्धा ऐंडऐं हिज़ धम्मा’ की प्रस्तावना की एक कॉपी और एस. एम. जोशी और आचार्य अत्रे के नाम लिखी चिट्ठियां भी सौंपीं सौं पींऔर नानकचंद से कहा कि वो ये सब उनकी मेज़ पर रख दें.
और फिर बाबा साहेब का ….
माईसाहब ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि बाबासाहेब को देर रात तक लिखने-पढ़ने की आदत थी. अगर वो रम जाते, तो सारी-सारी रात पढ़ते-लिखते रहा करते थे. लेकिन माईसाहेब अपनी जीवनी में लिखती हैं कि पांच दिसंबर की रात, नानकचंद रत्तू के अपने घर रवाना होने के बाद, बाबासाहेब ने ‘द बुद्धा ऐंड हिज़ धम्मा’ की प्रस्तावना में फिर से बदलाव किया.
इसके बाद उन्होंने एस. एम. जोशी और आचार्य प्रहलाद केशव अत्रे के अलावा ब्राह्मी सरकार के नाम लिखी अपनी चिट्ठियों पर भी फिर एक नज़र डाली. उसके बाद वो रोज़मर्रा के उलट साढ़े ग्यारह बजे ही सोने चले गए.
उस रात के बारे में बहुत जज़्बाती होते हुए माईसाहेब ने लिखा है कि पांच दिसंबर की रात, बाबासाहेब की ज़िंदगी की आख़िरी रात साबित हुई. 6 दिसंबर की सुबह, जिसकी शुरुआत ‘सूर्यास्त’ से हुई थी.
छह दिसंबर 1956 को माईसाहेब रोज़ की तरह सुबह उठीं. चाय बनाने के बाद, वो ट्रे लेकर बाबासाहेब को जगाने उनके कमरे में गईं, उस वक़्त सुबह के साढ़े सात बज रहे थे. माईसाहेब लिखती हैं, ” मैं जैसे ही कमरे में दाख़िल हुई, मैंने देखा कि बाबासाहेब का एक पैर तकिए पर पड़ा था. मैंने बाबासाहेब को दो या तीन बार आवाज़ दी. लेकिन उनके बदन में कोई हरकत नहीं हुई. मैंने सोचा कि वो गहरी नींद में सो रहे हैं तो मैंने उन्हें हिलाया और उन्हें जगाने की कोशिश की और…’सोते हुए ही बाबासाहेब के प्राण पखेरू उड़ चुके थे.
इसके बाद माईसाहेब ने डॉक्टर मालवनकर को फोन किया तो डॉक्टर मालवनकर ने उन्हें बताया कि वो बाबासाहेब को ‘कोरामाइन’ का इंजेक्शन दें. लेकिन, तब तक बाबासाहब का देहांत हुए कई घंटे गुज़र चुके थे. इसलिए, वो इंजेक्शन भी नहीं दिया जा सकता था. माईसाहेब ने सुदामा से कहा कि वो जाकर नानकचंद रत्तू को बुला लाए.
सुदामा कार लेकर गए और नानकचंद रत्तू को उनके घर से बुला लाए. उसके बाद लोगों ने बाबासाहेब के बदन की मालिश करनी शुरू कर दी. किसी ने मुंह से सांस देने की कोशिश की. लेकिन, कोई तरकीब काम नहीं आई. बाबासाहेब ये दुनिया छोड़कर जा चुके थे.
नानकचंद रत्तू ने बाबासाहेब के क़रीबी अहम लोगों को फ़ोन करके बाबासाहेब के निधन की जानकारी दी. फिर नानकचंद रत्तू ने सरकार के विभागों, प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया, यूएनआई और आकाशवाणी के केंद्र को भी फोन करके बाबासाहेब के निधन की सूचना दी.