वैसे कहते हैं कि आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता. लेकिन जब किसी आतंकी हमले की तह तक जांच पड़ताल की जाती है तो वो किसी एक खास मजहब की साजिश लगती है. लेकिन ये मजहबी आतंकवाद से किसी मजहब का खत्म या किसी समुदाय का खत्म नहीं होता बल्कि इसका शिकार होते है वो छोटे बच्चे, माँ-बाप, भाई- बहन जिनका इन सब से दूर दूर तक कोई संबंध तक नहीं होता.
और ये सब ये अपने अल्लाह और ईष्ट के नाम पर करते हैं. ठीक ऐसे ही भारत पर तीखी नज़र रखने वाले केवल वेस्टर्न लोग ही नहीं है जो भारत को बर्बाद करने की साजिश रचते हैं देश के भीतर भी कई सारे संगठन छुपकर बैठे रहते हैं जिनका मकसद ही होता है क्राइम मर्डर और अपने रसूल के नाम पर जिहाद फिर चाहे वो किसी की जान लेकर हो या किसी महिला का बलात्कार करके. लेकिन किसी की जनता को मरना ये कौन से अल्लाह और ईष्ट का सुविचार है ये थोड़ा समझ से परे हो जाता है. आज हम आपको 20वीं सदी में हुए ऐसी ही आतंकी घटना का विश्लेषण देंगे जिसने पूरे विश्व को मानवीय स्तर पर झकझोर कर रख दिया. जिनकी लाशों तक का पता नहीं चला.
जब हिन्द महासागर बन गया ‘कब्रगाह’
दरअसल साल 1985 में कनाडा स्थित मॉनट्रियल एयरपोर्ट से एक फ्लाइट टेक ऑफ करती है. जिका लास्ट डेस्टिनेशन था मुम्बई. लेकिन बीच में फ्लाइट को लन्दन में हॉल्ट लेना था. इसलिए फ्लाइट आयरलैंड के एयर स्पेस में एंटर होती है. आइरिश कोस्ट के करीब 200 मील दूरी, जब प्लेन अटलांटिक महासागर के ऊपर था, अचानक रडार से गायब हो जाता है.
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और हुआ वही जिसका सबको डर था. प्लेन 31 हजार फ़ीट की ऊंचाई से सीधा समुन्द्र में गिरा. ये वही दिन था जब अटलांटिक महासागर 86 बच्चे, समेत 329 लोगों के लिए अटलांटिक उस दिन कब्रगाह बन गया. वहां से करीब 1 हजार मील दूर टोक्यो के एयरपोर्ट पर उसी दिन एक और घटना हुई. इस प्लेन हादसे से करीब एक घंटा पहले ही टोक्यो में बैगेज एरिया में एक बम फटा और दो लोगों की जान चली गई.
इन मामलों की जब तहकीकात शुरू हुई तब ये बात किसी के जहाँ में नहीं आई थी कि इन दोनों हादसों के बीच बहुत गहरा कनेक्शन था. बाद में पता चला, इस साजिश का निशाना था भारत, और साजिश को अंजाम देने वाला संगठन था बब्बर खालसा. शुरुआत घटना के एक दिन पहले से करते हैं. 22 जून से. क्या हुआ था उस दिन?
कैसे पहुंचा फ्लाइट 182 में बम?
उस दिन सुबह सुबह करीब 9 बजे मंजीत सिंह नाम का एक शख्स वैंकूवर एयरपोर्ट पर पहुंचा. और इस सुविधा की मांग करने लगा कि उसका बैगेज चेक इन करवा दिया जाए. टिकेट में मंजीत का नाम म सिंह लिखा था. मंजीत को वैंकूवर से टोरंटो तक फ्लाइट पकड़नी थी. जहां एयर इंडिया फ्लाइट 182, सम्राट कनिष्क में उसका टिकट बुक था. कनिष्क का आख़िरी डेस्टिनेशन इंडिया था और उसे बीच में लन्दन में हॉल्ट करना था.
