स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कई ऐसे आन्दोलन उठे जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बिगुल फूंका. उसमे से कुछ जातिवादी थे कुछ धार्मिक तो कुछ अलग उद्देश्यों से जुड़े हुए थे लेकिन ये सामुदायिक आन्दोलन कब आजादी के आन्दोलन में हिस्सेदार बन गए इस बात को जानना और समझना बेहद ही जरूरी है. आखिर ऐसे सामुदायिक आन्दोलनों का ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आवाज़ उठाने का क्या उद्देश्य था?
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ऐसे आंदोलन भी जंग-ए-आज़ादी के दौरान अंग्रेजों को नाको चने चबवाए. उन्हीं में से एक नाम ‘कूका आंदोलन’ का आता है. जो सिख समुदाय का अंग्रेजों के खिलाफ सबसे बड़ा आंदोलन माना जाता है. जिसके लिए न जाने कितने सिखों ने पाने जान की बाजी लगा दी. एतिहासिक शहर मालेरकोटला की धरती पर देश की स्वतंत्रता के लिए नामधारी सिखों द्वारा चलाए गए कूका आंदोलन के तहत 66 नामधारी सिख शहीद हो गए थे. नामधारी सिखों की कुर्बानियों को जंग-ए-आजादी के एतिहासिक पन्नों में कूका लहर के नाम से अंकित किया गया है.
‘सामाजिक सुधार से जुड़ा था ‘कूका आंदोलन’
कूका आंदोलन की शुरूआत पंजाब से हुई. जिसकी नींव भगत जवारमल ने रखी थी. जिस समय महात्अमा गांधी के नेतृत्सव में असहयोग आंदोलन हो रहा था उसी दौरान संत गुरु राम सिंह ने 12 अप्रैल 1857 को श्री भैणी साहिब जिला लुधियाना से अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध आवाज उठाई थी, तब भारतवासी गुलामी के साथ-साथ अधर्मी, कुकर्मी व सामाजिक कुरीतियों के शिकार थे. इन हालातों में भी गुरु जी ने लोगों में स्वाभिमानता जागृत की. और साथ ही साथ ही भक्ति, देशप्रेम, आपसी भाईचारा, सहनशीलता व मिल बांट कर खाने के लिए प्रेरित किया.
सतगुरु राम सिंह एक महान सुधारक थे, जिनके बारे में भले ही चंद लोग ये जानते हैं. ये वही राम सिंह है जिन्होंने समाज में पुरुषों व स्त्रियों की एकता का सम्पूर्ण रूप से प्रचार किया, जिसमें वे सफल भी रहे. आपको याद होगा अगर आप ने महिलाओं के इतिहास के पन्नों को उकेरा होगा तो, कि 19वीं सदी में लड़कियों के जन्म लेते ही उन्हें मार देना, बेच देना या शिक्षा से वंचित रखने जैसी सामाजिक कुरीतियां प्रचलित थीं. सतगुरु राम सिंह ने ही इन कुरीतियों को दूर करने के लिए लड़के-लड़कियों दोनों को समान रूप से पढ़ाने के निर्देश जारी किए.
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सिख पुरुषों की तरह स्त्रियों को भी अमृत छका कर सिखी प्रदान की गई. बिना ठाका शगुन, बरात, डोली, मिलनी व दहेज के सवा रुपए में विवाह करने की नई रीत का आरंभ हुआ, जिसे आनंद कारज कहा जाने लगा. पहली बार 3 जून 1863 को गांव खोटे जिला फिरोजपुर में 6 अंतर्जातीय विवाह करवा कर समाज में नई क्रांति लाई गई. सतगुरु नाम सिंह की प्रचार प्रणाली से थोड़े समय में ही लाखों लोग नामधारी सिख बन गए, जो निर्भय, निशंक होकर अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध कूके (हुंकार) मारने लगे, जो इतिहास में कूका आन्दोलन के नाम से प्रसिद्ध हुआ.
इतिहासकारों की मानें तो 1857 में बाबा राम सिंह ने अपने गांव भैणी में नामधारी संप्रदाय को गठित किया. उन्होंने देश- विदेश के विभिन्न क्षेत्रों में 22 उपदेश केन्द्रों की स्थापना की. जिनमें ग्वालियर, लखनऊ, आदि नाम शामिल हैं. इन केन्द्रों के माध्यम से बाबा राम सिंह सामाजिक व धार्मिक शिक्षाओं का प्रचार प्रसार जोर शोर से करने लगे थे.
