भारत में जाति विरोधी आंदोलनों का इतिहास बहुत ही जटिल और विविधवर्णी रहा है. इसके विभिन्न व्याख्याताओं के बीच बौद्धिक समानताएं और विभिन्नताएं दोनों रही हैं. इस संदर्भ में बाबासाहेब अंबेडकर और ईव्ही रामासामी पेरियार की बौद्धिक मैत्री, न केवल तर्कसंगत थी वल्कि वह काफी लंबे समय तक चली.
सन् 1920 के दशक के उत्तरार्ध से, पेरियार के आत्माभिमान आंदोलन ने अंबेडकर के कार्यों के प्रति अपने प्रशंसा भाव को अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया था. महाड़ में दिसंबर 1927 में मनुस्मृति दहन के पूर्व, उसी वर्ष, मद्रास में आदि द्रविड़ नेता एमसी राजा और आत्माभिमान आंदोलन के एक प्रमुख व्यक्तित्व जेएस कन्नपार ने इस ग्रंथ को अग्नि के हवाले किया था.
सन् 1929 में पेरियार ने जलगांव डिप्रेस्ड क्लासिस कांफ्रेस के लिए अपनी शुभकामनाएं प्रेषित कीं और उनके साप्ताहिक ‘कुदीअरासू‘ ने बांबे प्रेसिडेंसी में आत्माभिमान आंदोलन के उदय का स्वागत किया. लेकिन दलितों के लिए आवाज़ उठाने वाले ये दोनों तथाकथित महानायकों के बीच कुछ खास बौद्धिक राजनीतिक सामाजिक समानताएं नहीं थी.
आर्यन द्रविड़ विभाजन में शामिल नहीं हुए अंबेडकर
ईवी रामासामी को उनके अनुयायी प्यार से उन्हें ‘पेरियार’ कहकर बुलाते थे, वो एक नस्लवादी नेता थे जोकि नस्लीय सिद्धांतों पर भरोसा रखते थे. खासकर आर्य समाज के सिद्धांतों में. उन्होंने नस्लीय रूढ़ियों को बढ़ावा दिया.
तो वहीं दूसरी तरफ डॉ अंबेडकर सर्वोत्कृष्ट मानवतावादी विचारधारा में विश्वास रखते थे. उन्होंने तथाकथित आर्य जाति सिद्धांत और भारतीय समाज की नस्लीय व्याख्या का अध्ययन किया और इन्हें सिरे से खारिज कर दिया.
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आप अगर उदाहरन के लिए देखें तो, अपने ‘शूद्र कौन थे’ में, डॉ. अंबेडकर ने आर्य आक्रमण के सिद्धांत के साथ-साथ आर्य जाति के विचार को ‘एक आविष्कार’ कहा. ‘अछूतों’ पर अपने काम में उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि नस्ल का भारत में सामाजिक गतिशीलता से कोई लेना-देना नहीं है:
” यदि एंथ्रोपोमेट्री एक ऐसा विज्ञान है जिस पर लोगों की नस्ल का निर्धारण करने के लिए निर्भर किया जा सकता है … (तो) इसके माप यह स्थापित करते हैं कि ब्राह्मण और अछूत एक ही जाति के हैं. इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि ब्राह्मण आर्य हैं तो अछूत भी आर्य हैं. यदि ब्राह्मण द्रविड़ हैं, तो अछूत भी द्रविड़ हैं…. ”
इस विषय पर ई.वी.रामासामी का कहना था कि, “हम तमिल लोग इस भूमि के शासक थे और हमने खानाबदोशों के एक समूह के लिए अपनी प्रतिष्ठा, शासन शक्ति और वीरता खो दी, जो अपने मवेशियों के साथ यहां आए थे…हम इस गुलामी से तभी बाहर आ पाएंगे जब हम इस भावना को दूर कर देते हैं कि हम हिंदू हैं और हम भारतीय हैं. ”
अंबेडकर को नहीं पसंद था एकेश्वरवाद
रामासामी एक नास्तिक के रूप में स्केश्वर्वादी समर्थक थे. उस सन्दर्भ में उन्होंने कहा था कि, ” मैं आपको भगवान की पूजा करने के लिए नहीं कह रहा हूं, लेकिन ईसाई और मुसलमानों की तरह एक भगवान की पूजा करने के लिए. ” ईवीआर के लिए औपनिवेशिक साम्राज्यवाद एक धर्म की श्रेष्ठता का अंतिम संकेत था.
दूसरी ओर डॉ. अंबेडकर ने ईश्वर के सार्वभौमिक पितृत्व के विचार को लोकतंत्र की कमजोर नींव के रूप में खारिज कर दिया और इसके बजाय ब्राह्मण की हिंदू अवधारणा को लोकतंत्र के लिए निश्चित और सबसे उपयुक्त आधार माना:
” लोकतंत्र का समर्थन करना क्योंकि हम सभी भगवान के बच्चे हैं, लोकतंत्र के आराम करने के लिए एक बहुत ही कमजोर नींव है. यही कारण है कि लोकतंत्र जहां भी इस तरह की नींव पर टिका है, वह इतना अस्थिर है. लेकिन यह पहचानने और महसूस करने के लिए कि आप और मैं एक ही ब्रह्मांडीय सिद्धांत के हिस्से हैं, लोकतंत्र को छोड़कर संबंधित जीवन के किसी अन्य सिद्धांत के लिए कोई जगह नहीं है. यह केवल लोकतंत्र का प्रचार नहीं करता है. यह लोकतंत्र को एक और सभी का दायित्व बनाता है.