मंजीत के हिसाब से वो चाहता था कि उसका जो बैगेज है वो सीधे एयर इंडिया की फ्लाइट में चेक इन कर दिया जाए ताकि टोरंटों में उसे दोबारा परेशानी न उठानी पड़े. लेकिन दिक्कत ये थी कि मंजीत का टिकट वेटिंग पर था. एयरपोर्ट एजेंट जेनी एडम्स ने मंजीत को बताया कि वेटिंग टिकट पर वो डायरेक्ट बैगेज चेक इन नहीं कर सकती. चूंकि उसका टिकट बिजनेस क्लास था इसलिए काफी आनाकानी के बाद जेनी चेक इन कराने को तैयार हो गई. और मंजीत का लाल रंग का सूटकेस चेक इन करा दिया गया.
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इसके बाद शाम 4 बजे प्लेन में बैठकर 30 लोग वैंकूवर से टोरंटो पहुंचते हैं. मंजीत का बैग भी पहुंच जाता है, लेकिन वहां मंजीत नहीं था . वो फ्लाइट में बैठा ही नहीं था. टोरंटो में एयर इंडिया का स्टाफ सामान की चेकिंग कर रहा था, जब इत्तेफाक से एक्स रे मशीन ख़राब हो गई. एक हैण्ड हेल्ड स्कैनर से सामान को चेक किया गया. इस दौरान मंजीत के बैग के पास हल्की सी बीप की आवाज भी आती है लेकिन कर्मचारी उसे इग्नोर कर देते हैं. मंजीत का बैग एयर इंडिया फ्लाइट 182 में चढ़ा दिया जाता है.
इसके बाद टोरंटो से फ्लाइट 182 मॉन्ट्रियल पहुंचती है. जहां कुछ और लोग उसमें सवार होते हैं. अब तक यात्रियों की संख्या 307 हो चुकी थी, जिनमें से 268 कनाडा के नागरिक थे और उनमें से लगभग 84 बच्चे थे. साफ़ तौर आप इस बात का अंदाज़ा लगा सकते हैं कि अगर फ्लाइट का लास्ट डेस्टिनेशन मुंबई तो उसमे ज्यादातर लोग कहाँ के होंगे.
डे लाइट सेविंग ने बचायी जान
उधर वैंकूवर में 22 जून की दोपहर ठीक यही स्क्रिप्ट दूसरी बार दोहराई गयी. बस इस बार एम. सिंह नहीं एल. सिंह नाम का एक आदमी आता है और केनेडियन पैसिफिक एयरलाइन्स में एक दूसरा सूट केस चेक इन कराता है. ये फ्लाइट टोक्यो जा रही थी, जहां से एल. सिंह ने एयर इंडिया की फ्लाइट 301 में एक कनेक्टिंग टिकट बुक करवाया था. इस बार भी वही हुआ कि वहां उसका सूटकेस तो बड़े आराम से पहुंच गया लेकिन एल सिंह वहां नहीं था.
और पहले की 182 की तरह ही ये सूटकेस भी एयर इंडिया की फ्लाइट में चढ़ जाता लेकिन यहां एल सिंह से एक गलती हो गई. दरअसल कनाडा और अमेरिका में डे लाइट सेविंग चलती है. यानी गर्मियों में घड़ियों को एक घंटा आगे कर दिया जाता है. और जाड़ों में एक घंटा पीछे.
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लेकिन टोक्यो में डे लाइट सेविंग का नियम नहीं है. इसलिए जब सूटकेस टोक्यो में बैगेज एरिया में था तभी उसमें विस्फोट हो गया. चूंकि टाइमर लगाते वक्त डे लाइट सेविंग का ध्यान नहीं रखा, इसलिए वक्त से पहले ही सूटकेस में विस्फोट हो गया. इस घटना में दो लोगों की जान गई लेकिन गनीमत यही थी कि इस बार एयर इंडिया फ्लाइट 301 के सभी यात्रियों की जान बच गई.