स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बना ‘कूका आन्दोलन’
नामधारी संप्रदाय से आने वाले सिखों को कूका के नाम से भी जाना जाता है. इनको केवल सफ़ेद कपड़े के अलावा किसी अन्य रंगों के वस्त्र धारण करने की अनुमति नहीं थी. इसके अलावा इनको नल के पानी पीने की भी इज़ाज़त नहीं थी, बल्कि झील या कुएं से पानी निकालकर पीने का आदेश था. बहरहाल, देखते ही देखते 1860 के आसपास यह आंदोलन राजनीतिक रूप लेना शुरू हो गया था. लोगों पर इसका इतना गहरा असर हुआ कि यह आंदोलन सिख समुदाय के अलावा अन्य धर्मों के लोगों को भी अपनी ओर आकर्षित करने लगा. लाखों की तादाद में अनुयायियों की संख्या बढ़ी. बाबा राम सिंह राजनीतिक स्वतंत्रता को धर्म का एक हिस्सा मानते थे.
नामधारियों के संगठन ने बहिष्कार व असहयोग के सिद्धांत को अपनाया. जैसे कि ब्रिटिशों की शिक्षा संस्थाओं का बहिष्कार, उनके द्वारा बनाए गए कानूनों का बहिष्कार, कपड़ों के मामले में सख्त रुख उन्होंने स्वदेशी हाथ से बना सूती सफ़ेद रंग के वस्त्रों को धारण किया. अब यह आंदोलन अंग्रेजों के विरुद्ध हो गया था. जिसका उद्देश्य समाज में फैली कुरीतियों के साथ- साथ ब्रिटिश नीतियों के खिलाफ हो गया. यह संगठन अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए बहुत ही सक्रिय रूप ले लिया था.
….. और फिर गायों के लिए हंसते-हंसते हुए कुर्बान
अंग्रेजों के पास जब कोई विकल्प नहीं बचा तो हिन्अंदुओं और सिखों की धार्मिक आस्था को चोट पहुँचाने की कोशिश की. जिसके तहत अंग्रेजों ने पंजाब में जगह-जगह बूचड़खाने खुलवाए, जिससे तिलमिलाए सिख संगठनों के करीब 100 सदस्यों ने 15 जून 1871 ई० को अमृतसर व 15 जुलाई 1871 ई० को रायकोट के बूचड़खाने पर एक साथ हमला बोल दिया. उन्होंने वहां से गायों को छुड़वाया. इसके लिए ब्रिटिश हुकूमत ने रायकोट में तीन, अमृतसर में चार, व लुधियाना में दो नामधारी सिखों को सरेआम फांसी के फंदे पर लटका दिया था.
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1872 में नामधारियों ने मलेरकोटला पर धावा बोला. इस हमले के दौरान 10 लोग शहीद हो गए थे. कूकसों की हुंकार से ब्रिटिश हुकूमत दहल चुकी थी वे उनके नज़रों में चुभने लगे थे. इस हमले के बाद उन्होंने मलेरकोटला के परेड ग्राउंड में लगभग 60 से 65 सिखों को तोप से उड़ाकर शहीद कर दिया. इनमें एक 12 साल का बच्चा बिशन सिंह का भी नाम शामिल है. इसके अलावा चार नामधारी सिखों को काले पानी की सजा दे दी गई.
बाबा राम सिंह को भेज दिया रंगून
कूका आंदोलन ने जब राजनीतिक रूप धारण किया तो अंग्रेजों के पैरों के नीचे जमीन खिसक गयी थी उन्हें इस बात का डर हो गया था कि जब ये गैर-राजनीतिक तरीके से इतने मजबूत हो सकते हैं तो राजनीति में आने के बाद कहीं उनसे उनकी सत्ता न छीन लें. जिसके चलते अंग्इरेजों ने इनके आंदोलन को कुचलने के लिए साल 1872 में आंदोलन के मुखिया बाबा राम सिंह को कैद कर लिया. इसके बाद उन्हें देश की सबसे भयंकर जेल रंगून भेज दिया गया. जहाँ 1885 में उनकी मौत हो गई. राम सिंह के गुजरने के बाद बाबा हरि सिंह ने इस संगठन की कमान सभांली.
अंग्रेज इन सिखों से इतने तंग हो गए थे कि हरी सिंह को गिरफ्तार करने के बाद करीब 21 साल तक गांव वालों से नजरबंद रखा. 1906 में इनकी मृत्यु के बाद प्रताप सिंह को उत्तराधिकारी बना दिया गया. अब आते हैं साल 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जब खुद ब्रिटिश सरकार ने भूमि अनुदान के जरिए कूकों को खुश करने का एक विसफल कोशिश की.1920 में संगठन ने अपना अख़बार ‘सतयुग’ के नाम से निकाला. 1922 में दैनिक समाचार पत्र ‘कूका’ शुरू किया गया.