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लोकतंत्र के पश्चिमी छात्रों ने यह विश्वास फैलाया है कि लोकतंत्र ईसाई धर्म या प्लेटो से उपजा है और लोकतंत्र के लिए प्रेरणा का कोई अन्य स्रोत नहीं है. अगर उन्हें पता होता कि भारत ने भी ब्रह्मवाद के सिद्धांत को विकसित किया है जो लोकतंत्र के लिए एक बेहतर आधार प्रदान करता है तो वे इतने हठधर्मी नहीं होते. भारत को भी लोकतंत्र के सैद्धांतिक आधार के लिए योगदान देने के लिए स्वीकार किया जाना चाहिए. ”
लोकतान्त्रिक नहीं थे रामासामी! पर अंबेडकर थे
ईवी रामासामी पूरी तरह से लोकतंत्र के खिलाफ थे. वे लोकतंत्र को समाज की सभी समस्याओं का मूल कारण मानते थे और इसे ब्राह्मणों की दुष्ट चालबाजी मानते थे. एक संपादकीय में ईवीआर ने कहा कि, ” विभिन्न भाषाओं, धर्मों और कम साक्षरता वाली जातियों वाले राष्ट्र में लोकतंत्र किसी भी तरह से कोई प्रगति नहीं ला सकता है.”
दूसरी ओर डॉ. अंबेडकर ने सार्वभौमिक मताधिकार का पुरजोर समर्थन किया और सोचा कि ‘वोट का प्रयोग अपने आप में एक शिक्षा है’. डॉ. अंबेडकर ने प्रसिद्ध रूप से कहा कि ” सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ जीवन का एक तरीका है, जो जीवन के सिद्धांत के रूप में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को पहचानता है.”
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भारत विरोधी विचारधारा वाले थे पेरियार
ईवीआर मूल रूप से भारतीय विरोधी था. उन्होंने भारत को कभी भी एक एकीकृत इकाई नहीं माना. वह भारत के भाषाई और नस्लीय संतुलन के पक्षधर थे. डॉ. अंबेडकर भारत की बुनियादी सांस्कृतिक एकता और उस आध्यात्मिक-सांस्कृतिक आधार पर भारत के राजनीतिक एकीकरण की आवश्यकता के बारे में गहराई से आश्वस्त थे. डॉ. अंबेडकर ने निश्चित रूप से राष्ट्र-राज्य के भाषाई आधार को खारिज कर दिया.
भाषाई राज्यों के लिए बहस करते हुए भी डॉ. अंबेडकर ने कहा:
“सूत्र एक भाषा, एक राज्य का अर्थ है कि एक भाषा बोलने वाले सभी लोगों को क्षेत्र, जनसंख्या और भाषा बोलने वाले लोगों के बीच स्थितियों की असमानता के बावजूद एक सरकार के तहत लाया जाना चाहिए. यही वह विचार है जो बंबई के साथ संयुक्त महाराष्ट्र के लिए आंदोलन को रेखांकित करता है. यह एक बेतुका फॉर्मूला है और इसकी कोई मिसाल नहीं है. इसे छोड़ देना चाहिए. एक भाषा बोलने वाले लोग कई राज्यों में विभाजित हो सकते हैं जैसा कि दुनिया के अन्य भागों में किया जाता है.
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और हिन्दुओं को विभाजित करने वाली भाषाई भावनाओं के प्रति आगाह किया:
“मैंने विभाजन की वकालत की क्योंकि मुझे लगा कि विभाजन से ही हिंदू न केवल स्वतंत्र होंगे बल्कि स्वतंत्र होंगे. … जब विभाजन हुआ तो मैंने महसूस किया कि ईश्वर अपना श्राप हटाने और भारत को एक, महान और समृद्ध बनाने के लिए तैयार हैं. लेकिन मुझे डर है कि अभिशाप फिर से गिर सकता है. क्योंकि मैं देखता हूं कि जो लोग भाषाई राज्यों की वकालत कर रहे हैं, उनके दिल में क्षेत्रीय भाषा को अपनी आधिकारिक भाषा बनाने का आदर्श है. ”
भारतीय लोगों की सुरक्षा से समझौता नहीं कर सकते थे अंबेडकर
डॉ अंबेडकर ने महार रेजिमेंट के निर्माण के लिए काम किया जिसने पश्चिमी पाकिस्तान से हिंदू-सिख शरणार्थियों को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. डॉ. अंबेडकर ने पूर्वी पाकिस्तान में फंसे हिंदुओं और बौद्धों के बचाव की भी पुरजोर वकालत की. डॉ. अंबेडकर ने जाति को राजनीतिक रूप से विभाजित हिंदुओं के रूप में देखा और चिंतित थे कि यह उन्हें स्वतंत्र भारत में कमजोर और कमजोर बना देगा. डॉ अंबेडकर कहते हैं कि,
“स्वराज की रक्षा के प्रश्न से अधिक महत्वपूर्ण स्वराज के अधीन हिन्दुओं की रक्षा का प्रश्न है. मेरी राय में, जब हिंदू समाज एक जातिविहीन समाज बन जाता है, तब ही उसमें अपनी रक्षा के लिए पर्याप्त शक्ति होने की आशा की जा सकती है. ऐसी आंतरिक शक्ति के बिना हिन्दुओं के लिए स्वराज केवल गुलामी की ओर एक कदम ही साबित हो सकता है. ”
ऐसा विजन ईवीआर में नहीं देखा जा सकता है, पेरियार की ‘सामाजिक कार्रवाई’ नस्लवादी बयानबाजी तक सीमित थी और इससे ज्यादा शायद ही कभी. उन्होंने सिर्फ दक्षिण वासियों के लिए अपनी आवाज उठाई न की पूरे देश में रह रहे दलितों की.