जिस समय टोक्यो में विस्फोट की खबर आई, एयर इंडिया फ्लाइट 182 यानी सम्राट कनिष्क, आयरलैंड के आसमान में थी और लन्दन की ओर जा रही थी. आयरिश समय के अनुसार 23 जून, 1985 को सुबह के 9 बजे थे जब एयर ट्रैफिक कंट्रोल को इस बात के इख्तला हुई कि विमान रडार से गायब हो गया है.
तब तक किसी को नहीं पता था कि विमान में विस्फोट हुआ है. विमान का मलबा बीच समंदर में फैला हुआ था. जब तक बचाव दल पहुंचा, उन्हें सिर्फ 141 लोगों की लाशें मिल पाई, इनमें नवजात बच्चे भी थे. बाकी बचे लोगों को समंदर की लहरें दूर ले गई और उन्हें कभी खोजा न जा सका. पोस्टमार्टम में पता चला कि कुछ लोगों की जान ऑक्सीजन की कमी से हुई तो कुछ लोग पानी में डूबकर मरे थे.
लिख दी कहानी ?
ऑपरेशन ब्लू स्टार और दिल्ली में सिख नरसंहार के चलते कनाडा के खालिस्तानी सिख समुदाय में बहुत ज्यादा गुस्सा था. उनके हिसाब से, पगड़ी वाले भूरे बिना पगड़ी वाले भूरे लोगों के खिलाफ बोल रहे थे. मामला 15 हजार मील दूर एक थर्ड वर्ल्ड देश का था, और सबसे बड़ी बात थी कि गोरे कैनैडियन्स का इसमें कोई नुकसान नहीं हो रहा था. ये वो दौर था,जब खालिस्तान, हिंदू, सिख- ये शब्द कैनेडियन लोगों के लिए काला अक्षर भैंस बराबर थे. यहां तक कि घटना से 2 हफ्ते पहले रॉ ने कनेडियन सुरक्षा एजेंसियों को इस मामले में आगाह भी किया था. ये भी बताया था कि प्लेन पर हमला हो सकता है. लेकिन फिर भी उन्होंने इस मामले में चूक की.
प्लेन अटैक के दिन यानी 23 जून तक पुलिस ने तलविंदर सिंह परमार का फोन टैप किया हुआ था. हमले के चार दिन पहले उन्होंने फोन पर परमिंदर को किसी को कहते सुना, “कहानी लिख दी है?” दूसरी तरफ से जवाब आया, नहीं. इस पर परमिंदर ने जवाब दिया, “लिख दो”.
हमले के एक दिन पहले परमिंदर के पास एक और कॉल आया. जिसमें दूसरी तरफ से कहा गया, “कहानी लिख दी है, देखना है तो आ जाओ”
दूसरी तरफ से बोलने वाले शख्स का नाम था, हरदीप सिंह जोहल. और कहानी लिख देने से यहां मतलब फ्लाइट में टिकट बुक कराने से था. बम तैयार करने की जिम्मेदारी थी, इंदरजीत सिंह रेयात की. ब्रिटिश कोलंबिया में रहने वाला इंदरजीत ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद सबसे कहते हए घूम रहा था कि भारत से बदला लेना है.
उसने बाकायदा बम बनाने का सामान भी लोकल स्टोर से ही ख़रीदा. लेकिन इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. कारण वही जो पहले बताया था, भूरे लड़ मर रहे थे, और गोरों को इससे कोई दिक्कत नहीं थी.
