मर्यादा पुरुषोत्तम पर आधारित धार्मिक पुस्तक रामचरितमानस
देश भर में रामचरितमानस की चौपाईयों को लेकर जमकर विरोध हो रहा है, यही फर्क है की आज के समाज हम किसी की हजार अच्छाइयों को छोड़कर, एक बुराई या एक कमी को लेकर हम उसका चारित्रिक विशेलेषण कर लेते हैं. हालांकि जिन चौपाइयों का विरोध हो रहा है उनका भी अर्थ किसी गलत सन्दर्भ में नहीं था लेकिन समाज के हर व्यक्ति को समझाया नहीं जा सकता. आज हम रामचरितमानस की कुछ ऐसी ही चुनिन्दा पंक्तियों से अवगत कराएँगे जो समाज को देखने और समझने का एक अलग नजरिया देती है.
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जों बालक कह तोतरी बाता । सुनहिं मुदित मन पित अरु माता । ।
हंसीहंही पर कुटिल सुबिचारी । जे पर दूषण भूषनधारी । ।
अर्थ- जैसे बालक तोतला बोलता है , तो उसके माता- पिता उन्हें प्रसन्न मन से सुनते हैं किन्तु कुटिल और बुरे विचार वाले लोंग जो दूसरों के दोषों को ही भूषण रूप से धारण किये रहते हैं , हँसेंगे ही.
जग बहू नर सर सरि सम भाई । जे निज बाढहिं बढ़हिं जल पाई॥
सज्जन सकृत सिन्धु सम कोई । देखी पुर बिधु बाढ़ई जोई ।
अर्थ- जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक है जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं अर्थात अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं . समुद्र – सा तो कि एक बिरला ही सज्जन होता है जो चन्द्रमा को पूर्ण देख कर उमड़ पड़ता है.
धूम कुसंगति कारिख होई । लिखिअ पुरान मंजू मसि सोई ॥
सोई जल अनल अनिल संघाता । होई जलद जग जीवन दाता ॥
अर्थ- कुसंग के कारण धुंआ कालिख कहलाता है , वही धुंआ सुन्दर स्याही होकर पुराण लिखने के काम आता है और वही धुंआ जल , अग्नि और पवन के संग मिलकर बादल होकर जगत में जीवन देने वाला बन जाता है.
दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोड़िये जब तक घट में प्राण।।
अर्थ- तुलसी दास जी कहते है कि धर्म दया भावना से उत्पन होता है और अभिमान जो की सिर्फ पाप को ही जन्म देता है। जब तक मनुष्य के शरीर में प्राण रहते है तब तक मनुष्य को दया भावना कभी नहीं छोड़नी चाहिए.
लसी पावस के समय, धरी कोकिलन मौन।
अब तो दादुर बोलिहं, हमें पूछिह कौन।।
अर्थ- तुलसी दास जी इस दोहे के माध्यम से कहना चाहते हैं कि जब बारिश का मौसम होता है तो मेढ़कों के टर्राने की आवाज इतनी तेज हो जाती है कि उसके सामने कोयल की भी आवाज कम लगने लगती है। अर्थात् उस कोलाहल में दब जाती है और कोयल मौन हो जाती है. इसी प्रकार जब मेढ़क जैसे कपटपूर्ण लोग अधिक बोलने लग जाते हैं, तब समझदार लोग अपना मौन धारण कर लेते हैं। वो अपनी ऊर्जा को व्यर्थ नहीं करता.
सरनागत कहूं जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावंर पापमय तिन्हहि बिलोकति हानि।।
अर्थ- जो व्यक्ति अपने अहित का अनुमान करके शरण में आये हुए का त्याग कर देते है वे क्षुद्र और पापमय होते है। इनको देखना भी सही नहीं होता है.
काम क्रोध मद लोभ की जौ लौं मन में खान।
तौ लौं पण्डित मूरखौं तुलसी एक समान।।
अर्थ- तुलसीदास जी कहते है कि जब तक किसी भी व्यक्ति के मन कामवासना की भावना, लालच, गुस्सा और अहंकार से भरा रहता है तब तक उस व्यक्ति और ज्ञानी में कोई अंतर नहीं होता दोनों ही एक समान ही होते है.
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु।।
अर्थ- तुलसी दास जी कहते है कि शूरवीर तो युद्ध के मैदान में वीरता का काम करते है कहकर अपने को नहीं जानते. शत्रु को युद्ध में देखकर कायर ही अपने प्रताप को डींग मारा करते है.
करम प्रधान विस्व करि राखा।
जो जस करई सो तस फलु चाखा ।।
अर्थ- तुलसीदास जी कहते है कि इश्वर ने कर्म को ही महानता दी है. उनका कहना है कि जो जैसा कर्म करता है उसको वैसा ही फल मिलता है.
तुलसी जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ।
तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ।।
तुलसीदास जी इस दोहे के माध्यम से कहना चाहते हैं कि जो दूसरों की बुराई करके अपनी खुद की प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहते हैं. इस चक्कर में अपनी प्रतिष्ठा खो देते हैं। एक दिन ऐसे लोगों के मुंह पर कालिख पुतेगी कि वह मरते दम तक साथ नहीं छोड़ेगी. चाहे वह कितनी ही कोशिश क्यों न कर लें, वह अपनी पहले जैसी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर सकता.