पंजाब के इतिहास में ऐसे कई महान योद्धा हैं जिनकी पहचान आज के वक़्त में केवल इतिहास की किताबों तक ही सीमित है। उन्हीं महान योद्धाओं में से एक थे बाबा संगत सिंह। जो चमार समुदाय के एक महान योद्धा थे। बाबा संगत सिंह जी 1704 में 10 लाख दुश्मन सेना का सामना करते हुए शहीद हो गए, लेकिन उन्हें इतिहास में कोई उचित स्थान नहीं मिला। उनके द्वारा किये गये बलिदान को सिख इतिहासकार आज भी याद करते हैं। आइए आपको बताते हैं कि बाबा संगत सिंह कौन थे और सिख इतिहास में उनका क्या योगदान रहा था।
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बाबा संगत सिंह का प्रारंभिक जीवन
बाबा संगत सिंह जी का जन्म 22 दिसंबर, 1666 को श्री गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज के अवतार के लगभग चार महीने बाद 25 अप्रैल,1667 को पटना साहिब में हुआ था। बाबा संगत सिंह रविदासिया परिवार से थे। उनके माता-पिता का नाम भाई रानिया और मां का नाम बीबी अमारो था। उन्होंने शास्त्र विद्या, घुड़सवारी, युद्धकला और मार्शल आर्ट के साथ-साथ पंजाबी, उर्दू, संस्कृत, फ़ारसी और ब्रज जैसी भाषाएं सीखी। उनके इसी कौशल को देखते हुए उनके पिता भाई रानिया ने देश की सुरक्षा की खातिर उन्हें गुरु गोबिंद सिंह की शरण में भेज दिया। युद्ध कला में उनकी वीरता को पहचानने के बाद गुरु गोबिंद ने उन्हें सेनापति नियुक्त कर दिया।
हर युद्ध में हुई जीत
बाबा संगत सिंह ने भंगानी, बजरूर, नादौन, आनंदपुर साहिब, बंसाली, निर्मोहगढ़, सरसा और चमकौर की सभी चार लड़ाइयों में भाग लिया। उनके नेतृत्व में सिख सेना ने भगानी की लड़ाई जीती थी। उन्होंने अपनी वीरता दिखाते हुए भीमचंद्र को भी वश में कर लिया था। उन्होंने अपने जीवन में दस युद्ध लड़े और किसी भी युद्ध में नहीं हारे। युद्धभूमि में जो भी उनके सामने आया, उन्होंने उसे छिन्न-भिन्न कर दिया। युद्ध हो या मैदान उन्होंने अपना परचम हर जगह लहराया, इसी वीरता के कारण वीर सूरमा को महान रविदासी कहा जाता था। उनके जीवन का अंतिम युद्ध चमकौर का युद्ध था जिसमें उन्हें वीरगति प्राप्त हुई।
10 लाख दुश्मनों से अकेले लड़े
1704 के आसपास मुगल उत्पीड़न अपने चरम पर पहुंच गया था। मुगल उस दौरान लोगों का जबरन धर्म परिवर्तन कराने में लगे हुए थे। तब दसवें सिख गुरु गोबिंद सिंह ने इसके खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने मुगलों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। जिसके बाद मुगल उन्हें हराने में असफल रहे थे और किसी भी कीमत पर उन्हें जिंदा या मुर्दा पकड़ने की कोशिश की। उस समय गुरु गोबिंद को लाने के लिए वजीर खान ने अपने मुगल सैनिकों दावरा आनंदपुर साहिब को घेर लिया। उस दौरान 10 लाख सैनिकों ने 43 सिखों को घेर लिया था।
गुरु गोबिंद सिंह ने मुगलों से 14 बार युद्ध किया था। चमकौर युद्ध उनमें से एक था। इस युद्ध में गुरु गोबिंद सिंह के दो पुत्र भी शहीद हो गये। इस युद्ध में गुरु गोबिंद सिंह ने कहा था कि ‘सवा लाख से एक लड़ाऊँ, तभी गोबिंद सिंह कहूँगा।’ इस कहावत का अर्थ था, “मुझे गोबिंद सिंह तभी कहना जब मेरा एक-एक सिख सवा लाख से अधिक शत्रुओं से युद्ध करेगा।”
गुरु गोबिन्द के लिए दिया बलिदान
गुरु गोबिंद को दुश्मनों की घेराबंदी से बचाने के लिए बाबा संगत ने गुरु गोबिंद से उनके स्थान पर मैदान संभालने का अनुरोध किया। वहीं, शारीरिक रूप से बाबा संगत गुरु गोबिंद से काफी मिलते-जुलते थे और दुश्मन को धोखा देने के लिए उन्होंने गुरु का भेष धारण कर लिया था।
1704 में चमकौर का किला छोड़ने के बाद, गुरु गोबिन्द ने बाबा संगत सिंह जी को अपनी हीरे की कलगी, पोशाक और हथियारों से सजाया और उन्हें युद्ध के मैदान में भेजा। दुश्मन फौज भी यह नहीं समझ पायी कि गुरु गोबिंद के वेश में बाबा संगत थे। बाबा संगत ने अपनी आखिरी लड़ाई बहुत बहादुरी से लड़ी और इस युद्ध में लड़ते हुए वह शहीद हो गये। उनके इसी बलिदान की वजह से गुरु गोबिंद भी दुश्मनों की कैद से भागने में कामयाब रहे।
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