6 साल तक कोई पकड़ा नहीं गया
हमला इतना बड़ा था कि इस्मने कुल 331 लोगों की जाने गयी लेकिन अगले 6 साल था पुलिस इस आतंकी हमले में 331 लोगों की जान गयी थी लेकिन अगले 6 साल तक पुलिस किसी के खिलाफ एक्शन नहीं ले पाई. जबकि कॉल रिकॉर्ड समेत पूरी रिपोर्ट उनके पास थी. इसकी वजह थी लापरवाही, पुलिस ने कॉल रिकार्ड्स को ट्रांसलेट करवा के ओरिजिनल फिल्म को मिटा दिया था. जिसके कारण अदालत में उनके पास पेश करने के लिए ये महत्वपूर्ण सुराग नहीं था.
मामले में नाम आने वाले सभी आरोपियों के खिलाफ पुलिस ने केस दर्ज किया हुआ था, लेकिन एक को भी जेल न हुई. 29 अप्रैल 1986 को इंदरजीत सिंह रेयात ने इस बात को कबूला कि उसके पास विष्फोटक सामग्री थी. लेकिन उसे भी 2000 डॉलर का जुर्माना लगाकर छोड़ दिया गया. इसके बाद रेयात अपने परिवार समेत ब्रिटेन जा बसा.
दूसरी तरफ जापान में हुए बम धामके के सबूत जापान की पुलिस के पास थे. आखिर में जापान में दो लोगों की हत्या के जुर्म में रेयात को गिरफ्तार कर कनाडा लाया गया. जहां उसे 10 साल जेल की सजा सुनाई गई.
हादसे के 15 साल बाद साल 2000 में पुलिस ने बागरी और मलिक पर केस दर्ज़ किया. लेकिन कनाडा में ये मामला इतना हाई प्रोफ़ाइल था कि इसका नाम ही एयर इंडिया ट्रायल रख दिया गया. केस के दौरान एक गवाह की हत्या कर दी गई जबकि एक को विटनेस प्रोटेक्शन में भेजना पड़ा. मामले की नाजुकता को देखते हुए 7.2 मिलियन डॉलर का एक अलग कोर्ट रूम बनाया गया.
लेकिन सबूतों के अभाव में बागरी और मालिक को रिहा कर दिया गया. रेयात को इस मामले में 5 साल की और सजा हुई. और 2011 को उसे अदालत में झूठ बोलने के मामले में 9 साल की सजा और सुनाई गई. एम सिंह और एल सिंह जिन्होंने एयरपोर्ट तक सूटकेस पहुंचाए थे, उनकी पहचान कभी न हो सकी.
भारत का एजेंट था परमार?
इस खालिस्तानी आतंकी हमले में तलविंदर सिंह परमार का रोल प्रमुख था. पुलिस ने उस पर भी केस दर्ज़ किया लेकिन वही सबूतों के अभाव में वो भी रिहा हो गया. इसके बाद परमार पाकिस्तान गया और वहां से साल 1992 में भारत पहुंचा. यहां एक पुलिस एनकाउंटर में उसकी मौत हो गई. इस घटना ने खालिस्तान चरमपंथियों के बीच एक नई थियोरी को जन्म दिया. इस थियोरी के अनुसार परमार भारत का एजेंट था और उसने प्लेन गिराने की साजिश इसलिए रची थी कि खालिस्तान आंदोलन को डिस्क्रेडिट किया जा सके. जबकि भारत में जैन कमीशन ने अपने रिपोर्ट में पाया था कि परमार कई बार राजीव गांधी की हत्या का प्लान बना चुका था.
कनाडा सरकार ने 25 साल तक इस इन्वेस्टिगेशन को खींचा. खर्चा हुआ मात्र 46 हजार आठ सौ करोड़ रुपया. इस मामले में सिर्फ एक शख्स को जेल हुई और और उसे भी साल 2017 में उसे भी रिहा कर दिया गया.
प्लेन हादसे की ये घटना घर से थोड़ा और नजदीक लगती है, जब पता चलता है की इस प्लेन हादसे में एक्टर इन्दर ठाकुर भी अपने परिवार सहित चल बसे थे. ये वही इन्दर ठाकुर हैं जो फिल्म ‘नदिया के पार’ में सचिन पिलगांवकर के बड़े भाई बने थे.